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मेरी बहू मुझसे बात नहीं करती है…

काम वो करती, तारीफें सासु माँ ले जाती और तो और जब ऑफ़िस से धर्मेश आते तो हर काम में बहू के साथ साथ हो जाती, मानों उसकी मदद कर रहीं हों।

काम वो करती, तारीफें सासु माँ ले जाती और तो और जब ऑफ़िस से धर्मेश आते तो हर काम में बहू के साथ साथ हो जाती, मानों उसकी मदद कर रहीं हों।

सुनीति एक संस्कारी, पढ़ी-लिखी और समझदार लड़की थी। शादी के बाद नीरज के साथ विदा होते समय मांँ ने ससुराल में बसने के तौर तरीके सिखाना चाहा तो मांँ के गले में हाथ डालकर बोली, “मांँ आपने अपनी बेटी पंद्रह सोलह साल में नहीं ब्याही है। मैं जानती हूँ, नये घर में कैसे रहना है। आप बिल्कुल चिंता ना करें। आपको शिकायत का मौका नहीं दूंगी।

शादी के बाद ससुराल प्रवास बारह दिनों का ही रहा। फिर सुनीति को नीरज के साथ उसकी नौकरी वाले शहर निकलना था। दोनों छोटी ननदों ने उसका खूब मान किया। सास-ससुर भी बहुत अच्छे लगे सुनीति को। वैसे भी उसका मानना था कि किसी भी विवाद में एक तरफ वाला अगर हमेशा अपने आप को बड़ा मान बात को विस्तार ना दे, तो विवाद नहीं टिकता।

नीरज के सरकारी आवास के बगल में ही नीरज के सबसे अच्छे मित्र धर्मेश का भी घर था, उनकी शादी दो साल पहले हुई थी। छह महीने का एक बेटा था उनका। उसकी पत्नी दीप्ति से कुछ ही दिनों में सुनीति की खूब जमने लगी।

फिर दीप्ति सारी बातें सुनीति बताने लगी कि कैसे उसकी सास की उससे नहीं पटती। शुरुआत में जब आकर वो ससुराल में रही तभी से सासू मांँ ने उन्हें बहू कम अपना प्रतिद्वंद्वी ज्यादा समझा। काम वो करती, तारीफें सासु माँ ले जाती और तो और जब ऑफ़िस से धर्मेश आते तो हर काम में बहू के साथ साथ हो जाती, मानों उसकी मदद कर रहीं हों। फिर दिन भर थक जाने से बदन दर्द का बहाना कर कराहतीं।

नई नई शादी थी फिर भला धर्मेश बीबी की बातों पर भरोसा करते या उस मांँ की बातों पर जिनके साथ अब तक रहे थे। पर धीरे धीरे गृह-कलह बढ़ने लगा तो आपस में सलाह विमर्श कर यहांँ चले आए। माता पिता तो अभी भी आते जाते हैं पर दीप्ति अपनी सास से बात नहीं करती है।

सर्दियों के दिन थे। सुनीति और दीप्ति बच्चे को लेकर बाहर बातें करती हुई धूप के मजे ले रहीं थीं तभी एक रिक्शा आकर रूका और उससे दीप्ति के सास ससुर उतरे। धर्मेश जी नीरज के खास मित्र थे तो उस नाते सुनीति ने उन दोनों के पैर छुए। दोनों ने आशीर्वादों की झड़ी लगा दी। दीप्ति वहीं खड़ी रही।

मौके की नज़ाकत समझ कर सुनीति चाय लाने अंदर चली गई। चाय नाश्ता लेकर लौटी तो देखा दोनों पोते के साथ खेलने में मग्न थे। दीप्ति अंदर चली गई थी। ढेर सारे खिलौने, फल मिठाई सब लेकर आए थे, पर सब वहीं पड़ा था। दीप्ति अंदर फोन पर बात कर रही थी शायद धर्मेश जी से क्योंकि सुनीति ने देखा आधे घंटे में ही वो आ गए।

