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"मुझे माफ़ कर दीजिए मां! पर साड़ी कटने में मेरा कोई दोष नहीं, मैंने सारे एहतियातों का ध्यान रखा था, पर वो पिन की वजह से..."
“मुझे माफ़ कर दीजिए मां! पर साड़ी कटने में मेरा कोई दोष नहीं, मैंने सारे एहतियातों का ध्यान रखा था, पर वो पिन की वजह से…”
“बला की खूबसूरत लग रही हो निशा! तुम भी और तुम्हारी ये साड़ी भी! कहां से ली? कब ली? बहुत महंगी होगी ना? मुझे भी शाॅप का एड्रेस दो ना!” शाम से ही ऐसे अनगिनत काॅम्पलीमेंट्स और प्रश्नों से निशा का सामना हो रहा था।
दरअसल निशा के भाई की रिसेप्शन पार्टी थी, पर नई दुल्हन से ज्यादा नजरें उसी पर थीं, जिसका निशा की खूबसूरती के अलावा एक बड़ा कारण था, उसकी साड़ी!
हरे भूरे रंग की भारी बनारसी पर चांदी के तार से की गई नक्काशी साड़ी को अलग ही लेवल दे रही थी। उस पर से निशा ने जिस सलीके से पहनकर साड़ी में एक सिंपल पिन लगाकर छोड़ा था, बहुत ही सुन्दर दिख रही थी। और निशा साड़ी से जुड़े किसी भी सवाल का जवाब नहीं दे सकती थी क्योंकि ये साड़ी उसकी सासु मां की थी। उनके दादाजी ने उनकी शादी के वक्त बनारस से स्पेशल आर्डर देकर बनवाई थी।
खालिश चांदी की तार जड़ी साड़ी ना केवल बहुत महंगी थी, बहुत भारी भी थी। सासु मां के अलमारी में बहुत दिनों से देखते-देखते हिम्मत करते आखिर निशा ने भाई के रिसेप्शन में पहनने के लिए मांग ही ली थी।
वैसे भी सासु मां के पास एक से एक पुराने जमाने की साड़ियां और एंटिक ज्वेलरी थी, पर बहू तो दूर वो अपनी बेटियों को भी हाथ नहीं लगाने देतीं। कहतीं उनकी यादें जुड़ी हैं उन चीजों से। खैर दो दिन तक तो सासु मां चुप्पी लगा गई। फिर खुद पाॅलिश के लिए निकाल के देने के साथ-साथ हिदायतें भी दीं, ‘संभालकर रखने और पहनने की।’
निशा तो सातवें आसमान पर थी उस साड़ी को पाकर और आज उसे लग रहा था वापस जाकर जब सासु मां को भी बताएगी सारी तारीफें, तो शायद अगली बार से वो और उदारता दिखाएं।
शाम काफी गुलज़ार रही। थकी मांदी वापस आई निशा ने साड़ी खोलकर रखी और नाइट सुट डालकर सो गई। सुबह बड़े प्यार से साड़ी को तहकर रख ही रही थी कि चौंक गई। जहां उसने पिन लगाया था वहां से साड़ी थोड़ी कट गई थी, शायद भारीपन की वजह से। अब तो निशा को काटो तो खून नहीं। उसका पूरा मूड चौपट हो गया।
उसे बहुत ज्यादा परेशान देख मां से रहा ना गया।
“क्या बात है निशा? तू इतनी परेशान क्यों हैं, बेटा?”
