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औरतों को अपने हर हक़ के लिए कानून का सहारा क्यों लेना पड़ता है?

यहां मैं सभी की बात तो नहीं कर रही पर बचपन से ही हमें अक्सर सुनने को मिलता, "तेरा तो व्याह हो जायेगा! तू तो ससुराल चली जायेगी! फिर तेरा यहां कौन?"

यहां मैं सभी की बात तो नहीं कर रही पर बचपन से ही हमें अक्सर सुनने को मिलता, “तेरा तो व्याह हो जायेगा! तू तो ससुराल चली जायेगी! फिर तेरा यहां कौन?”

पैतृक संपत्ति पर भाई का अधिकार तो उनके जन्म लेते ही शुरू हो जाता है। देखा है बाबा और दादा को अभी से ही भाइयों के नाम से जायदाद लेते। लेकिन हम लड़कियों को अक्सर अपने पैतृक संपत्ति के लिए लड़ना पड़ता है।

यहां मैं सभी की बात तो नहीं कर रही पर बचपन से ही हमें अक्सर सुनने को मिलता, “तेरा तो व्याह हो जायेगा! तू तो ससुराल चली जायेगी! फिर तेरा यहां क्या?”

लड़कपन में बड़े ही ठाठ से कहती, पूरे आत्मविश्वास के साथ, “व्याह भी होगा, ससुराल भी जाऊंगी लेकिन इतने बड़े घर-बार का क्या? ये भी तो मेरा ही है ना? इसमें तो मेरा भी हक है ना!”

उस वक्त तो मेरी इन बातों को हंस कर टाल दिया करती थीं दादी और अम्मा। लेकिन जैसे-जैसे बड़ी होती गई मुझे मेरे हक का भी एहसास करवाया गया और ना चाहते हुए भी विश्वास करवाया गया… “तू तो सोन चिरैया है, कल को उड़ जायेगी! इस अंगना को छोड़ कर चली जायेगी।”

समय बीतता गया उम्र के साथ बुद्धि और समझ भी बड़ी हुई। भाइयों के बीच बटवारे हुए। जैसे माहौल में पली-बढ़ी वहां पैतृक संपत्ति में बेटियों के हिस्से जैसी तो कोई बात ही नहीं होती थी। ना जानें क्यों लेकिन पता था अगर अपने हिस्से की बात की तो हिस्सेदारी के लिए लड़ना होगा और हिस्सेदारी में जीत गई तो रिश्ते हार जाऊंगी।

चूँकि उम्र के साथ समझदारी बढ़ गई थी तो दिमाग में आया, कौन सी बहन अपने भाई से केवल जायदाद के लिए लड़ेगी? और यहां आकर भाई बहन के इस अनमोल बंधन के बने रहने के लिए मैंने अपने साथ साथ अपनी समझदारी को भी चुप करवा दिया।

दिमाग में प्रश्नों के अंबार थे की भाई-भाई में जब पैतृक संपत्ति के बटवारें होते हैं तो भाई पूरे हक के साथ अपनी हिस्सेदारी ले जाते हैं। आगे चलकर कई भाई आपस में मेल मिलाप के साथ खुशी-खुशी रहते भी हैं। लेकिन जब बहन अपने हिस्से की बात कर दे तो रिश्ते टूटने पर क्यों आ जाते हैं?

समाज इसे तिल का ताड़ क्यों बना देता है? समाज ताने क्यों देता है कि “इसने तो अपने मायके के हिस्से को भी नहीं छोड़ा।” क्या कानून के बावजूद आज भी पैतृक संपत्ति में बेटियों का हिस्सा नहीं?

पैतृक सम्पत्ति में बेटियों का हक़- इस पर हमारा भारतीय कानून क्या कहता है?

पैतृक सम्पत्ति बेटियों को आखिर दिलाए कौन? इस पैतृक संपत्ति के लिए बेटियां किन किन से लड़ें? भाई से, रिश्तेदारों से या समाज से? आइए जानते हैं कि इस पर हमारा भारतीय कानून क्या कहता है?

