कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

क्या इस रात की कभी सुबह नहीं होगी?

ऐसी कितनी सारी शांतम्मा उन बेनाम गलियों में आज, अभी भी किसी की मार, किसी की लात खाके भोगी जा रही होंगी। उनके से एक आज चल बसी...  

ऐसी कितनी सारी शांतम्मा उन बेनाम गलियों में आज, अभी भी किसी की मार, किसी की लात खाके भोगी जा रही होंगी। उनके से एक आज चल बसी…  

कमाठीपुरा के गल्ली नंबर १३ की दस बट्टा दस की वो अंधियारी खोली आज अगणित सिसकियों से भर उठी थी। शांतम्मा आज चल बसी थी। कमाठीपुरा की गल्ली नंबर १३ का कोठा शांतम्मा संभालती थी। आज उसके हाथ के नीचे जितने भी औरतें रो रही थी मानो उनकी सगी माँ चल बसी हो। वो सभी औरतें आखिर ऐसे औरत के लिए क्यों रो रही थीं?

जिसने उनसे जिस्मफरोशी जैसे काम करवाए। ये औरतें उस जहां की हैं जहाँ जाने पर उन्हें संभालने वाला कोई नहीं होता। जहाँ रोज दो वक़्त की रोटी पाने के लिए, घर वालों के पोषण के लिए, किसी को जबरदस्ती, तो कोई अपने मन से ही अपने आप को सजाकर बेचती है। कभी कोई उन्हें बेचता है। वो जगह जो शायद नर्क से भी बदतर है। शांतम्मा भी उसी नर्क का हिस्सा थी।

शांतम्मा सभी लड़कियों को अपनी बेटी के जैसे प्यार, दुलार करती। बीमार पड़ने पर माँ की तरह देखभाल भी। आज वही शांतम्मा इस दुनिया से चल बसी। अब उस कोठे पे कोई और हक जतायेगा, पर क्या वो शांतम्मा जैसी ममता से भरी होगी यह कोई नहीं जानता। जिन्हें दुनिया ने सिर्फ एक भोग वस्तु का विशेषण देकर पराया कर दिया था उन्हें शांतम्मा ने एक प्यार और ममता की आस दी थी।

क्या वापस वो आस, वो प्यार, दुलार मिलेगा यही सोचके शायद वो सारी औरतें शोक-विलाप कर रही थीं। पर ऐसी कितनी सारी शांतम्मा उन बेनाम गलियों मैं आज, अभी भी किसी की मार, किसी की लात खाके भोगी जा रही होंगी।

औरत का यह भी एक रूप है जो हमारा समाज नकारता है। जबकि समाज के ही किसी एक ने उसे वहाँ धकेला होता है। जो औरत माँ, बहन, सास, बहु, पत्नी, सखी, सहकर्मी के रूप मैं पूजी और सराही जाती है वही औरत के इस रूप को सिर्फ घृणा मिलती है।

क्यों? क्योंकि वो गणिका है? समाज मैं उसका कोई अस्तित्व नहीं है? समाज आज भी गणिकाओं को कोड के रूप मैं संबोधित करता है।

विश्व के हर कोने में इन लोगों की अपनी एक दुनिया है जो समाज के किसी भी चौखट मैं नहीं आती। क्या वो इंसान नहीं है, क्या उन्हें जीने का हक़ नहीं?

इस विषय मैं कभी ज्यादा लिखा नहीं जाता, बोला नहीं जाता। लोगों के हवस की शिकार बनी इस औरतों के व्यापर का इतना बड़ा लेखा जोखा है और वो भी इतने व्यापक रूप मैं है कि उसे खदेड़ने के बारे सोचेंगे तो भी शुरुआत कहाँ से से करें यह प्रश्न खड़ा हो जाएगा।

हम इन लोगों को लेके इतने उदासीन क्यों है?

