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प्यार, हक और संपत्ति सब चाहिए, पर ज़िम्मेदारी…ना भई ना!

"अपने पिता को अपने भाई के पास क्यूं नहीं भेज देतीं? आसपास के लोग भी जाने कैसी कैसी बातें करते हैं कि बेटा नहीं रखना चाहता होगा बीमार पिता को..."

“अपने पिता को अपने भाई के पास क्यूं नहीं भेज देतीं? आसपास के लोग भी जाने कैसी कैसी बातें करते हैं कि बेटा नहीं रखना चाहता होगा बीमार पिता को…”

“पता है बाॅस ने मुझसे कहा कि अपने बीमार पापा को मुझे अपने भाई के पास भेज देना चाहिए, क्योंकि एक तो आए दिन मेरे छुट्टी लेने से आफिस का वर्क प्रेशर बढ़ जाता है और दूसरी बात एक लड़की होकर मैं भला क्या और कितना  कर सकती हूं अपने पापा के लिए।आप ही बताइए, ऐसी बात पर जवाब देना बनता है या नहीं?”

थोड़ी देर पहले साक्षी अपने बाॅस के कमरे से काफी गुस्से में बाहर आई थी और अब लंच आवर शुरू हो चुका था तो अपने एक सहयोगी से बातों बातों में बोली।

“बिल्कुल बनता है भई, तुम्हारे पिता, तुम्हारी छुट्टी और तुम्हारा निजी मामला है। इसमें किसी को घुसने की क्या जरूरत है?” सहयोगी ने टिफिन का डब्बा खोलते-खोलते कहा।

“तो मैं भी कहना चाहती हूँ। मेरे पापा कहां रहेंगे ये बताने वाले वो कौन हैं? दूसरी बात मानती हूँ, हाँ  मैं लड़की हूँ, पर मेरी क्षमता पर सवाल उठाने का हक किसने दिया उन्हें? आज उनके साथ मैं भी बराबरी की नौकरी कर रही हूं। क्या इससे भी बड़े प्रमाणपत्र की जरूरत है उन्हें मेरी काबिलियत को परखने के लिए?” साक्षी का चेहरा तमतमा रहा था।

“तो तुमने क्या कहा?” सहयोगी ने पूछा।

“कहने और सोचने की तो कोई बात ही नहीं है! मेरे पापा जब तक पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते, तब तक मेरे पास रहेंगे और तब तक क्या मैं तो चाहुंगी सारी उम्र वो मेरे पास रहें और मुझे उनका प्यार मिलता रहे।

जब से मम्मी गईं हैं एक दिन भी ठीक से नहीं रहे पापा। मैं जानती हूं भाई के घर उन्हें ज्यादा आराम होता है, क्योंकि भाभी घर पर होती हैं। पर उन्हें मेरे पास रहना अच्छा लगता है। दरअसल मम्मी की बहुत तमन्ना थी कि जब मैं नौकरी करूं तो वो मेरे पास आकर रहें। पर इधर मेरी नौकरी लगी, उधर वो चल दीं। शायद सुनने का ही इंतजार था उन्हें की उनकी बिटिया नौकरी पे लग गई है।

पापा कुछ कहते तो नहीं पर शायद वो मम्मी की ही इच्छा का मान रखने के लिए मेरे पास रहना पसंद करते हैं। वरना ना गांव वाले घर में उन्हें कोई कमी है, ना भाई के घर। इतनी जल्दी मां को खो दिया, अब मैं पापा को नहीं…” कहते कहते साक्षी की आवाज भर्रा उठी।

“देखो परेशान ना होना। सबका परेशानी देखने का अपना अपना नजरिया होता है। तुम किन हालातों से गुजरी हो या गुजर रही हो, ये दूसरा नहीं समझ सकता। ये सब छोड़ो लंच कर लो।” सहयोगी ने बातों ही बातों में अपना टिफिन खत्म कर लिया था।

लंच खोलकर बैठी साक्षी तो अपना मनपसंद आलू का परांठा देख उसकी आंखें भर आईं। आज कामवाली आई नहीं थी तो सारा काम निपटाना था। वरना सफाई पसंद पापा, बीमार होते हुए भी उसकी अनुपस्थिति में काम में लग जाते। आलरेडी लेट हो गई थी तो तैयार होते होते सोच रही थी कि लंच के लिए ब्रेड बटर रख लेगी। पर कमरे से निकली तो देखा उसका लंचबॉक्स और वाटर बोतल रेडी है।

