कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
ढेरों कहानियाँ,उपन्यास और कॉमिक्स जीवन इन्हीं उमंगों पर हिलोरें मारता चलता बढ़ता रहता। हिंदी भाषा अपनी भाषा यानी अपनी हिंदी लगती थी।
ढेरों कहानियाँ, उपन्यास और कॉमिक्स जीवन इन्हीं उमंगों पर हिलोरें मारता चलता बढ़ता रहता। हिंदी भाषा अपनी भाषा यानी अपनी हिंदी लगती थी।
उन दिनों हिंदी का बड़ा बोलबाला था। हम बच्चे, कालोनी में छः या सात, सब एक ही कक्षा के सहपाठी और परस्पर दोस्त हुआ करते थे। स्कूल के बाद दिनभर खेलकूद, डायलॉग्स पर चर्चाएँ, क्रिकेट की बातें और ढेरों कहानियाँ, उपन्यास और कॉमिक्स जीवन इन्हीं उमंगों पर हिलोरें मारता चलता बढ़ता रहता। हिंदी भाषा अपनी भाषा यानी अपनी हिंदी लगती थी।
जी हाँ, ये ८० – ९० के दशक का वह समय था जब हम पारंपरिक खेलों को खेलकर (जिन्हें हम सब भूल गये है) और पेड़ों पर चढ़कर, ज़िंदगी की कोडिंग सीख रहे थे और साथ ही साथ हिंदी पर पकड़ भी पक्की कर रहे थे बस यूँ ही, अनजाने में।
हिंदी तब आजकल के बच्चों की तरह विशेषतः सीखनी और याद नहीं करनी पड़ती थी। वो बस माँ के आँचल की तरह हमसे लाड़ से लिपटी हुई सी रहती और हम हिंदी के साथ-साथ बढ़ते चले गए। कहना होगा कि हमने हिंदी को कभी गम्भीरता से नहीं लिया था, क्योंकि हिंदी सहजता से समाज में स्वीकार्य थी और सरलता से उपलब्ध भी थी।
आजकल अपने ही बच्चों की हिंदी से अनभिज्ञता और दूरी देख कर मन में चुभन सी होती है क्योंकि हिंदी से विमुख होना अपनी संस्कृति से भी विमुख करता है। सांस्कृतिक समृद्धि और पारंपरिक मूल्यों का स्पर्श न हो तो व्यक्तित्व पहचान विहीन हो चलता है।
तो अपनी नई पीढ़ी को हिंदी की सहज छाया में रखना ही श्रेयस्कर है क्योंकि पौधे की रंगत उसकी अपनी मूल देशज मिट्टी में ही निखरती है। बोलचाल की व्यावहारिक हिंदी की अपेक्षा, पठन-पाठन वाली हिंदी शिष्ट होने के साथ क्लिष्ट भी प्रतीत होती है। फिर भी हमारी बाल्यावस्था में हिंदी सीखना व पढ़ना कभी भी कठिन और बोझिल प्रतीत न हुआ।
पत्रिकाएँ, कहानियाँ, समाचार पत्र, उपन्यास और कॉमिक्स के उस दौर ने अपनी भूमिका बख़ूबी निभाई। एक बार अँग्रेजी पढ़ाने वाली एक प्रध्यापिका महोदया ने कक्षा में एक विचार व्यक्त किया था कि “Read read and read literature if you want to learn English”. तो यह कथन हिंदी पर भी उतना ही लागू होता है। घर की अलमारियाँ यदि हिंदी साहित्य से सजी हों तो बच्चों में हिंदी स्वतः रच बस जाएगी।
तो विचारणीय यह है कि हिंदी किताबों से भरी अलमारियाँ कहाँ गईं और बच्चों की साथी कहानियों की किताबें, बाल-पत्रिकाएँ, कॉमिक्स और बाल-उपन्यासों की श्रृंखलाओं का क्या हुआ? एक तो यह हुआ कि टेलीविज़न ने कुछ समय छीना, फिर रही सही कसर मोबाइल फ़ोन और कंप्यूटर ने पूरी कर दी।
लेकिन इससे भी ज़्यादा हानि हमारे मन और समाज मे व्याप्त हिंदी के प्रति इस कुंठा ने पहुँचाई कि यदि आगे बढ़ना है, प्रगतिशील और सभ्य दिखना है तो अंग्रेजी सीखो। अँग्रेजी रोज़गारपरक तो थी ही, ऊपर से पढ़े लिखे को अँग्रेजी में गिटपिट करना नितांत आवश्यक समझ लिया गया।
चलो अँग्रेजी समझना और बोलना तक तो ठीक, कब हम घर ही में हिंदी के विरोध पर उतर आए हम स्वयं ही नहीं जान पाए। बेटे जूता नहीं Shoes कहो! कढ़ाई नहीं, Pan कहो! अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुल गए। “उठो लाल अब आँखे खोलो” से आँखें फेर, अँग्रेजी में “Twinkle twinkle” याद करवाए गए। हिंदी किताबें पुस्तकालयों में भी पिछली कतारों में धूल फाँकने लगीं।
सारा दोष TV और मोबाइल फ़ोन का नहीं, हमारी सोच का भी रहा है। जब हमारी नौजवान पीढ़ी हिंदी से अनजान होगी, उससे कन्नी काटेगी तो हिंदी भी मर जाएगी।
हिंदी की जगह हमारे घर, विद्यालय और पुस्तकालय में है। कहीं ऐसा न हो कि उपेक्षा की शिकार हिंदी संग्रहालयों में जा छिपे।
तो चलिए, शुरुआत करते हैं अपने घरों से। अच्छी हिंदी साहित्य की किताबें-कहानियों से घर की अलमारियाँ सजाते हैं। पढ़ी-अनपढी किताबों को घर में पुनः उनकी पुरानी जगह लौटाते हैं। किताबों का परस्पर आदान-प्रदान मित्रों और सम्बन्धियों को उपहार स्वरूप पुस्तकें देने का सिलसिला फिर आरंभ करते हैं। थोड़ा वक्त लगेगा नई पीढ़ी को माटी की सुगंध तो लेने दीजिए, हिंदी फिर खिल उठेगी।
हिंदी दिवस पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं!
(हिंदी भारत में सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा है और इसे राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। १४ सितंबर १९४९ को संविधान सभा में हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था। हिंदी के महत्व को बताने और इसके प्रचार प्रसार के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अनुरोध पर १९ ५३ से प्रतिवर्ष १४ सितंबर को भारत में हिंदी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। जबकि सन २००६ से १० जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाया जाता है।)
मूल चित्र: Still from Bollywood Movie Tribhanga, YouTube
Hi! I am Anjali, the blogger at Messymom.co. I am from India and currently living in Oman with my family. I am a doting mother of two energetic kids. I love to enjoy doing read more...
Please enter your email address