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मार्गरेट नोबल भगिनी निवेदिता बनकर भारत में ही बस गईं और यहां की महिलाओं के जीवन में सुधार के लिए रखी सिस्टर निवेदिता गर्ल्स स्कूल की नींव।
भूखे-नंगे और साधु-फकीरों का देश कहकर भारत का जहां एक तरफ वैश्विक जगह में मज़ाक बनाया गया, वहीं दूसरी तरफ पूरी दुनिया से लोगों का आध्यात्म के प्रति जिज्ञासु लोगों का भारत आना भी जारी रहा है। लोग भारत आए और यहां के देशवासियों के आदर्शों और उनकी आकांक्षाओं को आत्मसात करके यहां के लोगों की सभ्यता और संस्कृति-मूल्यों के प्रति समर्पित होकर यही बस गए।
एनी बेसेंट, मार्गरेट कजिन्स के साथ-साथ मार्गरेट नोबल भी वह प्रसिद्द और सम्मानित महिला हैं जो भगिनी निवेदिता बनकर भारत में ही बस गई और यहां के महिलाओं के जीवन में सुधार और सामाजिक कामों में स्वयं को समर्पित कर दिया।
आयरलैंड के होमरूल(स्वराज) आंदोलन से जुड़े जांन नोबेल, जो वैस्टन चर्च के पादरी और धर्म-प्रचारक थे, के घर मार्गेट नोबेल का जन्म 28 अक्टूबर 1867 को हुआ। अपने पिता की प्यारी बेटी मार्ग्रेट उनके साथ गरीब बच्चों के बीच जाया करती थी। पढ़ाई-लिखाई और संगीत में रूचि रखने वाली मार्ग्रेट ने प्राकृतिक विज्ञान में रूचि रखती थी, जल्द ही वो एक शिक्षिका भी बन गई। पर उनके चिंतन में बार-बार धर्म को लेकर शंका और अनिश्चतता की स्थिति पनप रही थी।
उसी समय लंदन में स्वामी विवेकानंद के आगमन का उनको पता चला जो शिकागों के “धर्म संसद” में अपना भाषण देने के बाद लंदन पहुंचे थे। मार्ग्रेट की मुलाकात स्वामीजी से लेडी मारगेसन के घर पर हुई। मार्गरेट स्वामीजी के व्यक्तित्व से प्रभावित हो चुकी थीं और आध्यात्मिक जुड़ाव उनको महसूस होने लगा। स्वामी को एहसास था कि मार्गरेट भारत में महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार करने में महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। मार्गरेट की तरह की सुलझी हुई महिला की तलाश वह लंबे समय से कर रहे थे।
परंतु, भारत में मार्गरेट के लिए दो चुनौतियां थीं। पहला, भारत एक गर्म प्रदेश था और यहां का मौसम मार्गरेट के स्वास्थ्य के प्रतिकूल नहीं था। दूसरा, भारत के सामाजिक स्थिति के बारे में मार्गरेट अधिक नहीं जानती थी।
स्वामी जी ने मार्ग्रेट को इन दोनों दुविधाओं के बारे में पत्र लिखा और कहां इन दोनों परिस्थितियों का सामना करने का साहस तुम्हारे पास है तो तुम्हारा सौ बार स्वागत है। मार्गरेट भारत आ गईं और स्वामी की पहली महिला अनुयायी बनकर भगिनी निवेदिता की नई पहचान को अपना लिया और महिलाओं के सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए महिला शिक्षा के प्रति स्वयं को समर्पित कर दिया।
भारत आने से पहले मार्गरेटअपने अंग्रेजी मित्रों के सहयोग से जगदीश चंद्र बोस और उनकी पत्नी अबला बोस के साथ-साथ सरला घोषाल और टैगौर परिवार के लोगों से परिचित हो चुकी थी। अबला बोस बोस पहले से ही एक स्कूल चला रही थीं, जिसका नाम बैथुन कांलेज था।
