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पहाड़ी महिला ने आवाज़ उठा, शराब परोसने वाले परिवारों से आर्थिक दंड का प्रावधान किया, इससे कुछ हद तक ग्रामीण क्षेत्रों में शराब पर प्रतिबंध लगा।
उत्तराखंड की पहाड़ी महिला ने आवाज़ उठा, शराब को परोसने वाले परिवारों से आर्थिक दंड का प्रावधान किया, इससे कुछ हद तक ग्रामीण क्षेत्रों में शराब पर प्रतिबंध लगा।
विज्ञान की तरक्की के साथ ही लोगों के जीवन में भी परिवर्तन आ गया है। नए-नए आविष्कार और आधुनिक तकनीक ने ज़िंदगी को बहुत ही आरामदायक और सुलभ बना दिया है। विकास की यह हवा देश के दूर दराज़ ग्रामीण और पहाड़ी क्षेत्रों तक पहुंच चुकी है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि वर्तमान समय में लोगों को जल, जंगल जमीन के साथ साथ साथ विकास की जरूरत भी है। अब लोगों की सोच सुविधाओं के प्रति ज्यादा है और यह वर्तमान समय की मांग भी है।
पुराने जमाने में लोगों को जल जंगल और जमीन के प्रति बेहद प्यार था। आज से करीब 50 वर्ष पूर्व लोग वहां बसना पसंद करते थे जहां पर पानी तथा जंगल हो और खेती करने की सुविधाएं हों। जंगलों से सबसे अधिक पहाड़ी महिला को प्यार था और हो भी क्यों न, क्योंकि नजदीक जंगल होने से महिलाओं के सिर एवं पीठ का बोझ कम हो जाता था। लेकिन वर्तमान समय पर नजर डालें तो अब लोगों की सोच में बदलाव आ गया है। सुविधाओं से संपन्न आधुनिक मशीनें लोगों को ज़्यादा पसंद आने लगी हैं। जबकि यह वही पहाड़ी क्षेत्र है जहां लोगों ने प्रकृति का साथ देते हुए क्रांतिकारी आंदोलन का नेतृत्व किया था।
इस मामले में जनपद चमोली के मंडल घाटी के इतिहास की ओर नजर डालें तो इस क्षेत्र में चिपको आंदोलन हो या शराब के खिलाफ आंदोलन, यहां की महिलाओं ने पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इन आंदोलनों में अपनी महत्वूर्ण भूमिका का निर्वहन किया था।
उल्लेखनीय है कि विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन का जन्म जनपद चमोली के रैणी तथा मंडल घाटी से हुआ था। इस आंदोलन में यहां की महिलाओं, बुज़ुर्गों एवं बच्चों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुये इस क्षेत्र से वन माफियाओं को खदेड़ दिया था। महिलाओं को अपने जंगलों से इतना प्यार था कि वह इसे अपना मायका मानते हुये पेड़ों से चिपक गई थीं। महिलाओ का साफ तौर पर कहना था कि यदि इन पेड़ों पर आरी चलानी है तो सबसे पहले उनपर चलानी होगी।
यह चिंता सबके सामने थी कि यदि पेड़ कट जायेंगे तो इस क्षेत्र का अस्तित्व ही खत्म हो जायेगा। इस आंदोलन के लिये सभी लोगों नेे एकजुट प्रयास करते हुये इस क्षेत्र की अपार संपदा को बचाये रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
इस आंदोलन से जुड़ी यादों को साझा करते हुए दशोली ब्लाक के मंडल घाटी स्थित कोटेश्वर गांव की 55 वर्षीय गंगा देवी का कहना है कि पहले जमाने में महिलाओं को जंगलो से बहुत प्रेम होता था। महिलायें जंगलों को अपना मायका मानती थी। जब लड़की की शादी की बात होती थी तो उसके मां पिता वहां आस पास जंगलों के बारे में पूछा करते थे कि आस पास ही जंगल होगा तो हमारी बेटी को कष्ट कम होगा। मीलों दूर जंगलों में घास के लिये न जाना पडे़ इसलिये पूछताछ मुददा बना रहता था।
