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अपराधी हूँ खुद की रख के मौन, सहारे हैं ये अपने यही सोच रहती मौन, मगर अब ये ख़ामोशी चीखती है, सवाल कर के पूछे आखिर मैं हूँ कौन?...
अपराधी हूँ खुद की रख के मौन, सहारे हैं ये अपने यही सोच रहती मौन, मगर अब ये ख़ामोशी चीखती है, सवाल कर के पूछे आखिर मैं हूँ कौन?…
अरे अरे! गुड़िया, अब नहीं, साँझ हुई है अब बाहर खेलना नहीं। यही रह कर पढ़ लो जो पढ़ना, दूर दूसरे शहर तुम्हें जाना नहीं और मैं रह जाती हूँ मौन!
क्या? क्यों? ऐसे नहीं, बिन चुनरी के रहना, खुल के हँसना नहीं। तोहमत लगा के लोग सोचो जरा, भूल के भी लड़कों से बोलना मिलना नहीं। और मैं रह जाती हूँ मौन!
श्शश! धीमे, जोर से बोलो नहीं, हर माह की बात है, ये यूँ खुल के कहते नहीं। ये ऐंठन, रक्तस्राव, सिरदर्द है स्त्री की निशानी, हर औरत सहती तुम भी सहो बात इस पर करना नहीं, और मैं रह जाती हूँ मौन!
हाँ या ना कभी पूछा नहीं, माँ बाप ने किया पसंद, तो तुम ना सोचना नहीं। चीत्कार के रह जाए भले अंतरात्मा, बिछ जाना बिस्तर पर, उसे मगर रोकना नहीं। और फिर मैं रह जाती हूँ मौन!
मौन! मौन! मौन! अपराधी हूँ खुद की रख के मौन, स्वयं को निर्बल लता समझती रही। सहारे हैं ये अपने यही सोच रहती मौन, मगर अब ये ख़ामोशी चीखती है, सवाल कर के पूछे आखिर मैं हूँ कौन?
लक्ष्मी, लक्ष्मी कह के स्वागत कर लेते हैं, सुरक्षित रहूँ मैं घर बाहर, कुछ ऐसा क्यों करते नहीं? लड़के को दे कर आज़ादी मुझे कैद कर लेते हैं। मर्यादा वो ना लाँघे ऐसे शिक्षित क्यों करते नहीं? सृष्टि रचती प्रकृति मुझमें, पनपे जीवन कोख में, रजस्वला है नैसर्गिक, मान उसे क्यों देते नहीं?
मैं मौन हूँ गर उसे स्वीकृति समझते हो, समझते क्यों नहीं आखिर “ना” है मेरा मौन! सवाल किए हैं आज फिर मैंने अब क्या कहोगे? ऊँगली उठाओगे चरित्र पर या रह जाओगे “मौन”?
मूल चित्र: Still from Khushi(Short Film), YouTube
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