“मम्मी, वो हो गया जो नहीं होना चाहिए!” निशा ने साड़ी वाली बात मां को बता दी।
“अरे इत्ती सी बात? वो चौराहे के बाद जो रिजवान है ना, इतनी अच्छा रफूगर है कि पूछ मत। मैंने भी अपनी एक दो साड़ी उससे रफू करवाई हैं। तू बता भी नहीं पाएगी कि कहां फटी थी साड़ी!” कहकर मां ने अपनी पेटी से निकालकर दो साड़ियां दिखाईं निशा को।
यकीनन, रफू काफी सफाई से की गई थी। ये देखकर निशा के चेहरे पर थोड़ी मुस्कान आई।
सासु मां की साड़ी भी बहुत खूबसूरती से रिजवान ने ठीक कर डाली। पता भी नहीं चल रहा था कि रफू है या नक्काशी।
वापस आकर सासु मां को साड़ी थमाते वक्त निशा ने पूरा खोलकर दिखा दिया। वो कहते हैं ना चोर की दाढ़ी में तिनका! सासु मां एक सरसरी निगाह डालकर साड़ी को निशा को ही उनकी अलमारी में रखने कहकर जाप करने चली गईं।
सब कुछ तो निपट गया था पर निशा के मन का चोर उसे चैन नहीं लेने दे रहा था। बार-बार लगता सासु मां को सच्चाई बताकर माफी मांग ले, पर फिर सोचती क्या पता वो क्या धारणा बना लें मन में? कहीं उनका भरोसा ना टूट जाए। पर लंबी मानसिक जद्दोजहद के बाद निशा का मन ना माना।
“मां, आपसे कुछ कहना था।”
“बोलो!”
“वो आपकी साड़ी… सेफ्टीपिन की वजह से थोड़ी सी कट गई थी। मैंने रफू तो करवा दिया बिल्कुल पता भी नहीं चलता कि कभी कटी भी थी, पर आपको बताए बिना मन नहीं मान रहा था…”, हिचकते हुए बोली निशा।
“तुम्हें क्या लगा बहू, मैं नहीं समझूँगी? जब तू मुझे खोल खोल कर साड़ी दिखा रही थी, मुझे आभास हो गया था कि कुछ तो गड़बड़ है। ये बाल अनुभव से सफेद हुए हैं बहू!”
“मैं समझती हूं। साड़ी बहुत भारी होने के साथ साथ पुरानी भी है। ऐसा होना स्वाभाविक सी बात है। पर कोई बात नहीं। मैं फिर भी खुश हूं!”
“खुश! क्यों मां?” निशा की आंखें आश्चर्य से फैल गईं।
“मेरी बहू ने साड़ी को तो रफू कराया, पर अपनी गलती को तो रफू करने की कोशिश नहीं की। ये बहुत अच्छा लगा मुझे। गलती करना या हो जाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं। पर गलती को मानकर उसका पछतावा होना बड़ी बात है, बजाय उस गलती को ढकने की कोशिश करने के।
तुमने स्वीकार किया। मुझे कोई दुख नहीं साड़ी का। वैसे भी है तो कपड़ा ही। दादाजी की यादें थोड़े ही फट सकती हैं मेरे मन से, कपड़ों की तो उम्र होती ही है। स्मृतियां चिरंजीवी होती हैं! कोई बात नहीं बहू। मन में कोई मलाल ना रखना। शायद मैं पहनती तो मुझसे भी फट सकती थी!” सासुमां की बातों से संतुष्ट होकर निशा कमरे से निकलने लगी।
“बहू!”
“जी मां?”
“जब मन करे मेरी कोई भी साड़ी या जेवर निकाल कर बिना पूछे पहन लेना। मुझे भी सीख मिली है। साड़ी कपड़े जेवर तो आते-जाते रहेंगे। रिश्ते और उनके बीच का प्रेम कहीं नहीं जाना चाहिए। गलतियां सीख भी तो दे जाती हैं। मैं बहुत खुश हूं कि मेरी बहू अपनी गलतियों को स्वीकारने की ताकत रखती है। वो अपनी गलतियों की रफूगर नहीं है। तो इनाम का भी तो हक बनता है ना उसका!”
निशा का उदास मन खिल उठा। अनजाने में हुई एक गलती ने अगले की सोच में छिपी गलती को संवार दिया था।
दोस्तों! कहते हैं न इंसान गलतियों का पुतला है। गलतियां तो होंगी ही और होती ही रहेंगी। पर अपनी गलतियों को स्वीकार करना ना केवल पछतावे को कम करता है, हमें अपने और औरों की नजरों में भी ऊंचा बनाता है!
आपको क्या लगता है? अवश्य बताएं!
इमेज सोर्स : Still from Durga Pujo, Tanishq via YouTube
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