लेकिन आज के समय की बात करे तो आज लोगों को तमाम सुविधायें प्राप्त हैं। आज के दौर में माता पिता से लेकर लड़की भी यही चाहती है कि उसे अच्छी सुविधायें मिलें और जल, जंगल जमीन जैसे कार्यो को न करना पडे़।
इस संबंध में दशोली ब्लाक के बमियाल गांव की 58 वर्षीय पार्वती देवी का कहना है कि हमने अपने गांव में सड़क की सुविधा 10 वर्षो से देखी है। पहले हम करीब पांच किमी पैदल चलकर बाजारों को जातें थे और महीने में चार बार बाजार जाकर अपनी जरूरतों की चीज़ें लाकर अपने घरों में रख देते थें। तब महिलाओं को अपनी खेती, अपने जंगल तथा अपने पशुओं से बेहद प्यार था। लेकिन वर्तमान समय की बहुएं इस ओर ध्यान नहीं देती हैं।
आज की बहुओं को सुख सुविधा की अधिक जरूरत महसूस होती है। अपने समय का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि मेरी शादी वमियाला गांव में होने के कुछ सालों बाद मैं यहां की महिला मंडल की अध्यक्ष बनी। एक स्वयंसेवी संगठन के साथ जुड़कर हम लोग लगातार वृक्षारोपण कर अपने जंगलों की सुरक्षा स्वयं करते थे। इसका लाभ यह मिला कि कुछ सालों बाद हमें गांव के नजदीक ही चारा पत्ती और जलावन के लिए लकड़ियां आसानी से उपलव्ध हो जाती थी। इससे महिलाओं का श्रम भी बच जाता था। समय बचने पर हम लोग अपनी खेती और घरों के अन्य कामों को करने में जुट जाते थे।
अब जब धीरे धीरे विकास बढ़ रहा तो सड़को को काटने के चक्कर में हमारे कई पुराने जंगल नष्ट होते जा रहे हैं। इस अनियंत्रित विकास के कारण हमारे पौराणिक जल स्रोत भी सूख गये हैं। जिससे कई गावों में पेयजल का संकट गहराने लगा है। हालांकि सड़क के कारण अन्य सुविधायें तो बढ़ी हैं लेकिन महिलाओं का सिर एवं पीठ का बोझ और अधिक वढ़ता जा रहा है। उन्होंने कहा कि हम विकास के विरोधी नही हैं लेकिन विकास के नाम पर विनाश भी मंजूर नहीं है। इसी विनाश को रोकने के लिए ही इस क्षेत्र की महिलायें चिपको आंदोलन के माध्यम से देश में नाम कमा चुकी हैं।
कालांतर में इसी चिपको आंदोलन से सीख लेते हुए महिलाओं ने शराब के विरुद्ध आंदोलन चलाया है। इस क्षेत्र की पहाड़ी महिला सबसे अधिक शराब के बढ़ते नशे से परेशान थीं। आये दिन घर में शराब पीकर आने वाले अपने ही परिजनों से बेहद परेशान रहती थीं। यही नहीं कई महिलाओं और बच्चों ने इसके कारण यातनाएं भी सही हैं।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि उत्तराखंड में शराब जैस व्यवसाय से सबसे अधिक राजस्व प्राप्त होता है और इसी राजस्व से सरकार अपने खर्चों को पूरा करती है। गांवों, कस्बों तथा शहरी क्षेत्रों के आसपास बनने वाली कच्ची शराब से गांवों का माहौल निरन्तर खराब होता जा रहा था। सस्ती दरों पर कच्ची शराब मिलने से आसानी से गावों के लोगों तक इसकी पहुंच होने लगी थी। जिसके बाद एक बार फिर इस क्षेत्र की महिलाओं द्वारा क्षेत्र में कच्ची शराब बनाये जाने पर रोक लगाने के लिये एकजुट प्रयास किया गया था।
