कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
अपने अब तक के सफर में तमाम तरह के विवादों के साथ जिस तरह अभिनेत्री रेखा ने जीवन जीया है, वह समाज के सामने आईने रखने जैसा कहा जा सकता है...
अपने अब तक के सफर में तमाम तरह के विवादों के साथ जिस तरह अभिनेत्री रेखा ने जीवन को जीया है, वह समाज के सामने आईने रखने जैसा कहा जा सकता है…
एनिग्मैटिक आइकॉन के नाम से अपने चाहने वालों के बीच पहचानी जाने वाली भानुरेखा गणेशन, जिसे पूरी दुनिया रेखा के नाम से जानती है, के अब तक का सफर को बेमिसाल कहा जाए, तो अतिशोक्ति नहीं होनी चाहिए।
अपने अब तक के सफर में तमाम तरह के विवादों के साथ जिस तरह उन्होंने जीवन को जीया है, वह समाज के सामने आईने रखने जैसा कहा जा सकता है, जो समाज के समक्ष यह सवाल पूछ रहा है कि पुरुषों के बिना एक स्वतंत्र महिला का अस्तित्व तुमको क्यों स्वीकार्य नहीं है?
तमाम विवादों से लड़ते-भिड़ते हुए आज जिस सौम्यता, अल्हड़ता और बिदांसपन के साथ अपने चाहने वालों के बीच हैं, वह पुरुषवादी समाज के ऊपर थप्पड़ ही जड़ता है और कुछ नहीं।
10 अक्टूबर 1954 को कलाकार परिवार के घर जन्मी भानुरेखा गणेशन।
विरासत में पालने में झूलते समय जन्मघुट्टी पीते हुए, अभिनय कला की किन-किन बारीक बातों को सीख रही थी, इसकी कहीं कोई जानकारी नहीं मिलती है।
वे माता पिता के घर-संसार के आर्थिक समस्या के समाधान के ख्याल से मात्र 12 साल के उम्र में पहली बार तेलगू फिल्म “रंगुला रत्नम” में बाल कलाकार के रूप में रुपहले पर्दे पर दिखीं, जिसे आज कल के शब्दों में डेब्यू कहा जा सकता है।
उसके बाद “आपरेशन जैकपॉट” और “नम्मी सीआईडी999” में भी वो नज़र आई जो कमाई के लिहाज़ से कामयाब मानी जा सकती है।
ज़ाहिर है कि स्कूल-कालेज जाने का मौका भानुरेखा गणेशन के जीवन में कभी आ ही नहीं सका। चर्च पार्क कांन्वेट, चैन्नई उनके लिए अक्षरज्ञान का स्कूल भर कहा जा सकता है, जहां उनके बचपन के कुछ खूबसूरत पल कैद हों।
पांच-छह बहनों और एक भाई के भरे-पूरे घर के जरूरतों ने उन्हें हिंदी फिल्मों की तरफ कूच करने के लिए मजबूर किया, जहां पहली फिल्म का ही अनुभव तोड़ने वाला रहा। यह भी संयोग है कि वह फिल्म रेखा की पहली हिंदी फिल्म डेब्यू नहीं बनी।
सत्तर के दशक के शुरुआत में पहली हिंदी फिल्म मिली पर अभिनेता बिस्वजीत के साथ एक किसींग सीन के विवाद के कारण सेसरशिप के पेचों में फंसकर दस साल बाद रिलीज हुई वह भी नए नाम “दो शिकारी” साथ।
अपनी बायोग्राफी रेखा: द अनटोल्ट स्टोरी में बताया है कि वह सेक्सुअल-एब्यूज था, जिसको उस दौर में सही तरीके समझने की कोशिश ही नहीं हुई। शायद इस कारण यह था कि उस दौर के फिल्मों में ‘सब चलता है’ के वाक्य में महिला अस्त्मिता दब जाती थी या दबाई जाती थी।
जाहिर है हिंदी फिल्म के शुरुआती सफर में उनको एक साधारण अभिनेत्री ही समझा गया और मात्र नाचने वाली कहकर आलोचना भी की गई।
बहरहाल, तब तक भानुरेखा गणेशन, रेखा बनकर “सावन भादो” में लीड अभिनेत्री हिंदी फिल्म में अपना डेब्यू कर चुकी थी और यह भी समझ चुकी थीं कि कला का मतलब बाह्य और आंतरिक सौन्दर्य को व्यक्त करना है, यह अभिव्यक्ति का साधन मात्र है। इस मंच पर अगर आप सफल है तो कला के दुनिया में आपके होने के मायने हैं, दर्शकों के दिल में राज करते हुए, यह नहीं है तो कुछ भी नहीं है।
