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आज बेगम अख्तर यानि अख़्तरी बाई फ़ैजाबादी का जन्मदिवस है, जिनका जादू उर्दू शायरी और संगीत के दुनिया में बड़े अदब और सम्मान से लिया जाता है।
बाल-सुलभ दिनों में आर.पी.एम वाले काले रेकांर्ड(डिस्क), जिसको हम काली छेद वाली थाली कहते थे जिसे दादाजी सुना करते थे।
उन रेकार्डों में एक महिला की खनकती हुई अवाज़ में गीत खत्म होते ही एक आवाज बड़े वाले भोपू में गूंजती, “मेरा नाम अख़्तरी बाई फ़ैजाबादी” और मैं चौक जाता।
मेरे इल्म में अक्षरों के जान-पहचान से पहले ही ये खनकती हुई आवाज़ पहुंच चुकी थी।
आज बेगम अख्तर यानि अख़्तरी बाई फ़ैजाबादी का जन्मदिवस है, जिनका जादू उर्दू शायरी और संगीत के दुनिया में बड़े अदब और सम्मान से लिया जाता है। उनके बारे में मैंने कालेज के दिनों में काफी खोज कर पढ़ता, म्यूजिक कैसेट और सीडी के दुकानों में उनका संगीत खोजता।
संगीत और गायकी के प्रति भारतीय मध्यवर्गीय लोगों की पसंद समय के साथ बदलती रही है। वह पहले के पसंद से बेहद अलहदा हुई है, पर बेगम अख्तर की गायकी की सजगता उनके गीतों के खो जाने के बाद फिर से जिंदा हो उठती है।
एक संगीत गुरू, आदर्श गायिका के रूप में संगीत और शायरी के दुनिया में उनका नाम और पहचान अपने दौर में महिलाओं के एक पूरी पीढ़ी के लिए अनुकरण मिसाल रही है, जो आल इंडिया रेडियों में मिर्जा गालिब के शायरी में जान डालती हुई कहती थीं,
“इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया”
व्यावसायिक गायन में अपना लोहा मनवा चुकी मुश्तरी बाई के कोख में अख्तरी का जन्म 7 अक्टूबर 1914 को फैजाबाद में हुआ।
छुटपन के दिनों में ही मुश्तरी ने अख्तरी का गायन के प्रति रूझान भांप लिया और उनको उम्दा तालीम के लिए कोलकाता में पटियाला घराना भेज दिया, जहां मुश्तरी ने अपने आप को हीरे के तरह ताराशा था।
पटियाला घराना के मोहम्मद खान अख्तरी के गायन शैली को निखारने के लिए जो कठिन श्रम कराना चाह रहे थे, वह अख्तरी झेल नहीं पा रही थीं, इसलिए उनका रूझान ख्याल के जगह ठुमरी, ग़ज़ल और दादरा के अभ्यास के तरफ हो गया। उन्होंने किराना घराना के स्तंभ अब्दुल वहीद खां से ख़्याल गायकी सीखना शुरू किया।
अख्तरी समझने लगीं कि ख्याल गायकी उनके बस की चीज नहीं है। उनके पूरे गायन के सफर में उन्होंने ख्याल गायकी कभी नहीं की। अख्तरी अपनी गायकी में भाषाई विविधता के रंग जिसमें पुरबिया, अवधी, भोजपुरी शामिल है को ढालना चाहती थीं। उन्होंने अपनी ही एक विशिष्ट शैली विकसित की। इन भाषाओं का लोकचार में प्रयोग होने वाले शब्दों को अपने संगीत में पिरोकर जब अख्तरी गातीं तो उसमें एक पूरा जीया हुआ जीवन, सुनने वाले के जेहन में झूम जाता, यही था अख्तरी का जादू।
