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मुंबई पुलिस के अनुसार फिल्में समाज का सच दिखाती हैं, अपने शब्दों और एक्शन को सावधानी के साथ चुनें, वरना कानून का सामना करना पड़ सकता है।
हाल ही में इंस्टाग्राम पर मुंबई पुलिस ने एक पोस्ट शेयर करते हुए जाहिर किया कैसे फिल्में और इनमें दिखाई गयी बातें और डायलॉग्स हमारे समाज के कई पहलुओं को सामान्य रूप में दिखा इन्हें बढ़ावा देती हैं।
पोस्ट में #Letsnotnormalisemisogny #Mindyourlanguage #womensafety जैसे टैग और कई डायलॉग का ईस्तेमाल कर मुंबई पुलिस द्वारा दर्शाये गए इन फ़िल्मों की ओर सवाल आज पूछने अवश्यक हैं।
मुंबई पुलिस द्वारा, उनकी ही मुंबई में बसी बॉलीवुड की ओर इशारा करती पोस्ट ना ही सिर्फ जनता को जागरूक करने के लिए है, साथ ही यह फ़िल्में बनाने वाले और इन किरदारों को निभाने वालों को भी इन बातों पर सोचने को मजबूर करती हैं।
“तुम एक पत्नी हो! तुम्हारा पति जैसा चाहेगा वैसा ही होगा…” (मैं ही उसका भगवान हूँ! उसकी इतनी जुर्रत कि मेरी मर्ज़ी के खिलाफ जाए?)
“मेने उसे काम करने दिया!” (मैं उसका मालिक हूँ, मैं ही बताऊंगा कि मेरी पत्नी अपनी ज़िंदगी कैसे जीए)
ऐसे डायलॉग हमने काफी बार फ़िल्मों में सुने हैं। सुनने में ही यह डायलॉग हमें कहीं ना कहीं अपने समाज में फैली पितृसत्ता का आईना दिखा देते हैं।
हर लड़की को बचपन से यही बताया गया है कि शादी के बाद पति ही देवता होता है। ‘पति परमेश्वर’ जैसे टर्म का ईस्तेमाल कर लड़कियों को पहले ही समझा दिया जाता है कि उनका धर्म सिर्फ पतों की सेवा करना है। पर अब सोचने की बात ये है कि क्या सच में हम इस सोच से काफी आगे बढ़ चुके हैं – शायद नहीं!
आज भी फ़िल्मों और सीरियल्स में हम देखते हैं कि औरतें पतिव्रता पत्नी के रूप में दर्शायी जा रही, हैं, जिनकी जिंदगी सिर्फ अपने पति के इर्द-गिर्द घूमती है और उनका काम है सिर्फ अपने पति की हर ‘आज्ञा’ का पालन करना और उन्हें खुश करना।
पर ये आज के समय का सच नहीं है। आज कई औरतें खुद अपनी जिंदगी बनाती हैं, घर के साथ अपना खुद का करियर संभालती हैं। पर फ़िल्मों में सिर्फ ‘पति की सेवा करना ही पत्नी का धर्म है’ आज भी दिखा कर यही दर्शाया जाता है कि इसमें कोई बुराई नहीं है, यह समान्य बात है। और तो और जो ऐसा ना करे उसकी ज़िन्दगी बर्बाद हो जाती है या वो चरित्रहीन और पापी है!
ऐसी ‘सभ्य सामाज और परिवारों की संस्कारी बातें’ बातें लड़कों में यह मानसिकता भी पैदा करती हैं कि उनके पास अपनी पत्नी पर, उसकी जिंदगी पर हक जताने का पूरा अधिकार है और ये औरत एक दासी है। यही बातें और ऐसी ही परवरिश लड़कों में महिला विरोधी मानसिकता पैदा करती है।
1988 में आयी फिल्म मालामाल का यह एक डायलॉग, “अगर खूबसूरत लड़की को ना छेड़ा तो वह भी तो उसकी बेज्जती होती है ना!”