शाम को सुनीति बाहर निकली तो देखा दीप्ति मुहल्ले की अन्य महिलाओं के साथ बातें कर रही थी। सुनीति भी आकर खड़ी हुई। चर्चा का विषय थे दीप्ति के सास ससुर। सारी महिलाएं उनके आने और जाने के बारे में बात कर रहीं थी और मजाक बनाकर हंँस भी रही थीं।

सुनीति सदमे में थी तो क्या दीप्ति भाभी ने सबको अपने सास ससुर के संबंधों में बता रखा है? अभी तक तो सुनीति दीप्ति के सास ससुर को ही ग़लत समझ रही थी, पर वो कहते हैं ना दोनों पक्षों को सुने बगैर किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता।

खैर, कुछ दिन बाद सुनीति के भी सास ससुर और ननदें आई। आठ दिन कब बीत गए पता ही ना चला।  सबके निकलने के बाद सुनीति थोड़ी उदास सी बाहर बैठी थी तो दीप्ति भी बच्चे को लेकर आ कर  बैठ गई।

“अरे सुनीति मुँह लटका कर क्यों बैठी हो?”

“कुछ नहीं भाभी, बस घर खाली-खाली सा लग रहा है।”

“हांँ भई, अपनी अपनी सोच है। वैसे मुझे लगता है सारे ससुराल वाले एक से ही होते हैं। बस तुम रही नहीं हो ना ससुराल में कभी महीने दो महीने सबके साथ। वैसे भी नई नई शादी है, साथ रहने लगोगी, फिर धीरे धीरे सबकी परतें खुलेंगी। मैंने तो अभी तक के जीवन में ना अपनी बहनों के ना अपनी सहेलियों के किसी के भी सास ससुर को बहुत अच्छा तो नहीं देखा।” उनकी सास ससुर के प्रति असल दुर्भावना का कारण समझ में आ गया था सुनीति को, सो चुपचाप उनकी बातें सुन ली।

गर्मियाँ आ गई थी। सुनीति दोपहर के समय सारे काम निपटाकर फोन लेकर बैठी ही थी कि घंटी बजी। झांँका तो दीप्ति की सास खड़ी थीं। झट दरवाजा खोल, पैर छूकर अंदर बुलाया। पसीने से तर मिठाई और खिलौने का पैकेट पकड़े हुए परेशान सी वो आकर बैठ गयीं।

“भाभी कहीं निकलीं है क्या चाची?” मैंने पूछा।

“पता नहीं बेटी? कई बार घंटी बजाई पर दरवाजा नहीं खुला। इतनी धूप और गर्मी में बच्चे को लेकर बाहर तो गई न होगी तो मैंने सोचा तुम्हारे घर हो शायद”, वो बोलीं।

“कहीं जाने का तो बताया नहीं था भाभी ने, फोन करके पूछती हूंँ।”

सुनीति ने फोन उठाया तो चाची ने रोक दिया।

“मैंने धर्मेश को फोन कर दिया है बेटे। उसी ने कहा तुम्हारे घर बैठूंँ, एक दो घंटे में तो वो आ जाएगा, तुम्हें कोई दिक्कत?”

“कैसी बात करतीं हैं चाची, मैं भी तो समय काटने के लिए ही फोन लिए बैठी थी।”

सुन उनके चेहरे पर राहत के भाव आ गए।

“तुम्हारे चाचाजी कुछ काम से दो दिनों के लिए बाहर गए हैं। रह तो अकेले भी जाती मैं पर श्रवण का मोह खींच लाता है। वैसे भी चीजें बदलेंगी तो नहीं, इसलिए परिस्थिति के अनुरूप ढल जाना बेहतर है।”

“कोई नहीं चाची जी, थोड़ा बहुत उन्नीस बीस तो हर घर में होता है, आप चिंता ना करें। सब ठीक हो जाएगा।” सुनीति ने माहौल को हल्का करना चाहा।