इस आंदोलन की शुरूआत मंडल घाटी के देवलधार की पहाड़ी महिला द्वारा की गई थी। देवलधार की प्रधान सुमन देवी के नेतृत्व में कई महिलाओं ने नरोंधार मे सैकड़ों लीटर कच्ची शराब तथा उसे बनाने वाले पदार्थों को नष्ट कर दिया था।
इसके बाद इस आंदोलन में क्षेत्र के लोगों का भरपूर सहयोग मिला और इसे तेज किये जाने के लिये रणनीति बनाई गई। इस आंदोलन में ग्वाड़, देवलधार,दोगड़ी कांडई, बैरागना, कुनकुली, मकरोली, भदाकोटी, खल्ला, मंडल, वणद्वारा, सिरोली, कोटेश्वर,की महिलाओं ने बढ़चढ़ कर प्रतिभाग करते हुये आगे से इस क्षेत्र में कच्ची शराब बनाने के विरुद्ध व्यापक आंदोलन किये जाने का निर्णय लिया गया।
यहां गढ़सेरा में आयोजित बैठक में तमाम पहाड़ी महिला का कहना था कि इस प्रकार से कच्ची शराब बनाकर इस क्षेत्र के नौजवानों, बच्चों तथा परिवार पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। जिससे कई परिवार उजड़ कर रह गये हैं। इसलिये इस क्षेत्र में इस प्रकार के व्यापार पर अंकुश लगाया जाना आवश्यक है।
इस आंदोलन को चमोली के तत्कालीन जिलाधिकारी डॉ. रंजीत सिंह ने सराहनीय कदम बताते हुए कहा कि क्षेत्र की जनता की एकजुटता के कारण इस प्रकार के अवैध व्यापार और धंधों को बंद किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि ऐसे परिवारों को समाज के साथ मिलकर स्वयं को समृद्धशाली बनाने का प्रयास किया जाना चाहिये। उन्होंने भी आबकारी अधिकारी को क्षेत्र में बनने वाली कच्ची शराब के लिये व्यापक रूप से चेकिंग किये जाने के निर्देश जारी किये थे।
महिलाओं के इस आंदोलन की सफलता यह रही कि इस आंदोलन के बाद अधिकतर सामाजिक कार्यो में महिलाओं ने शराब को परोसने वाले परिवारों से आर्थिक दंड का प्रावधान किया इससे कुछ हद तक ग्रामीण क्षेत्रों में शराब पर प्रतिबंध लगा। सबसे बड़ी सफलता महिलाओं यह मिली कि क्षेत्र में बन रही कच्ची शराब के कारण यहां युवा और बच्चें इसकी चुंगल में फंस कर अपना जीवन बर्बाद कर रहे थे। कच्ची शराब के अड्डे बंद होने के कारण अब युवा इससे दूर हैं।
कोरोना महामारी के इस दौर में महिलाओं की भूमिका एक बार फिर से महत्वपूर्ण हो गई है। कोरोना के प्रकोप से न केवल उन्हें स्वयं बचना है बल्कि गांव को भी बचाना है। वहीं सरकार द्वारा कोरोना टीकाकरण को सफल बनाने में भी इन महिलाओं की भूमिका असरदार साबित हो सकती है। ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना टीका के खिलाफ फैली अफवाहों को दूर करने में महिलाओं की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है।
ज़रूरत है सरकार और स्थानीय जनप्रतिनिधियों को इस दिशा में पहल करने और ग्रामीण महिलाओं को इस काम में आगे लाने की। महिलाएं जब पेड़ बचा सकती हैं और शराब माफियाओं के खिलाफ सफल आंदोलन चला सकती हैं तो कोरोना टीकाकरण को भी सफल बना सकती हैं।
यह आलेख गोपेश्वर, उत्तराखंड से महानंद बिष्ट ने चरखा फीचर के लिए लिखा है
मूल चित्र : Still of Chipko Andolan
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