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फिल्म हेलमेट एक लाइन, “चाहिए सब को, मगर मांगता कोई नहीं है” पर टिकी है परंतु अपने मुख्य बिंदु को सही तरीके से प्रस्तुत नहीं कर पाई।
अभिनेता जॉन अब्राहम ने परदे के पीछे रहते हुए एक बड़े सामाजिक विषय, स्पर्म डोनेशन को कॉमेडी के रूप में फिल्म ‘विक्की डोनर’ में प्रस्तुत किया। इस फिल्म ने उन मुद्दों पर कॉमेडी अंदाज में प्रस्तुत करने की शैली विकसित करवा दी जिस पर भारतीय समाज में कभी कोई खुलकर बात नहीं करता।
निरोध का इस्तेमाल भी वैसा ही विषय है जिसके इस्तेमाल और सुरक्षा के फायदे के बारे में लोगों को पता है। परंतु, दुकान या मेडिकल स्टोर पर जाकर खरीदने पर लोगों को शर्म या झिझक महसूस होती है। निर्देशक सतराम रमानी ने लेखक गोपाल मुढ़ाने, रोहन शंकर के साथ मिलकर ओटीटी प्लेटफार्म जी5 पर इसी विषय पर एक कहानी सुनाई है। जिसमें जान-बूझकर एक प्रेम कहानी में अमीर-गरीब का छौका भी लगा दिया है।
निर्देशक सिर्फ कंडोम खरीदने में भारतीय पुरुषों के झिझक पर ही फोकस करते तो कहानी में बहुत कुछ कर सकते थे। बेशक एक अच्छे विषय पर शानदार सामाजिक संदेश देने से कहानी चूकी हुई सी लगती है।
लकी (अपारशक्ति खुराना) एक बैंड कंपनी में गायक हैं और अपने मालिक की भांजी रूपाली (प्रनूतन बहल) से प्यार करते हैं। दोनों शादी करना चाहते हैं पर मालिक-नौकर की अमीरी-गरीबी बीच की लक्ष्मण रेखा बन जाती है। इस रेखा को पार करवाने के लिए कंडोम कहानी में एक माध्यम बनकर आता है पैसा कमाने का। परंतु, कंडोम को लेकर समाज में इतनी शर्म और झिझक है कि कंपनी तरह-तरह के फ्लेवर उतारने के बाद भी नहीं बेच पा रही है।
लकी अपने दोस्त सुलतान (अभिषेक बनर्जी) और माईनस (आशीष वर्मा) के साथ मिलकर हैलमेट पहनकर कंडोम बेचने की योजना बनाते है। लकी अमीरी-गरीबी वाली लक्ष्मण रेखा कंडोम बेचकर पार कर पाते है या नहीं? रूपाली से उसकी शादी हो पाती है या नहीं? कंडोम बेचने के लिए लकी कौन-कौन सी जुगत लगाते हैं? यह जानने के लिए आपको फिल्म हेलमेट देखनी होगी। अपारशक्ति खुराना की ये फिल्म हंसी के फुहारों से थोड़ा मनोरंजन तो कर ही देगी।
फिल्म हेलमेट अपनी पूरी कहानी में “चाहिए सब को, मगर मांगता कोई नहीं है” के एक लाइन पर टिकी है। इस लाइन पर कहानी बुनने के लिए और उससे मनोरंजन खड़ा करने के लिए, जो कोशिश पूरी टीम को करनी चाहिए, वह नहीं दिखती है। पूरी कहानी “विकी डोनर” के तरह एक बड़ा सामाजिक संदेश खड़ा करना चाहती है। परंतु, शुरूआत से वह टैम्पो बना नहीं पाती। बस एक सोशल कॉमेडी बनकर रह जाती है।
कहानी मध्यांतर के पहले जब एक कोठे पर पुरुषों के कंडोम इस्तेमाल करने का बोझ महिलाओं के कंधे पर डालती है, उसी वक्त अपने सामाजिक संदेश के मूल से पीछे हट जाती है। फिल्म का यह एक दृश्य जो कमोबेश दस मिनट का है, गंभीर विषय समस्या से निपटने का सारा ठिकरा महिलाओं पर फोड़ते हुए दिखता है। गोया, पुरूषों के निरोध इस्तेमाल नहीं करने कारण जो भी समस्याएं समाज में मौजूद है उसका कारण केवल महिलाएं हैं।
यहीं पर निर्देशक सतराम रमानी एक सफल कहानी बनाने और सुनाने में असफल हो जाते है। फिल्म की कहानी जितनी मजबूत बन सकती थी निर्देशक उसको एक सामाजिक संदेश सूत्र में पिरोने में कामयाब नहीं हो पाते है। बहरहाल, हेलमेट गुदगुदाती ज़रूर है इसमें कोई शक नहीं है।
फिल्म के कहानी को सुनाने के लिए जिन कलाकारों को जमा किया गया है वे सभी उम्दा और बेहतरीन कलाकार हैं। मुख्य समस्या यही है कि किसी कलाकार के हिस्से में बेहतरीन हिस्सा आता ही नहीं है जो दर्शकों को प्रभावित कर सके। इस सीमा में सभी कलाकारों ने अपना बेहतर देने का प्रयास किया है परंतु दर्शक उनके अभिनय का आनंद नहीं ले पाते हैं।
हेलमेट अपनी कहानी में लोगों के सेक्स समस्याओं के सही समाधान, जनसंख्या नियंत्रण के लिए कंडोम का इस्तेमाल और कंडोम के इस्तेमाल के लिए जागरूकता के लिए बेहतरीन कहानी बनने की क्षमता रखती है। परंतु, शुरूआत से ही कहानी अपने कंधे पर पूरा वजन लेना नहीं चाहती। इसलिए बीच में सारा बोझ महिला कें कंधे पर डाल कर किनारे खड़ी हो जाती है।
जबकि चाहे लोगों के सेक्स की समस्या हो या जनसंख्या नियंत्रण, या भी कंडोम को लेकर जागरूकता यह समाज के प्रत्येक स्त्री-पुरुष की समस्या है। कहानी अपने मुख्य बिंदु को कभी सही तरीके से प्रस्तुत ही नहीं कर पाती और कॉमेडी में उलझकर रह जाती है। कॉमेडी भी बस गुदगुदाने तक ही सीमित होकर रह जाती है।
मूल चित्र: Still from the Trailer, Helmet, YouTube
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