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रमा को ठंड के महीने में मारे डर के माथे से पसीने छूट रहे थे। उसे डर था कि अगर आज रूपा को कुछ भी हुआ तो उसका दोष उसे ही सिर पर आएगा।
रमा अस्पताल के कॉरिडोर में टहल रही थी। उसके आंखों से आंसू थमने का नाम ही नही ले रहे थे। लेबर रूम में अंदर उसकी देवरानी रूपा प्रसव वेदना से तड़प रही थी।
बाहर रमा हाथ मे फोन लिए लगातार घर वालो को फोन लगाए जा रही थी लेकिन किसी का भी फोन नही लग रहा था। रमा को ठंड के महीने में मारे डर के माथे से पसीने छूट रहे थे। उसे डर था कि अगर आज रूपा को कुछ भी हुआ तो उसका दोष उसे ही सिर पर आएगा।
रमा के सास, ससुर कपड़ों की खरीदारी करने बाजार गए थे, देवर रोहन ऑफिस के काम से शहर के बाहर और रमा के पति अमर का आज बिजनेस के सिलसिले में किसी के साथ जरूरी मीटिंग में व्यस्त थे। घबराहट में रमा ने सबको मैसेज कर के बता दिया कि वो रूपा को लेकर अस्पताल आयी है।
प्रसव कमरे से अंदर बाहर करती नर्सों ने कितनी बार रमा से कहा, “आप बैठ जाइए, कब तक खड़ी रहेंगी?”
जवाब में रमा कहती, “मैं ठीक हुँ।”
रूपा की दर्द से चीखती उसकी आवाज, रमा के दिल की धड़कनें तेज कर देती और वो टकटकी लगाए दरवाजे की तरफ देखती भागती हुई जाती।
तभी एक नर्स ने कहा, “सुनिये आपको डॉक्टर बुला रही है।”
रमा भागती दौड़ती डॉक्टर के कमरे में पहुंची तो डॉक्टर ने कहा, “देखिये हमे समय से पूर्व प्रसव कराना होगा। इसके लिए हमे ऑपरेशन करना होगा, क्योंकि बच्चें की धड़कनें धीमी हो गयी है और थैली से पानी निकल चुका है। आप जल्दी से इन पेपर्स पर साइन कर दीजिए।”
पेपर्स देखते रमा के हाथ पांव सासुमां के डर से थर्राने लगे।
तभी नर्स ने कहा, “देखिये जल्दी साइन कीजिये हमारे पास समय कम है।”
रमा ने अपनी आंखों से आंसू पोछे और पेपर्स पर साइन कर दिया। साइन करने के बाद उसने नर्स से कहा, “ये लीजिए पेपर्स। लेकिन मेरी रूपा और बच्चा दोनो सही सलामत मुझे चाहिए।”
नर्स ने कहा, “आप चिंता मत कीजिये सब अच्छा होगा बस आप भगवान से प्रार्थना कीजिये।”
आखिर रमा इतनी डरी हुई क्यों थी?
आठ साल पहले जब रमा शर्मा निवास में अमर के साथ ब्याह कर ससुराल आयी तो सब बहुत खुश थे, खासकर, उसकी सास गीताजी क्योंकि रमा अपने साथ ढेर सारा दहेज लेकर आयी थी।
सासुमां ने ससुराल की सारी जिम्मेदारियों को उसको ऐसे सौंपा जैसे सब कुछ उसकी ही जिम्मेदारी थी। उसने बिना उफ्फ किये हमेशा घर के एक एक काम किये।
शादी के ठीक दो साल बाद उसने दो जुड़वां बेटियों को जन्म दिया। लेकिन बेटियों के जन्म के समय एक दुर्घटना में उसे दुबारा कभी माँ ना बन पाने का अभिशाप मिला। जिसने उसके पूरे जीवन को बदलकर रख दिया।
पोते की आस लगाए बैठी गीताजी अब रमा को अपशगुनी मानने लगी थी। वो उसकी बेटियों को भी कभी प्यार से गले ना लगाती। अमर को ये बात बहुत अच्छे से पता थी, लेकिन वो हर बार रमा को ही समझाता, “रमा तुम मां की बातों को दिल से मत लगाया करो। देखना समय के साथ वो भी बदल जायेगी। तुम बस धैर्य रखो।”
लेकिन रमा का देवर रोहन उसका बहुत सम्मान करता था। वो उसकी दोनो बेटियों को भी बहुत प्यार करता। जब भी अपनी माँ को उनके साथ दुर्व्यवहार करता देखता तो अपनी माँ को टोक देता। कहता, “माँ आप भी तो किसी की बेटी ही हैं।” इसलिए गीताजी उसके सामने कुछ भी गलत करने से बचतीं।
गीताजी में रोहन की पूरी शादी के दौरान रमा को रसोई से बाहर नहीं निकलने दिया। वो कोई ना कोई बहाना बनाकर उसको अंदर ही कर देती। और रमा खुद भी जाने से बचती क्योंकि उन्होंने रमा को शक्त हिदायत दी थी कि “उसकी परछाई भी उनके बेटे-बहू पर ना पड़े!”
