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कहीं न कहीं मन में एक बात खटकी कि शादी के बाद महिलाओं का नाम क्यों बदलना पड़ता है? एक पहचान जो 25–30 साल में बनती है एकदम से शादी होते ही ख़तम क्यों?
“क्या बात है! मिसेज शर्मा, आप आजकल बड़ी व्यस्त नज़र आ रही हैं? दो दिन से रीना के घर भी नहीं आती?”
“जी मिसेज बत्रा, मैं तीन दिन के लिए शिमला जा रही हूँ!”
मैंने एकदम जोश से उत्तर दिया। अपनी आवाज़ की खनक मैं छुपा नहीं पाई।
मिसेज बत्रा ने मुझे गौर से देखते हुए कहा, “ओह,अच्छा जी फैमिली समर ट्रिप!”
“अरे नहीं मैं अकेले ही जा रही हूँ मेरे कॉलेज के फ्रेंड्स के साथ रीयूनियन का प्लान है।”
“अरे वाह जी वाह! बड़ी अच्छी बात है दोस्तों से मिलने की तो बात ही अलग होती है। आजकल रीयूनियन ट्रेंड में है। मुझे भी पिछले महीने अपने एक व्हाट्सएप ग्रुप से रीयूनियन का संदेश आया है, मैं भी सोच रही हूँ चली ही जाऊँ।”
“आप अच्छे से जाइये और हमारे लिए शाल लाना न भूलिएगा।” कहते हुए उन्होंने विदा ली।
मैंने भी घर आकर ब्यूटी पार्लर का अपॉइंटमेंट बुक करवा लिया और अगले ही दिन अपने चेहरे से लेकर ड्रेस तक सब पर पूरा दिन खर्च किया। आखिर इतने दिनों बाद सबसे मिलना जो होने वाला था।
शिमला पहुँच कर मैं सबसे मिलने के लिए बहुत ही ज्यादा एक्साइटेड थी। तीन दिन तक ऐसा लगा जैसे फिर से कॉलेज की अल्हड़ लड़की बन गई हूँ। मन करता रहा कि कुछ दिन और रुक जाऊँ पर वापस तो आना ही था तो अगले साल फिर मिलने का वादा कर निकली और स्टेशन पहुँची।
वापसी की ट्रेन में बैठी तो कुछ मन में चुभता सा रहा। मैं शालिनी जौहरी से शालिनी शर्मा बन गई थी, मेरी अन्य मित्र भी अपने-अपने बदले हुए सरनेम के साथ मुझे मिली थी और दो तो ऐसी थीं जिनके नाम भी बदल गए थे क्योंकि उनकी ससुराल में यही रिवाज़ था। उनको तो बुलाने में भी अजनबीपन लगता रहा था।
कहीं न कहीं मन में एक बात खटकी कि हम महिलाओं को ही सरनेम क्यों बदलने पड़ते हैं? एक पहचान जो 25–30 साल में बनती है एकदम से शादी होते ही ख़तम क्यों?
तो विचार मंथन का मुद्दा यही है कि शादी के बाद महिलाओं का उपनाम क्यों बदला जाता है?
क्या यह इतना आवश्यक है कि आज भी इसके बिना रहना बहुत मुश्किल है। तमाम झंझट हैं आज भी! क्या ये केवल पुरानी परंपरा का पालन मात्र है?
यदि महिलाओं को अपनी पारिवारिक एकात्मता के लिए इसका पालन करना पड़ता है तो शादी के बाद पति ऐसा क्यों नहीं करते हैं? क्या इसके पीछे कोई क़ानूनी मज़बूरी भी है?