हास्य रूप में लिखी यह लाइन ने उस समय में लोगों को खूब हंसाया होगा पर साथ ‘छेड़-छाड़’ करने वालों को बढ़ावा भी दिया। लेकिन क्या ये छेद-छाड़ उस लड़की को पसंद है या आपके इस व्यवहार ने उसके मन में आपके प्रति नफरत और डर पैदा कर दिया? और ‘छेड़-छाड़’? ये सेक्सुअल हरासमेंट है, जिसे पुरुषों को बचने के लिए हमारे इस पितृसत्तात्मक समाज में इतने हलके शब्द और सामान्य व्यवहार में ढाल दिया।
Boys will be boys या men will be men जैसी लाइनें तो हम हमेशा से सुनते आए हैं। ये कहती हैं कि पुरुष तो छेड़ेंगे ही, यही उनकी असलियत है, यही उनका चरित्र है, तो सम्भालना महिलाओं को ही है – कपड़े ढंग के पहनने चाहिए, रात को घर से नहीं निकलना चाहिए और ना जाने क्या-क्या!
हाल ही में आयी एक फिल्म कबीर सिंह के बारे में खास कर बात करते है। वह पूरी फिल्म खुद में एक मिसोजिनी यानि महिलाओं के खिलाफ समाज की मानसिकता का उदहारण है।
कबीर सिंह के किरदार में ढूढ़ने पर भी कोई अच्छाई तो नहीं मिलेगी पर खामियां बताते नहीं थक सकते।
कबीर सिंह के कुछ डाईलोग जैसे “वो मेरी बंदी है”, और यह जरूर देखने वाली बात है कि यह बात वह प्रीति से मिलने या बात करने के पहले जा कर कॉलेज में लड़कों को धमका कर कहता है। साथ ही कबीर सिंह प्रीति से एक सीन में कहता है “प्रीति, चुन्नी ठीक करो”…
पूरी फिल्म में हम लड़की को सिर्फ सलवार सूट में ही देखते हैं, क्यूंकि लड़कियां संस्कारी तो सिर्फ सलवार-सूट पहने वाली ही होती हैं। क्यों ठीक कहा ना मैंने?
ऐसा ही एक डायलॉग हाल ही में आयी उजड़ा चमन फिल्म में हमने सुना था कि “पुष्पा, हजार बार मैंने बोला है कपड़े ढंग के पहना कर। तीन तीन मर्द घूम रहे है यहां पर” क्यूंकि गलती आदमियों की गलत नजर की थोड़ी है। गलती तो औरतों के कपड़ों में है, जैसा कि हमारे देश के तमाम नेता हमेशा से कहते आये हैं।
कबीर सिंह जैसी फिल्म पर काफी विवाद हो चुके है, और हर बार हैरानी यही होती है कि ऐसे कई लोग है आदमी और औरतें दोनों जो अभी भी कहते है कि यह सिर्फ मनोरंजन है।
पर हम सब जानते हैं कि फ़िल्मों में दर्शाये जाने वाले व्यावहार, विचार और किरदार का लोगों की मानसिकता पर काफी प्रभाव पड़ता है।
मनोरंजन के नाम पर गलत सोच को रोमैन्टिसाइज़ करके या हास्य रूप में दर्शा के हम उससे सिर्फ मनोरंजन नहीं कह सकते। ऐसे ही लोग दूसरों के लैंगिकता पर, शरीर पर व्यंग कर उसे ‘मजाक कर रहे थे’ बोल देते हैं। लड़कियों के साथ छेड़-छाड़ कर कह देते हैं कि ‘अरे उसने तो कपड़े ही ऐसे पहने तो हमारी क्या गलती’ या ‘रात को अकेली क्यों घूम रही थी?’
मुंबई पुलिस की ये पहल हमें एक बार फिर समाज की महिला विरोधी मानसिकता के बारे में सोचने और उसे खत्म करने को प्रोत्साहित करती है।
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उनका ये कहना कि ‘सिनेमा हमारे समाज का आईना है। यहां (बहुत सारे में से) कुछ डायलॉग हैं जिस पर हमारे समाज और सिनेमा दोनों को विचार करने की जरूरत है। अपने शब्दों और एक्शन को सावधानी के साथ चुनें, वरना आपको कानून का सामना भी करना पड़ सकता है।’
समय बदल रहा है, लेकिन समाज, उसकी फिल्में और उसके पितृसत्तात्मक विचार वहीं के वहीं और आज भी एंटरटेनमेंट का माध्यम हैं! माना कि कुछ हद तक फ़िल्मों में दिखाए जाने वाला पात्र बदल रहे हैं पर ज़्यादातर फ़िल्में हमें फिर उसी मानसिकता की ओर ले जाती हैं जहां से आगे बढ़ने में हमें इतनी बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है।
मूल चित्र : Mumbai Police via Instagram
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