अभिनय से जुड़ा हर कलाकार चाहता है कि दो-तीन घंटे के फिल्म के कहानी में उसका अभिनय का जो पीक प्वाइंट है, जहां उसने अपने अभिनय का सवश्रेष्ठ पल को जीने का शिद्दत से प्रयास किया, उसको दर्शक पहचानें और उसके अभिनय को सराहें।
हिंदी फिल्मों में रेखा उन चंद गिनी-चुनी अभिनेत्रियों में से हैं जिनके अभिनय का पीक-प्वाइंट को दर्शकों ने पहचाना। यही कारण है कि अपने अभिनय में रेखा जिन कमियों को पाटने का प्रयास करती हैं, वह दर्शकों को पता नहीं चल पाती हैं।
यह बात बहुत कम लोग जानते है कि जिस दौर में वे हिंदी फिल्म जगत में पैर जमा रही थीं, वे अपने रंग को लेकर वह एहसास-ए-कमतरी से भी जूझ रही थीं, जिसको रेखा ने अपने बिंदासपन और सेक्सी-सेंसुअल इमेज से पाट रखा था।
बाद में उन्होंने उनके इस काम्प्लेक्स को ऋषिकेश मुखर्जी और अन्य कई डिरेक्टरों ने खूबसूरत, इजाज़त, उमराव जान, सिलसिला, खून भरी मांग, आस्था जैसी फिल्मों में उनके अभिनय से पाट दिया।
इन फिल्मों ने एक के बाद एक उनकी अदाकारी में बड़ी अदा से ठहर-ठहर के बोलने, डायलांग खत्म करते हुए झटका देने के उनके अंदाज को अदाकारी के मुकाम के तरह स्थापित किया, जिसको दर्शकों ने भी सराहा।
बदलती हुई हिंदी फिल्म जगत में मैंडम एक्स का किरदार हो या कोई मिल गया जैसी फिल्म में चरित्र अभिनेत्री का किरदार, रेखा ने अपनी मौजूदगी का लोहा अपने अभिनय से मनवाया।
उनकी पहली हिंदी फिल्म सावन-भादो को देखकर फिल्मी जगत में उनके कामयाबी के टीले जो कई फिल्म फेयर, राष्ट्रीय पुरस्कार, पद्म श्री से लेकर स्टाइलिश दीवा और राज्यसभा के सदस्य होने तक पहुंच जाते हैं, आश्चर्य से भर देते हैं।
आप बरबस यह सवाल पूछने को मजबूर हो जाते हैं कि विवादों से भरा-पूरा मिला जीवन, उनको अपने अभिनय ही नहीं जीवन में भी संतुलित कैसे रहने दिया? उनके दौर के ही नहीं, उनके बाद के दौर के कई अभिनेताओं के साथ उनकी चटपटी-मसालेदार खबरें बनाने में मीडिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी।
उमराव जान के कामयाबी के बाद उनका इंटरव्यू करने के लिए उनको लगातार फोन करने वाले पत्रकार दिनेश रहेजा बताते हैं कि उनके घर फोन करने पर बार-बार एक छुटकी मिलती थी जो अवाज बदल-बदल कर कहती, “मेमसाब घर पर नहीं हैं!”
दिनेश रहेजा के अनुसार ये छुटकी रेखाजी ही थीं। वो इंटरव्यू से बचने के लिए ऐसा करती थीं। उनकी यही शोख और नटखटपन उनको जीवन के उठा-पटक से लड़ने-भिड़ने की ताकत देता है, और उनके चाहने वालों के सामने सौम्य बनाता है।
रेखा इन चटपटी खबरों से स्वयं को अंदर-बाहर दोनों तरह से कैसे बदलती हैं, यह तो रेखा स्वयं जानती हैं। अपने प्रेम, जिसको वह अपने जीवन में नहीं पा सकी, जिसक प्यार का दंभ वह ताजिंदगी भरती हैं, शायद वही उनके जीवन को, उनको स्टाइल दीवा या एनिग्मा जैसे संबोधन का हकदार बना देता है।
आज कम फिल्में कर के भी उनका जलवा कम नहीं हुआ है। वे जहां भी खड़ी हो जाती हैं, लोगों को अपने तरफ आकर्षित कर ही लेती हैं।
कैलेंडर के हिसाब से रेखा की उम्र दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है, पर रेखा अपनी सिल्क साड़ी, ब्लड रेड लिपस्टिक और मांग में सिंदूर से ही महफिल की रौनक बन जाती हैं।
12 साल के बाल कलाकार से शुरू हुआ रेखा का सफर अभी उरोज़ पर पहुंचकर ढलान पर या फिर से नई उड़ान भरने के लिए कुंचाले भरने की तैयारी कर रहा है, यह कहना उनको देखकर आज भी मुश्किल है…
इमेज सोर्स : rekha_the_actress via Instagram
read more...
Please enter your email address