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हम सबको मिलकर इस महामारी के खिलाफ ज़ग लड़नी है। हमारा समाज चुपचाप औरतों के खिलाफ हिंसा को बर्दाश्त नहीं कर सकता। उसे एक्शन लेना पड़ेगा।
हमारी दुनिया अभी एक महामारी से लड़ रही है। पर एक महामारी और भी जिससे हम सदियों से ग्रसित है। जिसने हमारे समाज को अंदर से तोड़ कर रखा है। इस महामारी का नाम है, ‘घरेलू हिंसा’, जिससे हमारे समाज को एक बेहद लंबी लड़ाई लड़नी है। एकदम अब तो युद्धस्तर पर हमें खत्म करना ही होगी, घरेलू हिंसा।
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (डब्लूएचओ) का कहना है कि दुनिया भर में हर 3 में से 1 महिला घरेलू हिंसा की शिकार होती है। कितनी बुरी और घटिया बात है यह हमारे सभ्य समाज की। हम खुद को आधुनिक सभ्यता कहते हैं, वहीं दूसरी ओर हमारे समाज में औरतों के साथ घर पर ही हिंसा होती है।
आखिर हम किस सदी में जी रहे हैं। और कब तक और किसका इंतजार कर रहे हैं। कब हम जाकर ‘घरेलू हिंसा’ को जड़ से खत्म कर पाएंगे।
भारत में साल 1983 से भारतीय दंड संहिता में 498 ए के तहत घरेलू हिंसा की पहचान की गई थी। भारत का अपना संविधान के लागू होने 33 साल बाद। क्या उससे पहले घरेलू हिंसा नहीं होती थी जो महज पहचानने के लिए 33 साल लग गए?
फिर भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। औरतों की स्थिति जस की तस रही। साल 2005 में जाकर जब भारतीय संसद ने घरेलू हिंसा से सुरक्षा कानून पारित किया। तब जाकर असल काम शुरू हुआ।
पहली बार इस कानून में घरेलू हिंसा की परिभाषा दी गई। साथ ही इसमें बच्चों और बुजुर्गों के खिलाफ हिंसा को भी घरेलू हिंसा के तहत लाया गया।
‘घरेलू हिंसा से सुरक्षा के कानून’ के तहत घरेलू हिंसा सिर्फ शादी के बाद मारपीट ही नहीं होती। बल्कि, चार तरह की घरेलू हिंसा होती है:
पहली है शारीरिक हिंसा। किसी भी महिला को किसी प्रकार से शारीरिक पीड़ा देना जैसे मारपीट करना, जानबूझकर धकेलना, लात-घूसा मारना, किसी वस्तु से मारना या अन्य किसी तरह से शारीरिक चोट पहुंचाना शारीरिक हिंसा के तहत आता है।
जैसे आपने देखा होगा अपने या आसपास के घरों में जब पति अपनी पत्नी को थप्पड़ मारता है। या किसी और तरह से उसके साथ मारपीट करता है। वैसी हिंसा शारीरिक हिंसा में आती है। जो साफ आप अपनी आंखों से देख रहे हैं।
कई बार ये मार इतनी गहरी होती है कि छुपाए नहीं छुपती। औरतों से पूछो तो कहती हैं। सीढ़ियों से गिर गई थी। कई दफे तो आंखों को काफी चोट आ जाती है। कई औरतों के हड्डियां भी टूट जाती है। आप नेशनल हेल्थ सर्वे की 2016 की रिपोर्ट देखेंगे तो पाएंगे। इतने प्रतिशत की आंख चली गई। कितनों की हड्डि डिसलोकेट हो गई।
किसी महिला को अश्लील तस्वीरों को देखने के लिए विवश करना, उसके साथ सेक्स करना करने के लिए जबदस्ती करना या आपकी इच्छा के विरुद्ध गले लगना, चूमना या अन्य सेक्सुअल एक्टिविटी करना इसके अंतर्गत आता है।
याने एक पति-पत्नी के रिश्ते को देखे तो पति पत्नी की मर्जी के बिना उसे न अश्लील फिल्म दिखा सकता है। न सेक्स करने के लिए जबरदस्ती कर सकता है।
ये हिंसा आंखों से दिखाई नहीं देती। किसी महिला या लड़की को किसी भी वजह से बोलकर अपमानित करना, उसके चरित्र पर दोष लगाना, उसकी मर्जी के खिलाफ शादी करने के लिए मजबूर करना, आत्महत्या के लिए धमकी देना इसके तहत आते हैं।
जैसे: ससुराल वाले बहु को उसके घर वालों के बारे में बोल बोलकर ताने देते हैं तो वो मौखिक हिंसा हुई। अगर, पत्नी किसी पर पुरुष से बात कर रही है जो उसका दोस्त हो कलिग हो या जो कोई भी हो, उसे लेकर उसके चरित्र पर दोष मरणा मौखिक हिंसा हुई।