“बेटा, मैं सफाई नहीं दे रही पर तीन भाईयों की इकलौती बहन थी। भाइयों से पहले कम उम्र में ब्याही गई। भाभियों के साथ भी ना रह पाई। औरत के नाम पर सिर्फ मांँ को देखा। और सबसे बड़ा सच बताऊंँ तो समाज में सास बहू संबंधों को लेकर इतनी भ्रांँतियां फैली हुई है, जो हमें अगले के बारे में अच्छा सोचने ही नहीं देती।

अगल बगल वालियों और परिवार वालों ने भी इतना कुछ कहा, सिखाया और मेरे कान भरे कि मैं भी पगली इकलौते बेटे की मांँ, डरी हुई कि मेरा बेटा मुझे ना छोड़ दें। जो सबने कहा और सिखाया करने लगी।

हालांँकि मुझे बाद में इसका अफसोस हुआ पर दीप्ति भी मेरी तरह सुनी सुनाई बातों पर भरोसा करने वाली निकली। यहांँ तक की मुझसे बात करना तक छोड़ दिया। पर मुझे छोड़ देने से उसकी जिंदगी चल सकती है, पर उसे, अपने बेटे और पोते को छोड़कर मैं भला कैसे जीऊंगी?” कहते-कहते चाची ने अपने आंचल के कोर से अपनी आंखों को पोंछा।

“चाची,आप इतना ना सोचें, धीरे-धीरे भाभी भी समझ जाएंगी कि आप उतनी गलत भी नहीं हैं जितना वो समझ बैठीं हैं।”

“तुम्हारे मुंह में घी शक्कर बेटे, मैंने तो उससे माफी भी मांगी पर वो तो अपना कलेजा कठोर किए बैठी है। पर उम्मीद पर दुनियां कायम है देखो, क्या होता है। जी नहीं मानता बच्चों से इतना करीब होकर भी हफ़्तों में भी ना मिल पाएं, इसलिए अच्छा बुरा सोचें बिना आ जाते हैं हम-दोनों।”

तभी बाहर भैया की गाड़ी का हार्न बजा, चाची विदा ले निकल गयीं और सुनीति को सोच में छोड़ गईं।

सचमुच, ये सास-बहू के रिश्ते पूर्वाग्रह से इतने ज्यादा ग्रसित होते हैं कि छोटी छोटी बातें भी बड़ी बन जाया करती हैं।

हर बहू अगर सास की बातों को तौलना बंद कर दें, उन्हें महान ना बनाएं, वो भी गलतियां कर सकती हैं, गलत हो सकती हैं ऐसी धारणा रखें और वहीं हर सास बहू को एक सुपरविमेन ना समझ,अपनी बेटी ना सही, एक सामान्य इंसान समझे तो शायद उनके रिश्ते स्वस्थ और सुंदर होंगे।

अगर ये भी ना हो तो सास और बहू में से कोई एक भी खुद को बड़ा मान अगले की गलतियों को नजरंदाज करना सीख जाएं तो भी हालात पटरी पर आ जाएं।

शुरुआती दौर में हर रिश्ते में दोनों को समझौता करना पड़ता है वरना रिश्ते बन ही नहीं पाते। जैसे देर से ही सही चाची समझौतावादी बन गई हैं, तो ऐसा लगता है कि उनके और भाभी के बीच का शीत पर्वत, निश्चित रूप से जल्द ही रिश्तों की गर्माहट पाकर पिघल जाएगा।

गर्माहट का ख्याल आते ही सुनीति को चाय की तलब हुई और वो उठकर किचन की तरफ चल दी।

दोस्तों, जीवन के कुछ रिश्ते हमारी इच्छाओं से नहीं नसीबों से बना करते हैं। तो जिस रिश्ते से हम भाग नहीं सकते, क्यों ना समझौता कर उन्हें एक नई शुरुआत दें। सामने वाला छोटा बन रहा तो हम ही बड़प्पन दिखाकर रिश्ते को टूटने से बचा लें।

आप क्या कहते हैं? आपके विचारों का इंतजार रहेगा।

मूल चित्र: Still from Short Film Sanskari Bahu, YouTube

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