रूपा जब गर्भवती हुई तो उसके गोद-भराई के समय उन्होंने रमा से कहा, “सुनो रमा! बड़े बुजुर्गों ने कहा है कि बांझ का तो मुँह भी देख लो लेकिन निरवंशी का तो चेहरा देखना भी पाप है। इसलिए मैं चाहती हूँ कि तुम रूपा की गोद-भराई से पहले अपने मायके चली जाओ, जब तक कि रूपा बच्चे को जन्म ना दे दे वापस मत आना। और हाँ अमर को ये बात मत बताना उससे कोई भी बहाना कर देना। उसका जब मन चाहे तुम लोगों से मिल सकता है। आखिर तुम्हारा मायका कौन सा दूर है?एक ही शहर में है जब जी चाहे तुमसे और बच्चो से मिल लेगा।”
रमा उस दिन इतना रोयी जिसकी कोई सीमा ना थी उसने कभी सपने में भी नही सोचा था कि उसका बेटा ना होने की वजह से इतना अपमान होगा। रमा अगले दिन अपने मायके चली गयी।
रमा को यू अचानक आया देखकर उसकी मां ने पूछा, “अरे अचानक बिना बताए क्या बात है रमा, सब ठीक तो है ना?”
रमा ने कहा, “हाँ माँ सब ठीक है बस आपसे और पापा से मिलने का मन हुआ तो चली आयी।”
रमा के मायके आने के अगले दिन ही उसके फोन पर देवरानी रूपा का सुबह 10 बजे फोन आया तो उधर से रूपा के दर्द से कराहने और रोने की आवाज आयी।
“क्या हुआ रूपा? सब ठीक तो है ना तुम रो क्यों रही हो?”
“भाभी, अभी मैं आपको कुछ नही बता पाऊंगी बस आप जल्दी से घर आ जाइये।”
ऑटो से रमा घर पहुंची तो रूपा दर्द से कराह रही थी और घर मे कोई भी मौजूद नहीं था। रूपा को लेकर घर मे ताला लगाकर रमा अस्पताल गयी। रूपा ने रास्ते मे बताया कि माँजी ससुर जी के साथ गोद-भराई के लिए बाजार करने गयी हैं और रोहन सुबह ही ऑफिस के काम से शहर से बाहर चला गया। रूपा का अभी सातवां महीना ही चल रहा था।
तभी नर्स ने आकर कहा, “मुबारक हो बेटा हुआ है लेकिन अभी प्री मैच्योर होने की वजह से उसको अस्पताल में हमारी निगरानी में रखना होगा।”
इतने में सभी घर वाले भी आ गए। गीता जी ने आव देखा ना ताव उन्होंने सबके सामने अस्पताल में रमा के गालों पर दो थप्पड़ लगा दिए और कहा, “अपशगुनी कहीं की ख़ुद तो बेटा जन्म नहीं पायी तो देवरानी की खुशियों में भी आग लगा दी। मना किया था ना तुझे आने से?”
इतने में अमर वहाँ आ गया। उसने गुस्से में कहा, “मां ये क्या तरीका है? आपने रमा को मारा क्यों? आखिर उसकी गलती क्या थी यही ना कि उसने रूपा की मदद की, वरना आज क्या होता?”
