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दादी और बुआ से बहुत अच्छे संबंध ना होने के बावजूद, माँ ने हमें कभी उनसे कैसे पेश आना है का निर्देश नहीं दिया। हम उनसे लाड-प्यार से मिलते।
“कहते हैं, ऊपरवाला जिन्हें खून के रिश्ते में नहीं बांध पाता, उन्हें हमारा मित्र बना देता है। बस इतना समझ लो बेटा, रिश्तों के लिए मुट्ठी बांधनी पड़ती है, दिमाग खुला रखना होता है और मित्रों के लिए मुट्ठी खुली और दिमाग बंद रखना पड़ता है।”
शोभना अपनी बारह वर्षीय बेटी को मित्रता पर निबंध लिखने सीखा रही थी, जो कुछ लीक से अलग-लिखने की टिप्स मम्मी से ले रही थी।
“मुट्ठी, दिमाग, बंद, खुली, कुछ समझ नहीं आया मम्मा”, अरू मां की तरफ देखती हुई बोली।
“देखो बेटा, मुट्ठी बंद का मतलब हमें अपने रिश्तों को समेटकर रखना पड़ता है। कसकर अपनी मुट्ठी में। जिसके लिए दिमाग खुला रखना पड़ता है यानि छोटी-छोटी बातों को तूल नहीं देना होता है। सुनी सुनाई बातों पर ज्यादा भरोसा नहीं करना होता है। वहीं मित्रता एक प्रवाह है भावनाओं का, जो निरंतर बहती है उसके लिए मुट्ठी बंद करने की कोई जरूरत नहीं होती और दिमाग बंद इसलिए कि हमें अपनी मित्रता पर एक बार भरोसा हो गया तो पुनर्विचार की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती।”
“हां मम्मा समझ आ गया अच्छे से”, कहकर अरू अपने कमरे में चली गई।
“मानना पड़ेगा मैडम, आपके सिखाने के ढंग को, बच्चों के बेहतरीन पालन-पोषण देने के अलावा मुझे तुम्हारी एक और बात बहुत अच्छी लगती है, जब हम बैठते हैं किसी रिश्तेदार या मित्र की खामियों खूबियों के बारे में बात करते हैं तब तुम्हारा वहांँ से बच्चों को हटा देना या कभी मेरे मुंँह से बच्चों के आगे कुछ निकल जाए तो सुधार देना। बहुत अच्छी बातें हैं।
मुझे तो याद है जब हम बच्चे थे, गांँव की नानियांँ दादियांँ या पड़ोस की चाचियांँ आकर घंटों सबकी बुराई पुराण बांँचती थीं और मांँ के साथ हम सभी बच्चे उनको सुनते थे।” पास बैठे पतिदेव नितिन ने कहा जो इतनी देर से दोनों मांँ-बेटी की बात सुन रहे थे।
“पहले तो ऐसा होता ही था, पर ये चीजें मैंने अपनी मांँ से सीखीं। हमारे घर पर जब कोई आता तो प्रणाम नमस्कार के बाद वो हमें पढ़ने भेज देतीं। हम बहाने से आकर बैठते तो उस व्यक्ति के सामने ही कहतीं, ‘बेटा बड़ों की बातें नहीं सुनते। मांँ आपके दोस्तों के बीच बैठने जाती हैं कभी?’