मुझे दुःख होता है यह सोच कर कि हम इन लोगों को लेके इतने उदासीन क्यों है? आज भी इस पेशे मैं आनेवाली महिलाएं अपनी ढलती उम्र में या तो बिना वारिस के मरी पायी जाती हैं, किसी रोग का शिकार हो जाती हैं या गायब हो जाती हैं।  लेकिन इन्हें ढूढ़ने वाला, इनके बारे में सोचने वाला कोई नहीं होता।

सरकार भी नाम मात्र योजनाएँ बनाकर उन्हें कागज पर रख देती है, पर कभी गंभीरता से इस बारे मैं सोचने और उनका पुनर्वसन करने मैं किसी को रूचि है? किसी भी नेता ने, पार्टी ने अपने वचननामे  में इस विषय के बारे मैं कोई टिप्पणी की है?

अगर यह समाज का कीचड़ है तो उसे साफ करने का दायित्व क्या समाज का नहीं है? फैलाया तो इसे हमने ही है। क्या उन्हें सम्मान से जीने का, मरने का अधिकार नहीं है? रस्ते पर कोई जानवर अगर आहत रूप में पाया जाये तो हम उसकी मदद करते हैं। यहाँ एक हमारे जैसे ही हाड़ मास का जीव रोज आहत हो रहा है, उसे दिल, दिमाग, शरीर और मन से से तोड़ा जा रहा है पर हमें कोई फर्क नहीं पड़ता?

जब यह विषय आता है तब हम सब गांधीजी के तीन बंदर हो जाते हैं

जब यह विषय आता है तब हम सब गांधीजी के तीन बंदर हो जाते हैं। एक आम इंसान फिर चाहे वो स्त्री हो या पुरुष वो क्या सोचते है इनके बारे मैं? किसी भी घर में इनके बारे में बोलना भी किसी गुनाह से कम नहीं, सोचना तो अलग बात। किसी भी स्त्री की आलोचना करनी हो, तो उसे इन औरतों का उदाहरण दे कर अपमानित किया जाता है। आखिर क्योँ? अगर यह दिखी भी तो हम मुँह फेर लेते हैं, उन्हें तुच्छ नजरों से देखते हैं। सोचिये, यह सब अनुभव करके उन्हें क्या महसूस होता होगा?

जिन्दा तो हैं पर लाश की तरह

जब हद से ज्यादा अत्याचार सहन करें, तो मन और शरीर तो ऐसे भी कठोर हो जाता है।  फिर उन्हें कोई भी आलोचना, गाली, मार महसूस नहीं होती। यह औरतें भी कुछ इसी तरह हो जाती हैं।  जिन्दा तो हैं पर लाश की तरह।

ऊपर से कितनी भी शांत, निर्दयी, कठोर, होती होगी पर अंदर से उनकी रूह चीखती होगी, रोती होगी। ऊपर से हम सिर्फ उन्हें ही दोष देते हैं। पर उन्हें ऐसे बनाने वाले इस व्यवस्था के बारे में कोई सवाल क्यों नहीं पूछता?

इस पुरुषप्रधान समाज में प्राचीन काल से नगरवधू से लेके कोठे तक उन्हें खड़ा आखिर किसने किया? इस बारे मैं सोचा है?

हम कुछ ज्यादा नहीं कर सकते उनके लिए, पर उनके लिए सुहृदय भावना तो रख सकते हैं? हम उन्हें देखने का नजरिया तो बदल सकते हैं?

कभी कभी सोचती हूँ , क्या इस द्रौपदी की रक्षा करने के लिए कोई कृष्ण नहीं बनेगा?

क्या यह अपने ही घर वालों के जरिये इसी तरह दाँव पे लगायी जायेंगी?

रोज कोई दुर्योधन और दुशाशन इनका शोषण करेगा?

और यह समाज, हम यूँ ही धृतराष्ट्र और भीष्म की तरह मौन रहेंगे?

क्या इस रात की कभी सुबह नहीं होगी?

मूल चित्र : Still from Hindi Movie Lakshmi, YouTube

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

7 Posts | 11,503 Views
All Categories