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देखो जी, हम से महिला अधिकारों पर चाहे जितनी भी बात करा लो, लेकिन घर जा के खाना बीवी को ही पकाना है, घर के सारे काम भी उसी से करवाने हैं...
देखो जी, हम से महिला अधिकारों पर चाहे जितनी भी बात करा लो, लेकिन घर जा के खाना बीवी को ही पकाना है, घर के सारे काम भी उसी से करवाने हैं…
महिला अधिकार एक ऐसा ‘हॉट टॉपिक’ है जिस पर बात करना बहुत अच्छा लगता है। कहीं भी सेमीनार हो या कोई और मौक़ा, मंच पर महिला अधिकारों पर बोले जाने वाले दो शब्द वक्ता को सम्मान महसूस कराते हैं। हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठता है। श्रोता “वाह-वाह” कर रहे होते हैं और वक्ता वाह-वाही लूट रहा होता है। लेकिन यही वक्ता जब उस मंच से उतर कर नीचे आता है तो महिला को अधिकार देने का उसका बुखार मंच से नीचे उतरते ही उसके सर से उतर जाता है।
सत्य यह है कि महिला अधिकारों पर बात तो सबको करनी है मगर उन्हें महिलाओं को पूर्ण रूप से देने किसी को नहीं हैं। कोई देता है तो इस तरह जैसे भीख दे रहा हो। जबकि महिलाओं के अधिकार उनके जन्म सिद्ध अधिकार होते हैं। उसे उन्हें किसी से लेने नहीं होते बल्कि वे प्रकृति ने खुद उसे दिए होते हैं। मगर यह पितृसत्तात्मक समाज उसको वो प्राकृतिक अधिकारों से भी वंचित रखना चाहता है।
ऐसा करने के पीछे उसका खुद का एक लालच होता है। उसी लालच के चलते दूसरे के अधिकारों का हनन करना और उसे अपने ऊपर निर्भर रखना उनका उद्देश्य होता है ताकि वे ऐसा करके उसे अपनी कठपुतली बना सकें।
इस कार्य में पुरुषों के साथ-साथ हमारे समाज की स्त्रियां भी कम नहीं हैं। औरतों का एक बड़ा समूह ऐसा भी है जो खुद नहीं चाहता कि महिलाओं को ये अधिकार मिलें क्योंकि उनसे उनका निजी उद्देश्य पूरा हो रहा होता है।
आइये ऐसे ही कुछ अधिकारों की बात करते हैं जिस पर घर से बाहर बात करना तो सबको पसंद है मगर खुद के घर के भीतर वो किसी का हस्तक्षेप करना नहीं भाते।
मुझे आज भी याद है हमारी यूनिवर्सिटी के एक पुरुष शिक्षक महिला अधिकारों की बात बड़े जोश से करते थे। जहाँ जाते महिला अधिकारों पर भाषण देकर वाह-वही बटोर कर लाते थे। जब उनसे उनकी पर्सनल लाइफ में महिला को अधिकार देने का सवाल किया गया कि वो अपने घर की महिलाओं को उनके कितने अधिकार देते हैं तो उनका कहना था, “देखो जी, हम से महिला अधिकारों पर चाहे जितनी भी बात करा लो, लेकिन घर जा के खाना बीवी को ही पकाना है, जाते ही पीने को पानी उसी से मंगवाना हैं और घर के सारे काम भी उसी से करवाने हैं।”
‘खाना बनाना, कपड़े धोने, बच्चे को संभालना’, आदि हमारे समाज के अनुसार ये सब केवल महिलाओं के काम हैं। महिलाओं को, फिर चाहे वो घर में पत्नी हो, माँ हो या बहन हो अपना करियर त्याग करके या उसके साथ समझौता करके इन सब कामों को संभालना होता है।
यदि महिला कामकाजी है तो सुबह ऑफिस जाने से पहले घर के काम पर ड्यूटी लगाना फिर शाम को ऑफिस से आने के बाद फिर घर के काम की ड्यूटी लगाना, ये सब उसके कर्तव्य बना दिए गए हैं। यदि महिला ऐसा न कर पाए और अपने करियर पर ध्यान केंद्रित करे तो घर न सँभालने की हीन भावना भी उसी में भरी जाती है कि कैसी औरत है?
