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पिछले दिनों अपनी बहन से मिलने गई थी। छुटकी ने चाय पकड़ाते हुए कहा, "दीदी! लीजिए आप के लिए मलाई वाले टोस्ट। आप को बहुत पसंद हैं न?"
पिछले दिनों अपनी बहन से मिलने गई थी। छुटकी ने चाय पकड़ाते हुए कहा, “दीदी! लीजिए आप के लिए मलाई वाले टोस्ट। आप को बहुत पसंद हैं न?”
पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित अपने आर्टिकल को देख कर किसी भी लेखक का दिल बल्लियों उछलने लगता है। रचना का प्रकाशन लेखक को अद्भुत प्रेरणा देता है।
कई दिनों से उसकी कोई भी रचना प्रकाशित नहीं हो पाई थी जिससे उसका मन उद्विग्न था। कुछ भी नया लिखने का मन ही नहीं हो रहा था। तरह तरह के विचार मन में उमड़ -घुमड़ रहे थे, पर चाह कर भी कलम नहीं उठा पा रही थी। लेखन से दूर रहने का उसने मन बना लिया था।
उसका मन अतीत में भ्रमण करने लगा। उच्च शिक्षा की आकांक्षा से उसने पीएचडी करने के लिए अपना रजिस्ट्रेशन करवाया था। इंटरव्यू देने पहुंची तो पता चला साक्षात्कार की तिथि 18 नहीं 13 थी! पता नहीं किस गफलत में 13 को 18 पढ़ गई? उन्हीं दिनों सोनिया कोख में आ गई। उसका पीएचडी का सपना सपना बनकर ही रह गया।
सोनिया के बाद सोनू, बस फिर तो बच्चों का लालन-पालन ही उसके जीवन का एकमात्र मकसद रह गया था। मां बनते ही उसकी ‘मैं’ पता नहीं कहां गुम हो गई थी।
उसका अपना कैरियर, अपनी महत्त्वाकांक्षाएं पीछे कहां छूट गईं कुछ याद नहीं। बच्चों के सैटल होने पर जब आंख खुली तो दुनिया कहां से कहां तक पहुंच चुकी थी। रिक्शा, बस, ऑटो का स्थान स्कूटर, बाइक, कारें ले चुकी थीं। उसके समव्यसक साथी उच्च पदों पर आसीन हो चुके थे। वह हतप्रभ सी इस बदलाव को देख रही थी।
समय मुट्ठी में बंद रेत की तरह उसके हाथ से निकल चुका था। वह कभी अपनी खाली मुट्ठी देखती और कभी समय के बदलाव को। इस बदलाव से सामाजिक मान्यताएं, परम्पराएं, जीवन मूल्य और सम्बन्धों के समीकरण भी बदल चुके थे। अपने अंदरुनी खालीपन, टूटन और जीवन में कुछ न कर पाने की त्रासदी को वह शब्दों में उकेरने लगी। किसी पत्रिका में अपना नाम पढ़ कर उसके पांव जमीन पर नहीं पड़ते थे।
मन फिर भटकने लगा। पिछले दिनों अपनी अनुजा से मिलने गई थी। छुटकी ने चाय पकड़ाते हुए कहा, “दीदी! लीजिए आप के लिए मलाई वाले टोस्ट। आप को बहुत पसंद हैं न?”
“तुम्हें अभी तक याद है?” उसने हैरान हो कर पूछा!
वह हल्के से मुस्करा दी। पर उसके मन में फिर कुछ चुभा। वह तो अपनी पसंद, नापसंद, इच्छा, अनिच्छा सब कुछ भूला चुकी थी। शायद यही नारी जीवन की सम्पूर्णता थी। प्रकृति ने नारी को सृजन की यही अद्भुत क्षमता दी है? सृजन यानि अपनी इच्छा, अनिच्छा, अपनी सत्ता, यहां तक कि अपनी पहचान तक मिटा कर अपनी प्रतिकृति को तराशना। अपनी इसी सृजन शीलता के कारण वह ईंट-पत्थरों से निर्मित मकानों को घर बना देती है और हाड़ मांस से बनी नन्ही जान को मनुष्य?
वह फिर गहरी सोच में डूब गई। आज लेखन उस का ‘पैशन’ बन चुका है। जीवन के व्यस्ततम दिनों में भी इसी पैशन के कारण अक्सर उसे अपनी व्यस्त दिनचर्या में से समय चुराना पड़ता था। कई बार लिखी गई रचनाओं को पोस्ट करने के लिए भी कई-कई दिनों तक समय नहीं मिलता था। पर अब वह अपने सब दायित्व पूरे कर चुकी है। बच्चे अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त हैं। किसी के पास समय ही नहीं है। कभी-कभी अकेलापन काटने को दौड़ता है।
हां! वह आज की मांओं को नौकरों-चाकरों की सुविधा से बच्चों की अच्छी परवरिश के साथ ही, अपने उचित रखरखाव और अपने कैरियर के साथ भी पूरा न्याय करते देखती है तो मन कहीं अपराध बोध से ग्रस्त हो जाता है। पर कहते हैं जो बीत गई, सो बात गई। उसका क्या सोचना?
मन फिर भटकने लगा। आज जीवन की इस सांध्य-वेला में, जीवन की भाग-दौड़ से दूर कुछ पल उसे अपने लिए जीने के लिए मिले हैं। उन्हें वह अवसाद, निराशा में नहीं बिताएगी। उसका लेखन उसके स्वयं के मन को सुकून देता है।
दिन में घंटे दो घंटे का यह लेखन उसे चरम आनन्द देता है। इसके लिए उन पलों को वह भरपूर जीएगी, अपनी सृजन शीलता, रचनाधर्मिता का पूर्ण निर्वाह करेगी। उसकी रचनाधर्मिता, उसकी स्वयं की उपलब्धि है और सिर्फ उसकी अपनी, केवल उसकी स्वयं की खुशी। अपनी खुशी के इन पलों को वह भरपूर जीएगी।
और अंत में!
अधिकतर लोग अपना अकेलापन दूर करने के लिए समाज सेवी संस्थाओं से जुड़ जाते हैं। आज जीवन मूल्यों में बदलाव आ रहा है। मसलन कमप्लिकेटेड (जटिल) होते रिश्ते, आपस में बराबरी का दावा, आपसी अहम् का टकराव, स्वयं को एक दूसरे से श्रेष्ठ समझने की भावना, आपसी मन मुटाव जैसी मान्यताओं पर लेखनी चला कर वह है इस समाज के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करने का प्रयास कर रही है।
बस यही है उसकी “मां” से “मैं” तक की यात्रा!
इमेज सोर्स: Still from Malabar Gold and Diamonds, YouTube
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