हैदराबाद, भोपाल, रामपुर और काश्मीर के नवाबों ने अख्तरी के गायकी के क्रददान बने और उनको वैतनिक नियुक्ती दी। गायकी के सफर के शुरुआती दिनों में उन्हे राजपरिवारों के सदस्यों से काफी सम्मान मिला। अख्तरी इससे आगे जाना चाहती थी पर मां और समाज के घर बसा लेने की चाहत भी उनका हमसाया बनी हुई थी।
लखनऊ के करीब काकोरी में ताल्लुकेदार इश्तियाक अहमद जो संगीत प्रेमी होने के साथ-साथ बैरिस्टर भी थे, विलायत से इल्म की तालीम पाकर काफी शोहरत बटोर रहे थे। अख्तरी से उनका निकाह हुआ, वह अख्तरी के कला की कद्र करते पर उनका यह क्रद अख्तरी के लिए चरम संरक्षक के रूप में सामने आया, जो अख्तरी के संगीत के सफर के लिए बेड़ियां बन गया। संगीत अख्तरी का जीवन था इसलिए सख्ती में थोड़ी दिलाई मिली और अख्तरी लखनऊ के बाहर जाने लगीं।
अख्तरी के जीवन का यह तराजूनुमा नियंत्रण उस दौर के कई महिलाओं को हैरान भी करता। वह शौहर और अपनी कला के शौहरत दोनों पर एक तरह का ध्यान दे पा रही थी। उनके परिवार के शोहरत ने कभी भी अख्तरी और उनकी गायकी के बीच आने की कोशिश नहीं की। यह नहीं भूलना चाहिए अख्तरी उस दौर में संगीत के हर विद्या में उरोज़ पर थी, जिस दौर में औरतों का इतना अधिक मशहूर हो जाना असंभव सी चीज मानी जाती थी।
सहजता और शास्त्रीय संगीत के प्रति सच्ची निष्ठा ही अख्तरी के संगीत का मूल आधार रहा है। वह पहले से तैयार की गई संगीत रचना पर अधिक ध्यान नहीं देती थीं। वह अपने गायन में लोक पक्ष को लयबद्ध करने पर अधिक जोर देती थीं।
अपनी गायकी में ठुमरी, दादरा, कज़री और चैती सरीखी सुगम रचनाओं के लिए अख्तरी शैलीगत बोल और टुकड़ी पर ज़ोर देती थीं। इसी कारण जो गज़ल और शायरी अब तक एक खास चौखट तक कैद थी, अख्तरी ने उनको संगीत के मंच पर ला दिया, जिसको सुनने वालों ने हाथों-हाथ लिया और पसंद किया। संगीत में उनका प्रयोग ने स्थायी और व्यापक चरित्र ही बदल दिया जो अब तक शास्त्रीय संगीत का मूल चरित्र माना जाता था।
गज़ल गायकी को उनका योगदान, शायरी और संगीत के संयोग में अभिव्यंजित उनके कौशल तथा उनकी अतिसंवेदनीयता की ऩजरिये से विशिष्ट है। यही कारण है कि आज लाखों लोग भारतीय संगीत तथा उर्दू शायरी की थोड़ी बहुत समझदारी रख पा रहे हैं।
उन्होंने केवल शिक्षित ही नहीं अशिक्षित लोगों के घरों और दिलों में भी भारतीय संगीत और उर्दू शायरी लोकभाषा में पहुंचा दिया। इसलिए उनको सुनने वाले ने उनको “मल्लिका-ए-तरन्नुम” के सम्मान से नवाज़ा और अपने दिल में जगह दी।
संगीत के प्रति बेगम अख्तर का योगदान इतना अधिक है उनके बारे जितना भी लिखा जाए कम है। भले ही 30 अक्टूबर 1974 को अख्तरी अपनी संगीत की महफिल को अलविदा कहकर हमेशा के लिए चली गईं लेकिन उनके चाहने वाले आज भी उनकी महफिल सजाते है और अपनी “मल्लिका-ए-तरन्नुम” को याद करते हैं।
इमेज सोर्स : Wikipedia/BCCL2021 via The Economic Times
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