अक्सर बेटियों की शादी के बाद संपत्ति में अधिकार जैसे मामले थोड़े उलझ जाते हैं। वजह होती है बेटियों का शादी के बाद एक अलग परिवार से जुड़ जाना। कई बार जब बेटियां पैतृक संपत्ति की बात करती हैं तो दहेज और शादी में हुए खर्चे जैसी चीजों का हवाला दे दिया जाता है। लेकिन आपने दहेज़ अपनी बेटी को नहीं उसके पति और ससुरालवालों को दिया था और उस पर आपने उसके स्त्रीधन पर भी कमी की होगी। ऐसे ही शादी के बाद भी कई मामलों में महिलाएं अपने पति के संपत्ति के हिस्से से भी वंचित रहती हैं- वो तो ससुराल है, और वो बाहर वाली है!

चूँकि भारत विविध धर्मों वाला देश है इसलिए यहां महिलाओं के संपत्ति के अधिकार में एक रूपता नहीं है।

हिंदू प्रथागत इतिहास को देखा जाए तो महिलाओं को उनके पैतृक संपत्ति से वंचित कर दिया गया था सिवाय स्त्रीधन के। स्त्रीधन महिलाओं को उनके उपहार के रूप में दिया जाने वाली भेंट थी। और वहीं विवाहित महिलाएं भी अपने पति की जायदाद के हिस्से से वंचित रहती थीं।

1937 में ब्रिटिश सरकार द्वारा हिंदू महिला संपत्ति का अधिकार लाया गया। हालांकि इस अधिनियम को भी कुछ अंतर्निहित खामियों का सामना करना पड़ा। फिर स्वतंत्रता के बाद हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 को महिलाओं को पुरुष उत्तराधिकारियों से अन्य चल और अचल संपत्तियों सहित भूमि संपत्ति का वारिस करने की अनुमति देने के लिए अपनाया गया था। आगे फिर संशोधन अधिनियम 2005 में निर्धारित हुआ की एक महिला जन्म से सहदायिक हो सकती है। इसका मतलब था की महिला खुद ही बेटे की तरह हो सकती है।

2015 में प्रकाश बनाम फुलावती में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया की अगर 2005 के संशोधन से पहले सहदायिक (पिता) का निधन हो गया, तो उनकी बेटी को सहदायिक संपत्ति का कोई अधिकार नहीं होगा। हाल ही में, विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा 2020 वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक सहदायिक का कानूनी अधिकार परिवार में पैदा होने से होता है और उसे सहदायिक संपत्ति का अधिकार होगा, भले 2005 के संशोधन के समय पिता जीवित हो या ना हो। अगर संशोधन से पहले बेटी की मृत्यु हो जाती है तो ऐसे मामले में बेटी के बदले का हिस्सा उसके बच्चो को जायेगा।

कानूनी दुनियां में तो ये हक कानूनी तौर पर पूरे सम्मान के साथ मिल गया। लेकिन असल जीवन का क्या? अभी भी कानूनी दुनिया से बाहर यदि हम निकलें तो बेटियां जब अपने हिस्से की मांग करती है तो उन्हें कई बार अपने रिश्तों से हाथ धोना पर जाता है। क्योंकि, अभी भी समाज महिलाओं के हिस्से की बात नहीं करना चाहता।

हमें भी असल जीवन में अपने हक को समझना होगा। हमें खुद को बदलना होगा ताकि नए सोच की शुरुआत हो सके नए सोच की शुरुआत होगी तो नए समाज की शुरुआत होगी और इससे समाज बदलेगा! एक नई सोच के साथ, एक नई उमंग के साथ और एक नई ऊर्जा के साथ…

इस लेख के लिए रेफरेंस यहां से लिया गया है  : https://www.thestatesman.com/supplements/law/women-property-rights-1502950314.html

इमेज सोर्स: Manu_Bahuguba from Getty Images via Canva Pro 

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