मार्गरेट को बैथुन कॉलेज में अपनायी जा रही बोस-पद्धति पसंद आई जिसमें वो ग्रामीण और शहरी परिवेश में उन लड़कियों को तलाश करती थीं जिसके पति स्वर्गवासी हो गये हैं और सामाजिक मान्यताओं ने उसका जीवन यंत्रणापूर्ण बना दिया है। इन लड़कियों को बैथुन कॉलेज में पढ़ाई लिखाई और उन कामों की ट्रेनिग दी जाती थी जिससे वो अपना जीवन आत्मनिर्भर बना सके। इन लड़कियों को तैयार करके फिर ग्रामीण इलाकों में लड़कियों को शिक्षित और हुनरमंद बनाने के लिए भेज दिया जाता था।
भगिनी निवेदिता बनने से पहले मार्गरेट ने भारत में स्त्री शिक्षा के चुनौतियों को समझने का प्रयास किया। उन्होंने समझा यहां के लोग लड़कियों को विवाह के उम्र में आने के बाद उसकी शादी करके जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं। लड़कियों के उच्च शिक्षा क्या मामूली शिक्षा में भी उनकी कोई रूचि नहीं है। उन्होंने अपने स्कूल में लड़कियों के शिक्षा के साथ-साथ उनकी आर्थिक स्वतंत्रता के सवाल को समझा और उसको हल करने के प्रयास में लग गई। उन्होंने देश-विदेशों में आध्यात्मिक वेद-वेदांत की शिक्षा के लिए देश-विदेश का दौरा किया और उससे जमा धन संग्रह को स्कूल के आर्थिक संकट से मुक्त रखा।
भगिनी निवेदिता स्वामी जी के साथ की यात्रा को नोट करती और उनको संस्मरण की तरह नियमित रूप से मार्डन रिव्यू में भेजती, जिनमें उनकी यात्राओं का दिलचस्प विवरण होता। उन्होंने “द मास्टर एज़ आई सॉ हिम”, “ट्रेवल टेल्स”, “क्रैडिल टेल्स ऑफ़ हिंदुस्तान” नाम से तीन किताबें भी लिखीं, जो लेखन से उनके धनी होने की बात दर्ज करता है।
उन्होंने भारत और इग्लैंड का साथ मिलकर कई क्षेत्रों में काम करने की योजना तैयार कि जो भारत के विकास में मील क पत्थर साबित हो सकता था। पर भारत जिस तरह से अपनी आजादी के लिए राजनीतिक रूप से परिपक्व हो रहा था, यह संभव नहीं हो सका। बहरहाल भगिनी निवेदिता रामकृष्ण मिशन स्कूल के अपने कामों में लगी रहीं। भारत में हैजा और प्लेग फैलने के समय उनका सेवा भाव अपने चरम पर पहुंच चुका था।
जगदीश चंद बोस ने जब पौधों की चेतनाशीलता पर अपना वैज्ञानिक शोध प्रस्तुत किया तब पेरिस में बोस को प्रसंशा मिल रही थी पर इंग्लैड में सब मजाक उड़ा रहे थे। भगिनी निवेदिता इससे दुखी थीं क्योंकि इंग्लैड के वैज्ञानिक बोस विरोधी वातावरण बना रहे थे। भगिनी निवेदिता के दायरे में हैवेल जैसे वास्तुकार, आनंद स्वामी जैसे विद्दान, विश्च के प्रमुख इतिहासकार, कवि, कलाकार सभी शामिल थे। सभी ने भगिनी निवेदिता के कार्यों की सराहना की और तमाम तरह की मदद करते रहे।
विवेकानंद के देहांत के बाद, उनके स्वपन की सारी जिम्मेदारी भगिनी निवेदिता ने अपने कंधों पर ले ली। 7 अक्टूबर 1957 तक भारत को आजादी मिलने के बाद भी, भारत को नई ऊचाइयों तक पहुंचाने के लिए वह पूरी तरह से समर्पित रहीं।
उनके देहांत के बाद उनका दाह-संस्कार हिंदू रीति-रिवाज से हुआ। आज भी हिमालय के गोद में दार्जिलिग में मौन उनका स्मारक भगिनी निवेदिता का भारत को लेकर समर्पण और त्याग की याद दिलाता है। सिस्टर निवेदिता गर्ल्स स्कूल के रूप में उनको भारत को दिया तोहफा उनके जाने के बाद भी आज भी देश की सेवा कर रहा है।
इमेज सोर्स: विकिपीडिया
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