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स्मृतियों से मगर एहसास जो जुड़ा वो कहाँ मिल पायेगा? हर गृहिणी संजोती है, संवारती है, घर का कोना कोना, कण-कण में बसती है, उसकी आत्मा!
अरे! अरे! संभाल के भाई, ज़रा मज़बूती से पकड़ो अलमारी। दो जन से नहीं उठेगी मानो, साल की लकड़ी से बनी है, बहुत भारी।
रुको! रुको! यूँ नहीं, हाँ ऐसे दोनों बाहों में, समेट के उठाओ ज़रा वो सोफा। दरवाज़े की रगड़ से कहीं फटे ना कवर, मन में उठते उसने अपने अनुमान को टोका।
उफ! ऐसे कैसे पटक दिया मेरी प्यारी क्रॉकरी का बक्सा? आँखों के प्याले छलक आये और दिल में भर आया उन पर गुस्सा।
ओहो! तुम तो नाहक झल्लाती हो, क्यूँ ज़रा-ज़रा सी बात पर चिढ़ जाती हो? फिर वो सोचती हुई मूक एक तरफ खड़ी हो गई, क्या ये गृहस्थी ऐसे ही इतनी बड़ी हो गई?
कभी राशन के खर्चे कभी अपनी आर डी तुड़वा कर, पहले पहल खरीदा सोफा, अवन बड़े मन के चाव से। मशीन ही तो है! फर्नीचर ही तो! नया आ जायेगा, वैसे भी पंद्रह बरस पुराना है, टूटा भी तो क्या जायेगा?
हाँ! रुपयों की कमी नहीं माना, नया भी आ जायेगा। स्मृतियों से मगर एहसास जो जुड़ा वो कहाँ मिल पायेगा? हर गृहिणी संजोती है, संवारती है, घर का कोना कोना। कण-कण में बसती है, उसकी आत्मा कभी तो सुनो ना!
मूल चित्र: Still from Short Film Beans Aloo,YouTube
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