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यह सुनते ही रुचि का शर्म के मारे बुरा हाल हो गया और भाइयों के चेहरे तन गए। भाभियों की आंखों में तिरस्कार और व्यंग्य का भाव आ गया।
फोन पर यह सुनते ही कि पापा को हार्टअटैक पड़ा है, रुचि अपने पति सौरभ और बेटे बंटी के साथ मायके के लिए निकल पड़ी। वहां पहुंच कर देखा कि पापा ईश्वर के पास जा चुके हैं, खुद भी रोती और बेहोश मां को संभालती रुचि बेहाल हो गई थी।
संस्कार हुआ और सभी रिश्तेदार अपने घरों को लौटने लगे। दोबारा अन्य रस्मों व तेरहवीं के लिए तो आना ही था। सौरभ भी रुचि व बंटी को वहीं छोड़कर लौट गए।
दु:ख के पहाड़ जैसे दिन, अपना दु:ख, मां का दु:ख और पापा की याद इन सब के कारण रुचि का तो बुरा हाल हो गया था। कितना भी दु:ख हो पर काम तो सब करने ही पड़ते हैं।
आखिरकार, तेरहवीं का दिन भी आ गया। एक बार फिर सभी रिश्तेदार आए सौरभ और रुचि के ससुराल वाले भी आए। सबसे छोटा भाई अजय अमेरिका से आया था, एक महीने की छुट्टी लेकर।
शायद उसने ही कहा होगा इसलिए चाचा जी कहने लगे, “बहुत दु:ख की बात है लेकिन दुनियादारी तो निभानी पड़ती है, इसलिए मेरे ख्याल से अभी पूरी प्रॉपर्टी का बंटवारा भी कर लेना चाहिए।”
रुचि की मां को तो वैसे ही कुछ समझ में नहीं आ रहा था पर जब चाचा जी ने कहा कि भाभी आपका हिस्सा भी लगेगा तब वह रोकर कहने लगीं, “मुझे हिस्सा नहीं चाहिए। मैं उसे लेकर क्या करूंगी? मैं तो अपने बच्चों के साथ ही रहना चाहती हूं।”
यह सुनते ही सौरभ बोले, “ठीक है तब तो चार हिस्से हो जाएंगे।”
रुचि के साथ-साथ सबने उनकी तरह प्रश्न भरी निगाहों से देखा। तब वह बोले, “रुचि का भी तो हिस्सा है, अब तो बेटियों को भी संपत्ति में हिस्सा मिलता है।”
यह सुनते ही रुचि का शर्म के मारे बुरा हाल हो गया और भाइयों के चेहरे तन गए। भाभियों की आंखों में तिरस्कार और व्यंग्य का भाव आ गया। मां तो कुछ समझ ही नहीं पाई।
रुचि दूसरे कमरे में चली गई और वही सौरभ को बुलवा लिया। वह पूछने लगी, “आपने यह कैसे कह दिया? मुझे तो पापा की संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं चाहिए।”
सौरभ कुछ गुस्से के साथ बोले, “तुम्हें चाहिए हो या ना चाहिए, मैं नहीं छोड़ सकता।”
सौरभ के घर का माहौल ऐसा था जिस में महिलाओं की कोई बात नहीं सुनी जाती थी। रुचि द्वारा दोबारा मना करने पर रुचि को सौरभ ने डांट कर चुप करा दिया। वह बोले, “तुम्हें मेरे घर में रहना है या नहीं? सोच लो फिर जवाब दो। बिना हिस्सा लिए तो मैं तुम्हें अपने साथ नहीं ले जाऊंगा।”
परेशान हो रुचि सबके बीच में आकर बैठ गई लेकिन अब उसने देखा कि भाभी लोग ठीक से बात नहीं कर रही और भाई भी गुस्से में भरे घूम रहे हैं। वैसे तो सौरभ रुचि को भी ज्यादा दिन के लिए मायके नहीं भेजते थे, लेकिन संपत्ति के बंटवारे के नाम पर वह खुद भी तब तक वहां से नहीं हटे जब तक बंटवारा नहीं हो गया।