“तू चुपकर जोरू का गुलाम! तू तो इसकी तरफदारी करेगा ही।”
तभी वहाँ नर्स ने आकर रमा से कहा, “आपको अंदर डॉक्टर बुला रहे हैं।”
गीताजी ने कहा, “मै जाऊंगी अंदर और तू चुपचाप अपने मायके जा।”
गीताजी अंदर डॉक्टर के कमरे में गयी और उन्होंने अपना परिचय दिया। तब डॉक्टर ने कहा, “अब मां और बच्चा दोनो खतरे से बाहर है लेकिन अभी दोनों को ही बहुत देखभाल की जरूरत है। ये कुछ दवाइयां है आप बाहर मेडिकल स्टोर से लेते आइये।”
“ठीक है”, कहकर जैसे ही कमरे से बाहर गीता जी निकली उनका पैर फिसला और वो अस्पताल में ही गिर गयी। डॉक्टर ने एक्सरे और चेक करके बताया कि पांव फैक्चर हो चुका है एक महीना बेडरेस्ट करना होगा।
अब क्या था! एक बार फिर गीता जी के न चाहने पर भी रमा के ही कंधो पर सारी जिम्मेदारी आ गयी। वो रोज घर के काम खत्म करके अस्पताल जाती। एक महीने के अथक प्रयास के बाद डॉक्टर ने बच्चे को घर ले जाने की अनुमति दे दी और गीताजी के पांव भी ठीक हो गए।
घर आने के अगले दिन जब रूपा के कमरे में जाकर रमा ने बच्चें को अपने गोद में लिया तो पीछे से कड़कती आवाज में गीताजी ने कहा, “बड़ी बेशर्म हो गयी हो? तुम इतनी बार बोला तुमको कि तुम रूपा और उसके बेटे से दूर रहो लेकिन तुम मानती नहीं! इतना अपशगुन करा कर जी नहीं भरा जो कुछ और कराना चाहती हो?”
उसने जैसे ही बच्चे को रुपा के गोद मे देना चाहा, रूपा ने कहा, “भाभी आप भुल गयीं। ये आपका भी बेटा है और आपके ही पास रहेगा। हमने अस्पताल में क्या वादा किया था? दिन की जिम्मेदारी आपकी और रात की मेरी। तो अब ये आपकी जिम्मेदारी का समय है। रात भर जगाया है आपके लाडले ने मुझे, अब मुझे आराम करना है। मुझे तो नींद आ रही है।”
रूपा ऐसे व्यवहार कर रही थी जैसे उसने माँजी की बातें सुनी ही ना हो। तभी गीता जी ने कहा, “रूपा, तुमने सुना नहीं क्या? मैंने क्या कहा?”
रमा जाने ही वाली थी कि रमा को रूपा ने कहा, “रुकिए भाभी! आज बिना बोले काम नही चलने वाला। कभी-कभी बड़े इतना मजबूर कर देते हैं कि उनको जवाब देकर सच का आईना दिखाना ही पड़ता है।
सुना माँजी! अच्छी तरह सुना। लेकिन मैं आपकी ये बेकार की बातें नहीं सुन सकती और मान सकती हूँ। मैंने और रोहन ने आपको बहुत बार समझाया कि आप भाभी को यूं हर बात में अपमानित ना किया करें लेकिन आप मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं।
वो तो भाभी हैं जो आपकी इन कड़वी बातों को सुनकर रह जाती है। वरना उनकी जगह कोई और होता तो अब तक आपको करारा जवाब और सबक कब का मिल चुका होता। आपकी जानकारी के लिए बता दूँ मेरे लिए मेरी जेठानी कभी अपशगुनी नहीं थी, ना हैं, ना रहेंगी। बल्कि मेरे और मेरे बच्चे के लिए तो वो जीवनदाता हैं। अगर ये समय से फोन उठाकर यहाँ आकर मुझे अस्पताल ना ले जातीं तो ना जाने क्या हो जाता?
और बेटी को जन्म देने से कोई अपशगुनी हुआ तो मुझे आप ये बताइए, आप देवी की पूजा क्यों करती हैं? तब तो मेरी माँ और आपकी मां भी अपशगुनी हुईं क्योंकि मैं भी दो बहनें हैं और आप चार बहनें हैं। हम दोनों को ही भाई नहीं। तो अब बताइए कि क्या ये कहना ठीक है?”
इतने पर रोहन ने बच्चें को रमा की गोद मे लेने का आग्रह करते हुए कहा, “भाभी! आप तो इसकी बड़ी माँ हैं और इस पर सबसे पहला अधिकार भी आपका ही होगा। इसलिए इसको आपका सानिध्य, प्यार और संस्कार मिलना ही चाहिए।”
रमा ने अमर की तरफ देखा तो उसने सहमति में सिर हिलाया। रमा ने बच्चे को अपनी गोद मे लिया और उसका माथा चूम लिया।
गीताजी ने घूर कर सबको देखा और इतना सा मुँह लेकर वहाँ से गुस्से में तमतमाते हुए निकल गयीं।
प्रिय पाठकगण, उम्मीद करती हूँ कि मेरी ये रचना आपको पसन्द आएगी। कहानी से जुड़े अपने विचार कमेंट और लाइक के माध्यम से अवश्य बताए।
मूल चित्र : Still from Short Film Ghar Ki Murgi, YouTube
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