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इस शोर या ‘संस्कृति और प्यार’ के नाम पर मिलने वाली सीखों से विचलित हुए बिना तर्क के साथ जीवन जीना हमारी ज़िम्मेदारी है, खासकर आने वाली पीढ़ी के लिए।
“मैडम, आप कर रहे हैं करवा चौथ इस बार?”
“जी नहीं?”
“क्या? क्यों?”
“जो विचार मुझे कनविंस नहीं करते, मैं उन्हें अपने जीवन में प्रैक्टिस नहीं करती।”
“पर, ये तो मान्यता होती है न?”
“हाँ, पर मेरे लिए किसी भी मान्यता को अपनाने के लिए ज़रूरी है कि उसके पीछे कोई ठोस तर्क हो। जो चीज़ें तर्कहीन हों, जो साफ साफ गैर बराबरी को दर्शाती हों, उन्हें सेलिब्रेट करने का भला क्या मकसद?”
और फ़िर खुसुर फ़ुसुर…
“अच्छा, शॉपिंग चल रही है?”
“हां हां! करवाचौथ आने वाला है न?”
“जी नहीं, मैं करवाचौथ नहीं कर रही।”
“अरे, क्यों? तुम्हारा तो पहला करवा है न? तुम्हारे यहां करवा नहीं होता क्या? पर तुम्हारी शादी तो पंजाब में हुई है?”
“बात बस इतनी सी है कि जिन त्योहारों का मकसद गैर बराबरी से भरा हुआ है उन्हें मैं सेलिब्रेट नहीं करती। जो त्योहार पितृसत्ता को प्रमोट करते हैं, मैं उनका हिस्सा नहीं हो सकती।”
ये खुसुर फ़ुसुर बहुत शोर करते हैं। सच कहूँ तो ये शोर कई बार डराते भी बहुत हैं। ‘सही क्या है’- का संशय तब भी नहीं होता पर डर तो लगता ही है।
उत्सवों के नाम पर हमारे यहां कितनी जड़ताएं, कितनी गैर बराबरी सेलिब्रेट की जाती है न। उत्सवधर्मिता का यह मतलब तो कतई नहीं होता न कि हम गलत मकसदों का जश्न मनाएं।
हमारे समाज के मूल स्वभाव में ही गैर-बराबरी गहरे में धँसी हुई है और ताज़्ज़ुब की बात यह भी कि वह हमें असहज भी नहीं करती। असहज करता है एक स्त्री का तर्कशील होना इस समाज को। हैरानी मुझे इस बात की होती है कि अपने हर क्षण में गैर-बराबरी को खुलेआम जीने वाला यह समाज खुद को बड़े गर्व से तरक्कीपसंद कहता है।
दो लोगों के रिश्ते में एक की सलामती के लिए दूसरे का उपवास रखना, यह गैरबराबरी नहीं है तो और क्या है? जहां साहचर्य का संबंध होना चाहिए, वहाँ हम एक हायरार्की बना कर उसे सिर्फ़ स्वीकार ही नहीं बल्कि ग्लोरीफ़ाई भी करते हैं और फ़िर उसे ‘प्यार’ का नाम देते हैं- यह हमारे समाज की हिप्पोक्रेसी नहीं तो और क्या है?
“तुम हर चीज़ में गैर-बराबरी ढूंढ लेती हो, ऐसे थोड़े ही चलती है ज़िंदगी! अरे बच्चे ये तो प्यार के त्योहार होते हैं।”
ऐसी बातें, ऐसी सीखें मुझे हमेशा मिला करती है, वैसे ही जैसे खुसुर फुसुर का शोर! पर इस शोर या ‘संस्कृति और प्यार’ के नाम पर मिलने वाली सीखों से विचलित हुए बिना तर्क के साथ जीवन जीना हमारी ज़िम्मेदारी है।
जीवन में हमारा व्यवहार हमारे साथ-साथ हमारी अगली पीढ़ी को भी प्रभावित करता है। हमारी लड़ाइयां उनके जीवन को भी आसान बनाती हैं। इन सब से परे यह लड़ाई (यदि यह लड़ाई है भी) इसलिए भी बहुत ज़रूरी है कि इसका हासिल (बराबरी का समाज) बेहद खूबसूरत है। वैसे भी किसी रास्ते का मुश्किल होना उस पर चलने की ज़रूरत को ही दर्शाता है।
और वैसे भी हम आज़ाद ख़्याल वाले और पितृसत्ता को सेलिब्रेट करने वाले – दोनों एक साथ तो नहीं हो सकते। इन दोनों विचारों का सह-अस्तित्व तो संभव ही नहीं है।
इसलिए, चुनाव कीजिए, हो सकता है आप अपने चुनाव में अकेले पड़ जाएं पर यह चुनाव तो हमें ही करना होगा और यह हमें एक पूर्ण मनुष्य के तौर पर करना होगा।
मैं अपने प्रिय कवि ‘पाश’ से हिम्मत पाती हूँ, आप भी पा सकते हैं। वो कहते हैं:
‘हम लड़ेंगे साथी,
कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे साथी
जब तक लड़ने की ज़रूरत बाकी है।’’
तो सोचिए, समझिए, भव्य और सुंदर शब्दों से बुने गए पितृसत्तात्मक व्यवस्था का हिस्सा होने से बचिए क्योंकि यह पितृसत्ता स्त्री और पुरुष के ही नहीं, बराबरी वाले एक सुंदर समाज बनाए जाने का विरोधी है।
इमेज सोर्स: Still from Short Film Name Plate/Blush, YouTube
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