“आपने तो स्कूल की याद दिला दी पापा! पर आपको ये सब करने की क्या जरूरत थी? आप पहले अच्छी तरह ठीक तो हो जाइए”, साक्षी ने प्यार से कहा।

“मैं बिल्कुल ठीक हूं, मेरी चिंता मत कर बेटा। फिर तो सारा दिन आराम ही करना है। इतना सा नहीं कर सकता क्या अपनी अफसर बिटिया के लिए?” पापा कुछ बातें ऐसी बोल जाते कि लगता उनके मुंह से मम्मी बोल रही हैं।

बगलवाली आंटी की बाई को बोलकर आई थी कि दोपहर का खाना आकर बना दे पापा के लिए। पता नहीं आई या नहीं सोचकर साक्षी ने एक निवाला तोड़कर रखा मुंह में और फोन लगाया पापा को। परांठे का बिल्कुल वही टेस्ट था जैसा मम्मी बनातीं थी।

“पापा…वो हेल्पर आई क्या?”

“ना बेटा, आई तो नहीं। पर चिंता मत करना। मैंने रोटियां सेंक ली थी अपने लिए। खा भी लिया। तू बता लंच किया तूने?”

“वहीं कर रही हूं पापा! बहुत यमी हैं आलू परांठे!” जानकर ‘मम्मी की तरह’ नहीं बोला, वरना अकेले में पापा और इमोशनल हो जाते।

बात करके रखने के बाद, साक्षी ने पूछने के लिए बगल वाली आंटी के घर फोन लगाया कि उनकी बाई क्यों नहीं गई जब वो कहकर आई थी उसे।

“आंटी, शांता बाई पापा का खाना बनाने क्यों नहीं गई? मैं कहकर आई थी उनको।”

“अरे बेटे, उसे  जल्दी जाना पड़ा, क्योंकि उसके घर से फोन आ गया था। ऐसी बात थी तो मुझे कह देतीं। भाई साहब को मैं दे आती खाना।”

“कोई नहीं आंटी, पापा ने लंच कर लिया है, मैंने बस पूछने के लिए…”

“एक बात कहूं बेटे, बुरा ना मानना। भाई साहब को अपने भाई के पास क्यूं नहीं भेज देतीं? तुम अकेली कितनी परेशान रहती हो। आसपास के लोग भी जाने कैसी कैसी बातें करते हैं कि बेटा नहीं रखना चाहता होगा बीमार पिता को तब तो बेटी के पास आकर रहते हैं”, आंटी ने सकुचाते हुए कहा।

“ऐसी कोई बात नहीं आंटी। मैं और मेरे पापा दोनों  खुश हैं एक दूसरे के साथ रह कर। लोग क्या कहते हैं क्या नहीं इससे मुझे रत्ती भर भी फ़र्क नहीं पड़ता। बेटे के घर ना रहना उनकी च्वाइस है मजबूरी नहीं।”

फोन रखने के बाद साक्षी फिर सोचने लगी। पता नहीं लोगों को क्या चिढ़ मचती है पापा उसके पास अच्छा महसूस करते हैं, ठीक हो रहे हैं। उसे अंदर से संतुष्टि का एहसास होता है कि मां ना सही पिता तो उसके पास रहकर अपने अरमान पूरे कर रहे हैं और सारी दुनियां टेंशन में है।

शाम को आफिस खत्म करके लौटने के बाद फ्रेश होकर आई तो देखा पापा चाय लेकर उसका इंतजार कर रहे हैं।

दोनों बाप बेटी बातें करते हुए चाय के मजे ले रहे थे,अचानक साक्षी का फोन बजा। उसके मामा का फोन था। बात करती करती साक्षी बालकनी में आकर बैठ गई।

अपनी बेटी की करियर संबंधी कुछ सलाह लेनी थी उन्हें साक्षी से, सारी बात करने के बाद फोन रखने से पहले मामाजी ने पूछा, “और जीजाजी के क्या हाल हैं? तबियत कैसी है उनकी? सुमित के पास जाने का क्या प्लान है?”