किसी भी महिला को कोई भी आर्थिक काम करने से रोकना, उस पर आर्थिक रूप से बंदिशें लगाना, उसके कमाए पैसों को उसकी मर्जी के बगैर इस्तेमाल करना, बच्चों की पढ़ाई, खाना या कपड़ा आदि के लिए जानबूझकर पैसे न देना इसके अंतर्गत शामिल हैं।
जैसे हम देखते हैं कि औरत के पति या ससुराल वाले उसे आर्थिक काम करने से रोकते हैं। उसे घर की दहलीज में ही रखना चाहते हैं। पैसों के लिए मौहताज बनाते हैं। या कोई पति शराबी है और वो सारा पैसा शराब में खर्च करता है बजाय अपने बच्चों की पढ़ाई और खाने को छोड़कर तो वो भी घरेलू हिंसा होती है।
कमला भसीन एक नारीवादी एक्टिविस्ट है, जो सालों से पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई को जारी रखा है। उनका कहना है कि यह सब जो घरेलू हिंसा हो रही है, इसका कारण पितृसत्तात्मक सोच है।
पितृसत्तात्मक सोच जो एक पुरुष को मारने की हिम्मत देती है, वहीं औरत को भी यही सोच चुप रखती है, दबा कर रखती है, इसीलिए औरतें घरेलू हिंसा सहती चली जाती है।
वे कहती हैं कि घरेलू हिंसा की लड़ाई पुरुषों के खिलाफ नहीं है। बल्कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था है। पुरुष असंवेदनशील नहीं है, अगर ऐसा होता तो महात्मा गांधी और बुध्द जैसे शांति और करुणामय पुरुष भी नहीं होते। यह पितृसत्तात्मक सोच है जिसने पुरुषों को असंवेदनशील बना दिया है।
इसका हल है नारीवाद। नारीवाद ही पितृसत्तात्मक व्यवस्था को खत्म करने की काठ है। पुरुष अगर संवेदनशील होंगे तो हिंसा नहीं होगी। जब इस समाज से पितृसत्तात्मक सोच चली जाएगी घरेलू हिंसा भी खत्म हो जाएगी।
दूसरा हमें आर्थिक रूप से महिलाओं को स्वालंबी बनाना होगा। जो हम बेटी को दहेज देकर विदा कर देते हैं, उसे खत्म करना होगा। इसकी जगह जैसे बेटे को पिता की संपत्ति में हिस्सा मिलता है वैसे ही बेटी को भी संपत्ति में हिस्सा मिले। उसे भी आर्थिक रूप से स्वतंत्रता मिले।
अक्सर महिलाएं घरेलू हिंसा सहती चली जाती है क्योंकि वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं होती। वे अपने और अपने बच्चों को आर्थिक रूप से ठीक-ठाक रखने के लिए उस रिश्ते में बनी रहती है।
हमें महिलाओं को आर्थिक रूप से काम करने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है। जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था औरत को बाहर काम करने से रोकती है उसे खत्म करना होगा।
लैंगिक भेदभाव यह भी एक कारण है घरेलू हिंसा का पुरुष खुद को ब्रेडविनर समझते हैं। वे सोचते हैं कि हम पैसे कमाते हैं तो हम ताकतवर हैं। और हमें अपनी औरत को मारने का हक है।
हमें यह बदलना पड़ेगा। बताना पड़ेगा कि पुरुष केवल पैसे कमाते हैं, उस पैसे से रोटी औरत बनाती है। मकान को घर औरत बनाती है। एक औरत दिन-रात लगी रहती है तक उसका मर्द अगले दिन ऑफिस जा सकता है।
रिश्तों में बराबरी लाने की आवश्यकता है। औरत को कम नहीं बराबर समझना चाहिए। इससे ही घरेलू हिंसा खत्म होने की राह खुलेगी।
साथ ही पुलिस व्यवस्था को दुरुस्त करना पड़ेगा। सिर्फ एक घरेलू हिंसा से सुरक्षा कानून बनाने से कुछ नहीं होगा। अगर होता तो अबतक घरेलू हिंसा खत्म हो चुकी होती। उसे जमीन पर लाना होगा।
एक औरत के लिए एफआईआर दर्ज कराना अब भी मुश्किल है उसे आसान करना होगा। उसे सुरक्षा देनी पड़ेगी। पुलिस में संवेदनशीलता लानी पड़ेगी। महिला पुलिसकर्मी की भर्ती को भी बढ़ाना होगा। पुलिस तंत्र में जो पितृसत्तात्मक समाज है उसे भी खत्म करना होगा। तब जाकर हम घरेलू हिंसा के खिलाफ लड़ाई लड़ पाएंगे।
हम सबको मिलकर इस महामारी के खिलाफ ज़ग लड़नी है। हमारा समाज चुपचाप औरतों के खिलाफ हिंसा को बर्दाश्त नहीं कर सकता। उसे एक्शन लेना पड़ेगा। पितृसत्तात्मक समाज को खत्म करके नारीवाद सोच को लाना होगा।
मूल चित्र: Still from HavasWWInd Via Youtube
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