रुचि में पति का विरोध करने की हिम्मत नहीं थी। आत्म निर्भर भी नहीं थी और उसमें पति और उनका घर छोड़ने की हिम्मत भी नहीं थी। अतः जैसा पति ने कहा करना पड़ा। पापा की संपत्ति के नाम पर एक दो मंजिला मकान था जिसके चार हिस्से हो गए।
विदेश में रहने वाले भाई के साथ-साथ सौरभ ने भी रुचि का हिस्सा किराए पर चढ़ा दिया। बहुत भारी मन से रुचि मायके से ससुराल लौटी। किसी ने जाती हुई रूचि से ठीक से बात भी नहीं की।
जब से रुचि वहां से लौट कर आई तब से उसका मन ससुराल में नहीं लग रहा था। वैसे भी ससुराल में उस पर इतने बंधन थे कि वह खुलकर सांस नहीं ले पाती थी और अब मन में यह कांटा भी चुभ गया कि पापा ने उसका विवाह करने में अपना पीएफ लगभग पूरा खर्च कर दिया, बंटी के जन्म के समय वह मायके में रही जहां उसे भरपूर देखभाल और लाड प्यार मिला।
पापा ने विदाई के समय उसे सोने की चेन, बंटी को भी चांदी के बर्तन, कपड़े झूला आदि और पूरे घर के लिए कपड़े, मिठाई भेजे। अस्पताल का सारा खर्च भी पापा ने ही उठाया। तब तो ससुराल वालों ने जरा भी स्वाभिमान नहीं दिखाया और सब कुछ लेते चले गए। संपत्ति में हिस्सा लेना था तो इतना दहेज क्यों लिया?
भाइयों के लिए पीएफ का हिस्सा तो छोड़ते। मन ही मन यह सब सोचती थी पर ससुराल के कड़े अनुशासन की वजह से कह कुछ नहीं पाती थी। पहले मायके का बल था पर अब भाईयों के मुंह मोड़ लेने से खुद को बहुत अकेला पाती थी।
ऐसे ही समय बीतता गया और रुचि एक बार फिर से प्रेगनेंट हो गई। शरीर और मन कमजोर था इसलिए बहुत देखभाल की जरूरत थी पर मायके से संबंध पहले जैसा नहीं रहा था। भाइयों के अलग-अलग घर हो गए, पापा के ना रहने से मां का भी रोब नहीं रहा और फिर रुचि का तो अधिकार भी नहीं था कि हिस्सा लेने के बाद वहां सेवा कराने चली जाए।
उसकी सास ने उससे कहा भी, “अपनी मां के पास चली जाओ तो तुम्हें आराम मिल जाएगा।”
रुचि ने उनसे पूछा, “मां का घर कहां है? वह तो खुद भाइयों के घर में रहती है।”
वह जानती थी अपना हिस्सा लेने के बाद उसका अधिकार मायके जाकर सेवा कराने का नहीं है इसलिए ससुराल में ही रही। बहुत परेशानी भी हुई, देखभाल की कमी रही, बहुत कमजोर हो गई। इस बार उसने बेटी को जन्म दिया। मायके में बता दिया पर फोन पर ही सब ने बधाई दे दी कोई कुछ लेकर नहीं आया। सास का मुंह बेटी देखकर बन गया।
तभी एक दिन मां का फोन आया उन्होंने बताया कि एक भाभी अपने भाई की शादी में जा रही है और दूसरी बाहर घूमने जा रही है। वह घर में अकेली रहेंगी।
रुचि ने सौरभ से कहा, “जाकर के मां को ले आइए क्योंकि वह वहां अकेली हैं।”
सौरभ बोले, “यहां उन्हें कैसे ला सकते हैं? अपने परिवार के ही इतने लोग हैं कि घर में जगह नहीं है और फिर मेरी मां को यह पसंद नहीं आएगा।”
रूचि बोली, “ठीक है मुझे भेज दीजिए वहां।”
इस बार भी सौरभ का यही जवाब था, “तुम चली जाओगी तो यहां काम कौन करेगा?”