दिन भर से एक ही बात सुनते-सुनते इस बार साक्षी के सब्र का बांध टूट ही गया।

“क्यों मामाजी! क्यों जाएं भैया के पास पापा? मैं सक्षम नहीं हूं उनकी सेवा करने के या मेरे पास किसी चीज का अभाव है। भैया के लिए उन्होंने क्या ऐसा किया है जो मेरे लिए नहीं किया। बल्कि मेरे लिए तो और मेहनत करी है उन्होंने। जब उन्होंने मेरे पीछे भाग-दौड़ करी,अपने आप को झोंक दिया मुझे अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए, तब किसी ने कुछ नहीं कहा। अब जब मैं लायक हूं और वो मेरे पास हैं, खुश रहने की जीने की कोशिश कर रहे हैं तब सब खड़े हो गए हैं एक तरफ से बोलने को।

और सबसे बड़ी बात, ये कैसा नजरिया है इस समाज का, समाज के लोगों का? आज बेटा और बेटी प्यार और संपत्ति के तो बराबर अधिकारी हैं, पर जिम्मेदारियां केवल बेटे की हैं? सब कहेंगे बेटा फ़र्ज़ नहीं निभाता, रखना नहीं चाहता और बेटी के लिए कहेंगे कि वो तो बेटी है ना, क्या करेगी, कैसे करेगी।

अरे! क्यों नहीं करेगी? बहुत कुशलता से करेगी।फिर तो जिनके बेटे नहीं होते उनको तो जीने का अधिकार ही नहीं क्योंकि जिम्मेदारियां पर तो सिर्फ़ बेटों का नाम लिखी हैं, वही निभा सकते हैं।  बेटियां तो प्यार और संपत्ति की ही अधिकारी हैं। जिम्मेदारियों से उसका क्या लेना देना? नहीं मानती मैं ये दोगली और थोथी बातें। अगर मेरी कोई और मजबूरी होती या और किसी कारणवश उनका ध्यान न रख पाती तो हम देख लेते कौन कहाँ रहेगा। लेकिन अभी वो जहां रहना चाहें रह सकते हैं। सबको इसमें परेशानी क्यों है?”

गुस्से में साक्षी का स्वर इतना तेज हो गया कि पापा भी बालकनी में निकल आए और अगल बगल के पड़ोसी भी।

पर साक्षी को कोई अफसोस ना था। उसका बस चलता तो अपने मन की भड़ास वो माइक लगाकर निकालती कि उसके आफिसवाले, समाज वाले और रिश्तेदार ही नहीं सारी दुनिया सुने कि बेटी की भी जिम्मेदारी अपने माता-पिता के लिए उतनी ही है जितनी एक बेटे की।

“पापा मैंने कुछ ग़लत तो नहीं बोला ना?” साक्षी ने पापा के दोनों हाथ पकड़कर पूछा।

“मेरी बेटी कभी ग़लत नहीं हो सकती। मुझे गर्व है कि मैंने और तुम्हारी मम्मी ने अपने बच्चों को इतनी अच्छी परवरिश और संस्कार दिया है। ये जितने लोग ऐसा बोल रहे हैं सबके अंदर ये ख्वाहिश जरूर होगी कि उनकी भी बेटी तुम्हारे जैसी ही हो, पर सब लकीर के फकीर हैं। पर मेरी प्रार्थना है ईश्वर हर मां बाप को तुम्हारे जैसी बेटी दे…”

पापा ने ये कहकर साक्षी को जैसे ही  गले लगाया तो हमेशा की तरह साक्षी की दिनभर की टेंशन और थकान दूर हो गई। और वैसे भी मन के गुबार निकालकर वो अपने आप को एकदम हल्का महसूस कर रही थी।

दोस्तों, बेटे और बेटियां दोनों अपनी ही औलाद होती हैं। पर जाने क्यों मां बाप को बेटियों की ज़िम्मेदारी नहीं माना जाता। क्या ये कहीं ना कहीं उन्हें कमतर आंकने का तरीका है या घिसी पिटी पुरातन सोच? आप इस विषय पर क्या सोचते हैं? बेसब्री से इंतज़ार रहेगा आपके विचारों का…

इमेज सोर्स : Still from Love You Pa/Longhorn Pictures, YouTube

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