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"अपने हाथों से सारी तैयारी करवाऊँगी। पहला चौथ है! प्रिया क्या जाने रस्मों रिवाज़?" सोच-सोच रमा जी ख़ुशी से दोहरी होती जा रही थीं।
“अपने हाथों से सारी तैयारी करवाऊँगी। पहला चौथ है! प्रिया क्या जाने रस्मों रिवाज़?” सोच-सोच रमा जी ख़ुशी से दोहरी होती जा रही थीं।
नवरात्र खत्म होते ही बाज़ार में चहल पहल बढ़ चली थी। त्योहारों का मौसम था हर कोई अपनी तैयारी में मगन था, लेकिन इन सब में अकेली रमा जी थीं, जिनके लिये क्या त्यौहार तो क्या साल के अन्य दिन, सब एक समान ही थे।
अकेली रमा जी की जिंदगी में कोई थी तो वो मुनिया ही थी जो पिछली कई सालों से उनके घर का काम कर रही थी।
लेकिन पिछले कुछ दिनों से रमा जी को मुनिया कुछ उदास सी लग रही थी। लम्बे-लम्बे दिन में रमा जी को बोलने बतियाने के लिये सुबह शाम मुनिया का ही तो इंतजार रहता था। बातूनी मुनिया खुब बातें करती और रमा जी की दिल से सेवा भी करती।
“क्या हुआ? अब कुछ बतायेगी? देख रही हूँ दो दिनों से तेरा रेडिओ बंद है।”
रमा जी की बात सुन मुनिया की ऑंखें भर आयीं।
“क्या कहूं भाभी जी, बेटी का पहला करवाचौथ है और हमारे यहां पहले चौथ का सारा सामान मायके से जाता है। मेरा बहुत मन है सामान भेजने का लेकिन पहले ही बिटिया की शादी का इतना कर्जा है, कैसे होगा?”
बात तो बिलकुल ठीक कह रही थी मुनिया। बड़बड़ाती मुनिया काम में लग गई और रमा जी अपनी पिछली यादों में।
“रवि बेटा, देख ले ना फोटो, मुझे तो लड़की पसंद है।”
“माँ, आपकी पसंद मेरी पसंद है।”
ख़ुशी से झूम उठी थीं रमा जी रवि का ज़वाब सुन। आखिर हो भी क्यों ना, अपने दम पे परवरिश की थी रवि की। खुद तो बेहद कम उम्र में विधवा हो गई थीं और उनकी अपनी जिंदगी संघर्ष में ही बीत गई। जो शौक अधूरे रह गए अब बहू के साथ पूरे करने की इच्छा थी रमा जी की।
बहुत शौक से शादी की थी अपने बेटे रवि की प्रिया के साथ।
“शादी के बाद बहु का पहला चौथ है, कोई कमी ना रहने दूंगी”, मन ही मन सोचती रमा जी ने पचासों साड़ियां में से एक सुन्दर बनारसी सिल्क की साड़ी पसंद कर ली। ढेर सारा श्रृंगार का सामान और सोने के झुमके लिये अपनी बहु के लिये।
“ये लो बहू! कल करवा चौथ है, मेरी तरफ से ये सामान रख लो। और हां मैंने मेहंदी, पार्लर भी बुक करवा दिया है। तुम बस जल्दी उठ सरगी खा लेना और रवि की लंबी आयु के लिए मन्नत मांगना और अपना पहला करवा चौथ खूब एन्जॉय करना।”
अपनी रौ में बोलती रमा जी प्रिया के चेहरे के भाव देख ही नहीं पायीं, जो पल-पल बदल रहे थे।
“मम्मीजी, लेकिन मुझसे ये व्रत नहीं होते और वो भी निर्जला? सोचिये माँ, इंसान चाँद पे पहुंच गया है और आप यहां रवि की लंबी आयु के लिये मुझसे व्रत करवा रही हैं?” हंस पड़ी थी प्रिया।
“सोचिये, अगर ऐसा ही है तो आपने भी तो व्रत किया होगा, फिर क्यों पापाजी नहीं रहे?”