तिलमिला के रुचि के मुंह से निकल गया, “प्रॉपर्टी लेने का तो अधिकार है मेरा पर सेवा करने का नहीं है?”
सौरभ बोले, “तुम्हारे भाइयों को भी तो प्रॉपर्टी मिली है फिर वे कैसे मां को अकेला छोड़ कर चले गए?”
रुचि कहने लगी, “मेरा उनसे कोई मुकाबला नहीं है। जैसे आपको अपनी मां की फिक्र है वैसे ही मुझे भी अपनी मां की फिक्र है।”
इस बार कड़ाई के साथ सौरभ बोले, “मुझसे बहस मत करो मैंने जो कह दिया बस कह दिया। तुम कहीं नहीं जाओगी।”
रुचि की आंखों में आंसू आ गए। वह अपनी मां को फोन मिला कर बात करने लगी।
उसकी ससुराल के हाल सुनकर उसकी मां बोली, “बिटिया अब मुझे लगता है कि पहले ही तुम्हारा हिस्सा बेचकर तुम्हें ऊंची शिक्षा दिला दी होती तो आज यह हाल ना होता। ना तो तुम ससुराल में दबकर रहती और ना ही तुम्हारी प्रॉपर्टी पर तुम्हारे ससुराल वालों का हक होता।”
रुचि ने मां को बता दिया था कि जो किराया आता है वह सौरभ अपनी मां को दे देता है। भाइयों से भी हिस्सा छिन गया और रुचि को भी नहीं मिल रहा। मां रुचि के लिए दुखी थी पर कुछ कर नहीं सकती थी।
कुछ समय और बीत गया तब सौरभ कहने लगे, “दूसरे शहर में प्रॉपर्टी की देखभाल करना मुश्किल है इसलिए मायके वाले तुम्हारे मकान का हिस्सा बेचकर मैं फिक्स्ड डिपॉजिट करवाना चाहता हूं। मकान बेचने के पेपर बनवा लिए हैं। तुम मेरे साथ चल कर रजिस्ट्री पर साइन कर देना।”
रुचि के मन में गुस्से की आग लग गई। गुस्से को दबाकर झूठी मुस्कान के साथ बोली, “उस मकान को हम कैसे बेच सकते हैं? अगर यहां से परेशान होकर मैंने कभी अकेले रहने का निर्णय कर लिया तब मैं कहां रहूंगी? जब हमारी बेटी की शादी हो जाएगी तब दामाद हमारा मकान बंटवाना चाहेगा, उस समय बंटी के पास शामिलात के इस मकान में बहुत कम हिस्सा रह जाएगा। उस समय मेरे मायके वाला मकान तो होगा वही मकान बंटी को दे देंगे।”
अब सौरभ को धक्का लगने की बारी थी। रुचि अकेले रहने का निर्णय ले सकती है और जो काम खुद किया वही काम दामाद करेगा यह सुनकर धक्का लगने से वह धम्म से कुर्सी पर बैठ गया। रुचि के चेहरे पर विजयी मुस्कान थी।
आज वह कह सकती थी सौ सुनार की एक लोहार की।
विशेष
आज महिलाओं को भी पिता की संपत्ति में हिस्सा मिल रहा है किंतु पिता को बेटी को इतना काबिल बनाना चाहिए कि वह अपनी संपत्ति की रक्षा कर सकें। सरकार को ऐसे नियम बनाने चाहिए कि बेटी जरूरत पड़ने पर माता-पिता की सेवा कर सके करें। ऐसा ना हो कि दामाद पत्नी की संपत्ति ले कर मनमाना उपयोग करे क्योंकि उस महिला में पति का सामना करने की योग्यता और साहस नहीं हो। इस कानून का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।
मूल चित्र : Still from Short Film Sanskari Bahu/JKChopra Films, YouTube
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