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मुश्किल में इंसान ही इंसान के काम आता है…

"तुम नया छाता दे तो दोगी, पर अगर शांता दोपहर में वापस करने न आई, तो तुम्हारा अपना छाता तो गया। कल तुम चली जाओगी, वापस आ कर भूल जाओगी..."

“तुम नया छाता दे तो दोगी, पर अगर शांता दोपहर में वापस करने न आई, तो तुम्हारा अपना छाता तो गया। कल तुम चली जाओगी, वापस आ कर भूल जाओगी…”

मैं कुछ समय के लिए बाहर जाने वाली थी। इसलिए मैंने अपनी काम वाली बाई शांता को कुछ बचा-खुचा सामान देकर विदा किया। पर जैसे ही वह सारा काम करके घर से निकलने लगी, अचानक बहुत तेज बारिश होने लगी।

बरसात देख कर शांता बोली,  “आंटी जी छाता दे दीजिए।”

मैंने एक छाता इस काम के लिए ही रखा हुआ है। ज़रूरत पड़ने पर कोई भी  सहायक कर्मचारी  इसे  मांग कर ले जाता है और दूसरे दिन इसे वापस ले आता है।

शांता वर्षों से मेरे पास काम कर रही है, इस लिए इस बात को वह अच्छी तरह  से जानती है। पर क्योंकि मैं अगले दिन जाने वाली थी इस लिए शांता ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “आंटी जी! मैं पड़ोस में काम करने आऊंगी, तो दे जाऊंगी।”

उस की बात सुनकर मैं आश्वस्त हो गई और छाता ले आई। पर जैसे ही शांता ने छाता खोलने का प्रयत्न किया, छाता खुला ही नहीं। शायद काफी समय से उपयोग में न आने के कारण जाम हो गया था।

सुचारु रूप से जीवन यापन के लिए में अनेकों वस्तुओं की आवश्यकता होती है, जिनकी जरूरत वर्ष में एक-आध बार ही पड़ती है, पर घर में जिनका होना अनिवार्य है। छाता उनमें से एक है। पुराना छाता काम न करने पर मन ने कहा, “अपने लिए रखा नया छाता शांता को दे दो।”

तुरंत ही दिमाग ने अड़ंगा लगाते हुए प्रत्युत्तर दिया, “तुम नया छाता दे तो दोगी, पर अगर शांता दोपहर में वापस करने न आई, तो तुम्हारा अपना छाता तो गया। कल तुम चली जाओगी। लौटकर आने तक तुम सब कुछ भूल जाओगी। फिर छाते की जरूरत पड़ने  पर शायद तुम्हें याद ही न रहे कि तुम ने उसे किसे दिया था। बात पुरानी हो जाने पर, याद आने  पर भी दी हुई वस्तु मांगना और उसका सही सलामत मिल जाना क्या इतना सहज है?”

मन ऊहापोह में फंसकर रह गया।

तभी दिल ने दस्तक दी, “क्यों इतना सोच विचार कर रही हो? शांता वर्षों से काम कर रही है, यदि शाम को न भी आई, तो वह इसका उपयोग कर लेगी। वैसे भी तुम्हारे जाने के बाद यहां भी पड़ा ही रहेगा। आने के बाद जब कभी बरसात होगी तो देखा जाएगा, उसकी अभी से क्यों चिंता?”

कहते हैं मन की गति अति तीव्र होती है, इस लिए यह सब विचार पलक झपकते ही मन  में आ गए। अंत में दिल की जीत हुई और मैंने शांता को छाता दे दिया। पर वही हुआ जिसका मुझे डर था।

शांता दो बजे की बस से चली जाती है और अब ढाई बज रहे थे दिमाग लानत मलामत कर रहा था और दिल तसल्ली दे रहा था। धीरे-धीरे घड़ी की सुइयां खिसकने लगीं और तीन बजते-बजते धैर्य ने जवाब दे दिया। अब मैं स्वीकार कर चुकी थी कि छाता तो गया।

पर यह क्या? अचानक डोरबेल बजी। दरवाज़े पर शांता थी।

“शांता तुम! इस समय? अभी तक घर नहीं गई?” मैंने एक साथ कई प्रश्न उछाल दिए।

“आंटी जी! मैं जहां काम करती हूं, उनकी सास अचानक बीमार हो गई और उन्हें डाक्टर के पास ले जाना पड़ा। घर में छोटे-छोटे बच्चे थे। इसलिए मुझे उनके पास रुकना पड़ा। उनके वापस आने के बाद ही मैं वहां से निकल सकती थी।”

“पर अब तुम घर कैसे जाओगी?” मैंने जिज्ञासा व्यक्त की।

“मैंने अपने पति को फोन कर दिया है। वह मुझे लेने आ रहे हैं। ऐसे आड़े समय में इंसान ही इंसान के काम आता है। अच्छा! यह लीजिए अपना छाता!”

मुझे सोच में डूबा छोड़ कर वह चलती बनी।

शांता के दो छोटे छोटे बच्चे हैं,जो स्कूल जाते हैं। रोज उनके स्कूल से वापस आने से पहले ही वह घर पहुंच जाती है और उन्हें संभालती है। पर आज…

“आड़े समय में इंसान ही इंसान के काम आता है!” उसका यह कथन मुझे अंदर तक झकझोर गया।

कहते हैं धन-दौलत से किसी की सहायता करना आसान है, परंतु अपनी  व्यस्त दिनचर्या में से किसी के लिए भी अपना अमूल्य समय निकालना वास्तव में अति कठिन है।

इमेज सोर्स : Still from Short Film Gharelu/J Marvin Oliver via YouTube

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