हांँ कभी कभी तो गुस्सा आता था और कभी-कभी उत्सुकता भी होती सुनने की, पर मांँ के डर से इन बातों से दूर ही रहीं हम बहनें और ये बहुत अच्छा भी रहा हम लोगों के लिए। यही नहीं दादी और बुआओं से बहुत अच्छे संबंध ना होने के बावजूद, माँ ने हमें कभी उनसे कैसे पेश आना है का निर्देश नहीं दिया। हम उनसे उसी लाड़ प्यार से मिलते। तो ना चाहते हुए भी वो कह पड़तीं अच्छे संस्कार दिए हैं माँ ने। कहने का मतलब उस वक्त बुरी लगने वाली बातों का हमें बड़े होने पर एहसास हुआ कि माँ कितनी सही थीं”, शोभना बोली।
“शत प्रतिशत सही बात! हर चीज का बीज तो बचपन में ही बोया जाता है दिमाग में। किसी की बुराई, नफरत या खराबियों को बचपन से बच्चा दिमाग में बैठा लेगा, तो हर इंसान उसे बुरा ही दिखेगा। किसी व्यक्तिविशेष की खामियों के बारे में हमने चर्चा की और वो बच्चे से मिला तो बच्चा अपने वास्तविक रूप में उससे मिल ही नहीं पाएगा और सोचो अगर बच्चे ने सारी बातों की पोल खोल दी तो? अपनी बेइज्जती अलग”, नितिन बोले।
“एक कहानी याद आ गई आपकी इस बात से मुझे। मेरी एक दूर की चाची थीं। उनका संयुक्त परिवार था। उनकी देवरानी की एक बेटी थी दिव्या। सात साल की दिव्या बड़ी होशियार और बातूनी थी। दिव्या सबकी लाडली थी, दूधवाली,सब्जी वाली, कपड़े बदलकर बर्तन देने वाली, जो आता घर में उसकी गोद में बैठ जाती और बिना लाड़ लगाए जाने ना देती।
तीज के पर्व पर चाची के मायके से साड़ियां आई थीं। काफी सुंदर और मंहगी! वैसे भी मायके की साड़ी तो सबको जान से ज्यादा अज़ीज़ होती है। पर्व नजदीक था तो शहर जाकर ब्लाउज सिलवाना मुश्किल भी था और शायद समय पर मिल भी ना पाता।
गांँव की ही एक बुआ थी, जो कपड़े सिलती थी। गांँव के सभी लोग उन्हीं से सिलवाया करते थे कपड़े। चाची भी सिलवाती थी। पर साड़ी अच्छी थी तो ज्यादा मोह था। सो, एक सौ हिदायतों के साथ ब्लाउज सिलने, साड़ी की फाल पिक्को सब करने दे दिया। नियत समय पर साड़ी ब्लाउज आ भी गई। पर्व पर पहनना था तो पहन कर देख नहीं सकती थीं। देखने में ऊपर से ठीक ठाक ही लग रहा था ब्लाउज़।
पर पर्व के दिन डाला तो दोनों ओर से ब्लाउज ढीली थी और बाजू से बार-बार गिर रही थी। अब तो चाची का गुस्सा सातवें आसमान पर! बिना आगे पीछे सोचे जमकर गाली दी उन्होंने उस बुआ को, ‘करमजली को बार-बार कहा था ठीक से सिलना, नाप भी सही दिया था। अंधी को दिखा नहीं? इतनी अच्छी साड़ी और पर्व दोनों का सत्यानाश कर दिया नासपीटी ने। आने दो खबर लेती हूं महारानी की। सिलाई नहीं आती तो ले क्यों गई? निकम्मी…’
येन-केन प्रकारेण उन्हें सबने शांत किया। अगले दिन बुआ आई तो चाची का मन तब तक पूर्णरूपेण शांत हो चुका था। ब्लाउज की खामियां बताकर अंदर से ब्लाउज लेकर आई तो दरवाजे पर ही पांव ठिठक गए।
दिव्या हमेशा की तरह बुआ की गोद में चढ़कर बैठ गई थी और पूरे विस्तार से कल की घटना के बारे में बता रही थी।
“बुआ, कल चाची ने आपको बहुत गालियां दीं। करमजली बोला, नासपीटी बोला और भी बहुत कुछ बोल रही थीं, वो सब तो मैं समझ ना पाई!”
बेचारी बुआ बोली, ‘जाने दे बिट्टो, बुआ से गलती हो गई थी ना। और वैसे भी बड़ी भाभी है ना, बोल दिया होगा मजाक में।’
आगे दिव्या और कुछ कहती, बेचारी चाची बात बदलती कमरे में घुस आई और जबरदस्ती बहाने से दिव्या को बाहर भेजा।”
शोभना बोलती जा रही थी और हंँसती भी जा रही थी। इधर नितिन भी पेट पकड़ कर हंँस रहे थे।
दोस्तों, सच है कि बच्चे नादान होते हैं। उनके आगे हमें किसी की बुराई नहीं करनी चाहिए, उन्हें अपने विवेक से सामने वाले से पेश आने देना चाहिए। कल को समय के साथ उन्हें भी समझ आएगी और वो खुद अगले के बारे में जानकर अपनी धारणा बनाएंगे। हम अपने अनुभव को उनपर क्यों थोपें?
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मूल चित्र : Desi Parents & Generation Gap/Six Sigma Films, YouTube
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