प्रिया की बातें सुन रमा जी को जैसे काठ मार गया। ये क्या बोल गई थी प्रिया? रमा जी ने एक शब्द ना बोला क्यूंकि अब कुछ तर्क-वितर्क को रहा ही नहीं था। कुछ हद तक प्रिया भी गलत नहीं थी, अगर व्रत-उपवास से आयु लंबी होती तो क्या रवि के पापा इतनी जल्दी उन्हें छोड़ चले जाते? लेकिन ये सब तो ऊपर वाले के हाथ में होता है और एक पत्नी होने के नाते वो इतना ही कर सकती थी। सभी व्रत और उपवास तो रमा जी ने कितनी श्रद्धा और नियम से किये थे।
रमा जी को प्रिय की बात अच्छी न लगी लेकिन थोड़ा सोच कर वे बोलीं, “ठीक है प्रिया, बात तो तुम ठीक हो कह रही हो। अगर तुम्हारी इच्छा नहीं, तो मैं तुम्हें नहीं कहूँगी। वैसे भी व्रत अपनी इच्छा से किया जाता है ना कि किसी के दबाव में आ कर।”
अपनी भावनाओं पे नियंत्रण कर और बात सँभालते हुए रमा जी ने बड़ी मुश्किल से कहा। हर नयी चीज़ अपनाने में मुश्किल तो होती ही है। लेकिन समय के साथ बदलने का नाम ज़िन्दगी है।
रमा जी की बात सुन प्रिया बहुत खुश हुयी। कितनी सुलझी हुईं थीं उसकी सासु माँ! उसने व्रत नहीं किया और रमा जी अपने आप को समझाती रहीं। लेकिन रिश्ता उनका आज और भी मजबूत हो गया था।
जल्दी ही रवि की नौकरी विदेश में लग गई। रवि के लाख मनाने पे भी रमा जी ने विदेश बसने से इंकार कर दिया। मजबूर हो रवि, प्रिया के साथ विदेश में बस गया और पीछे रह गई रमा जी और उनका खाली पड़ा आशियाना।
“गेट बंद कर लो भाभी, शाम को आऊंगी।” मुनिया की आवाज़ पे तन्द्रा टूटी रमा जी की।
पहले उन्होंने सोचा रमा को कहें कि रहने दे सामान, बच्चे खुद समझदार होते हैं। लेकिन फिर वो कुछ सोच कर चुप हो गयी। मुनिया अपनी बेटी को पहली करवा चौथ की ख़ुशी देना चाहती थी। उनकी ख़ुशी इसी में थी।
मुनिया के जाते ही रमा जी ने अपना पर्स उठाया और उत्साह से चल पड़ी बाज़ार की ओर सुन्दर सी सिल्क की साड़ी मैचिंग चूड़िया, श्रृंगार का ढेरों सामान से लदी घर आते-आते शाम हो आयी।
“कहाँ चली गई थीं भाभी? कब से राह देख रही हूँ।” गेट पे खड़ी मुनिया ने रमा जी को देखते ही सवालों की झड़ी लगा दी।
“चुप कर अपना रेडियो! चल अंदर फिर बताती हूँ।” पानी पी रमा जी ने सारा सामान मुनिया के हाथों में पकड़ा दिया |
“ये सब बिटिया के ससुराल भिजवा देना और हाँ ये कुछ पैसे भी। फल-मिठाई भी तो लेने होंगे ना?”
सामान देख मुनिया रो पड़ी।
“लेकिन भाभी जी, आपसे कैसे लूँ?”
“क्यों री मुनिया क्या तेरी बहु-बेटी मेरी बहु-बेटी नहीं?” हॅंस कर रमा जी ने कहा।
“काश, प्रिया बहु भी आपकी भावनाओं को समझती भाभी!” मुनिया ने ऐसा कहा तो चौंक पड़ीं रमा जी।
“ऐसा ना कह मुनिया! माना प्रिया इन रीती-रिवाजों को नहीं मानती लेकिन मैं उसे गलत भी नहीं मानती। सबकी अपनी सोच होती है। और फिर व्रत उपवास तो अपनी इच्छा से करने की चीज है ना? और रही बात मेरी इच्छा की तो, जैसे मेरे लिये प्रिया वैसे तेरी बिटिया है। अपने शौक तो मैं तेरी बेटी के साथ भी पूरी कर सकती हूँ।”
रमा जी बात सुन मुनिया भी संतुष्टि से मुस्कुरा दी। कितनी समझदार थीं उसकी रमा भाभी!
इमेज सोर्स : Still from Saas Bahu Karwa Chauth, Malabar Gold and Diamonds/YouTube
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