वहीं घर और ऑफिस के बीच में सामंजस्य बिठाते-बिठाते अगर वक़्त से पहले उसके चेहरे पर झुर्रियां हो जाएँ या वो बीमार रहने लगे तो भी बला उसी औरत की है कि वो अन्य महिलाओं की तरह सुंदर नहीं दिखती और चुस्त नहीं है। अब पतिदेव को उसे सबके सामने ले जाने में शर्म और झिझक भी महसूस होती है।
वैसे तो अपना समाज दहेज़ प्रथा के खिलाफ तत्पर खड़ा रहता है लेकिन जब बात अपने बेटे या बेटी की होती है तो माता-पिता को दहेज़ लेना भी होता है और देना भी होता है। माता-पिता विवाह के समय बेटियों को भर-भर के दहेज़ देते हैं कि कहीं पराये घर जा कर उन्हें ताने सुनने को न मिलें, कहीं समाज उन्हें कुछ न कहे। जबकि वे इस काम में ये भूल जाते हैं कि वे ऐसा करके सामने वाले पक्ष की माँगने कि हिम्मत बढ़ा रहे हैं और उन्हें यह समझा भी रहे हैं कि देखो उनकी देने की क्षमता भी कितनी अधिक है।
इस काम में न केवल पुरुष वर्ग सम्मिलित होता है बल्कि साथ ही स्त्री पक्ष भी सम्मिलित होता है। बल्कि अगर देखा जाए तो अधिकतर इस काम को बढ़ावा देने में स्त्री पक्ष का ही हाथ होता है। बेटी की माँ हो या बेटे की माँ दहेज़ के लेन-देन में सबसे अधिक हाथ इन्हीं दोनों का होता है।
अगर स्त्रीधन (हर वो उपहार जो विवाह से पहले या विवाह के समय या विवाह के बाद दुल्हन को वर पक्ष या वधु पक्ष की ओर से दिया गया हो, वह स्त्रीधन कहलता है) की बात की जाये तो कानून की नज़र में वैसे तो यह उस स्त्री की पूर्ण संपत्ति है जिसको यह दिया गया है परन्तु अगर समाज की बात की जाये तो हमारे समाज की नज़र में यह उसी स्त्री को छोड़ कर सबकी पूर्ण सम्पत्ति है। केवल घर की बहु अपने सामान के बारे में हिसाब नहीं रख सकती बाकी घर के सब लोग उस पर नज़र गड़ाए रख सकते हैं। वे मनमाने ढंग से उसकी उन चीज़ों का उपयोग और आदान-प्रदान भी कर सकते हैं।
स्त्रियों का दुर्भाग्य है कि उनके संपत्ति के अधिकार को सबसे ‘नीच अधिकार’ माना जाता है। इस अधिकार को मैं ‘नीच अधिकार’ का नाम इसीलिए दे रही हूँ क्योंकि इतिहास गवाह है जब-जब किसी बहन या बेटी ने अपने माता-पिता की संपत्ति में अपना अधिकार मांगा है वो नीच समझी गयी है। भारत के हर धर्म में स्त्रियों को उनेक माता-पिता की संपत्ति में अधिकार का प्रावधान है। मगर विपदा है कि यह अधिकार यदा-कदा ही दिया जाता है। यदि किसी स्त्री ने अपने अधिकार का मुतालबा (माँग) कर लिया है तो समझो कि घर में प्रलय आ गई है।
भाई बहन के खून के रिश्ते में संपत्ति में अधिकार के नाम पर दरार आ जाती है। मजबूरन समाज के समझाने पर अधिकतर घरों में बहनों-बेटियों को अपने इसी अधिकार का त्याग इन्हीं खून के रिश्तों को बचाने के लिए करना पड़ता है। और अगर कोई मामला कोर्ट तक चला जाए तो सदियों तक उस बहन का नाम कट्टर बहनों के नाम की लिस्ट में दर्ज़ हो जाता है जिसने भाई के रिश्ते को ज़मीन के टुकड़े पर एहमियत दी।
कोई भी उस पुरुष का नाम उस फेरिस्त में नहीं रखता क्योंकि सदियों से रीत चली आयी है कि उनकी मर्ज़ी वो अपनी बहन-बेटियों को कुछ दें या न दें। इस मुद्दे पर उनकी ओर से एक तर्क यह भी दिया जाता है कि हमने इनके विवाह में इतना खर्च कर दिया, बस अब और नहीं देना। जो देना था दे दिया।
अगर देखा जाए तो अधिकतर विवाहों में पैसा खर्च करने के पीछे भी इन्हीं की ‘नाक का सवाल’ होता है। अगर इतना खर्च नहीं किया तो लोग क्या कहेंगे? चार लोग क्या बातें बनाएंगे? हम समाज में क्या मुंह दिखाएंगे? फलां आदमी ने इतना खर्चा किया था अपनी बहन की शादी में अगर हम नहीं करेंगे तो सब हमारे बारे में बातें बनाएंगे। इसी प्रकार की फालतू सोच के कारण विवाह में पैसा उड़ाया जाता है जिसे बाद में उसी बहन के संपत्ति के अधिकार में से काट लिया जाता है।
इनके आलावा भी और कई अधिकार हैं जिनके झंडे सिर्फ ऊंचे किये जाते हैं लेकिन उनके मालिक को वो कभी दिए नहीं जाते। महिला अधिकारों के झंडे हर कोई बुलंद करना चाहता है लेकिन जब उनसे कहा जाए कि बुलंदी पर ले जाने से अच्छा है कि ज़मीन पर ही उसे उसके मालिक को सौंप दिया जाए तो ध्वज वाहक को आपत्ति होने लगती है।
मूल चित्र : Still from Hindi Drama Short Film Dwand/Pocket Films, YouTube
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