हो सकता है कि सामाजिक परंपरा और कानूनी साध्यता के लिए उपनाम बदला जाता हो परंतु इसका धार्मिक आग्रह तो कहीं नहीं मिलता है।
हिंदू धर्म में पति-पत्नी जब सात वचन देते हैं तो कहीं भी नाम बदलने का कोई वचन नहीं है। हिंदू धर्म में विवाह के पश्चात पत्नी का गोत्र तो बदलता है, लेकिन उपनाम बदलने का कहीं कोई प्रमाण नहीं है।
जिन धर्मों में विवाह एक अनुबंध के रूप में है, वहाँ भी महिला के नाम या उपनाम को बदलने का कोई पुरातन नियम शायद ही हो। कुछ देशों में तो महिला के उपनाम को बदलने की क़ानूनी बाध्यता भी है, शादी के बाद उन्हें अपना उपनाम बदलना ही पड़ता है।
महिलाओं के उपनाम बदलने की परंपरा भारत वर्ष की तो नहीं लगती क्योंकि हमारे शास्त्रों में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता और सीता तक अपने पिता जनक के नाम से ही जानकी कही जाती रही हैं।
भारत में उपनाम रखने की परंपरा ब्रिटिश शासन के समय से लागू हुई क्योंकि लोग जब एक प्रांत से दूसरे प्रांतों में जाने लगे तब अपनी पहचान के लिए अपने नाम के साथ-साथ अपने पिता का और जाति या गाँव का नाम भी जोड़ने लगे और बाद में वही वंशानुगत हो गई।
मनुष्य की बढ़ती आबादी और लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान को जाना उपनाम रखने के पीछे बड़ा कारण है। जब आबादी कम थी तब पहचान आसानी से हो जाती थी, लेकिन जब एक ही नाम के अनेक व्यक्ति होने लगे तो उनकी अलग पहचान के लिए उपनाम जोड़ना भी आवश्यक हो गया।
उपनाम रखने के कारण तो समझ में आते हैं परंतु केवल महिलाओं के ही उपनाम या नाम क्यों बदले जाते हैं? विशेषकर महिलाओं को शादी के बाद उपनाम बदलना क्यों जरूरी हो गया?
विवाह के बाद लड़कियों को ही अपना छोड़ कर पति के घर जाना पड़ता है और अधिकतर परिवर्तन उनके जीवन में ही आते हैं और उपनाम बदलना भी उनमें से एक है। इसके पीछे मुख्य कारण तो पूरे परिवार को एक मानना है। एक ही उपनाम रखने से परिवार एक इकाई के समान प्रतीत होता है। उपनाम समाज में किसी भी परिवार की पहचान होता है। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री विवाह के बाद अपने पति और ससुराल का उपनाम अपना लेती है। कानूनी बाध्यता की आवश्यकता न होते हुए भी पारिवारिक इकाई की एकता इसका बड़ा कारण है।
पर एक बात तो तय है कि उपनाम बदलना स्वैच्छिक तो है पर आज के समाज में इस प्रकार समाहित हो गया है कि इसे न बदलने पर कई व्यावहारिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। सर्वप्रथम तो ऐसे परिवार के बच्चे कौन-सा उपनाम अपनाएँ और यदि घर में सभी अपनी इच्छा का उपनाम लिखेंगे तो अन्य कानूनी समस्या पैदा हो सकती हैं।
क्या आज भी समाज में नए उपनाम की उतनी ही आवश्यकता है? उपनाम वास्तव में पूरे परिवार को एकसूत्र में बाँध कर एक पहचान दिलवाता है। अब ये कितना सच है, ये और भी कई बातों पर निर्भर करता है लेकिन हम सब ये ज़रूर जानते हैं कि परिवार के उपनाम स्थायी और अपरिवर्तनीय होते हैं। उपनाम मनुष्य का ‘सामाजिक पता’ है, जिसके जरिए हमारे स्थायी पते की जानकारी सामाजिक विश्व में पता चलती है।
स्त्री की स्वतंत्र पहचान के बावजूद आज भी अधिकांश लड़कियाँ शादी के बाद पति का उपनाम स्वीकार करती हैं। हालांकि शादी से पहले तक उनकी शैक्षणिक, निजी और व्यावसायिक पहचान उनके मायके के उपनाम से होती है।
आजकल कई लड़कियां अपने पिता के उपनाम के साथ पति का भी उपनाम यानि दो सरनेम लगाती हैं। जिससे उनकी विवाह के पूर्व की और विवाह के बाद की दोनों पहचान बनी रहे। आज के समय में बहुत महिलाएं शादी के बाद महिलाओं का नाम बदलने की प्रथा को नहीं भी मानतीं। और उनको आज भी जिन प्रश्नों का सामना करना पड़ता है, लेकिन उसे आज यहीं छोड़ देते हैं।
आज सिर्फ इतना कि उपनाम बदलने का चलन क्यों शुरू हुआ?
लेकिन मुझे भी यही लगता है कि उपनाम बदलने का निर्णय महिलाओं का किसी दबाव के तहत न होकर स्वेच्छिक ज़रूर होना चाहिए। आपको क्या लगता है?
इमेज सोर्स : Vivek from Pexels via Canva Pro
I am Shalini Verma ,first of all My identity is that I am a strong woman ,by profession I am a teacher and by hobbies I am a fashion designer,blogger ,poetess and Writer . मैं सोचती बहुत हूँ , विचारों का एक बवंडर सा मेरे दिमाग में हर समय चलता है और जैसे बादल पूरे भर जाते हैं तो फिर बरस जाते हैं मेरे साथ भी बिलकुल वैसा ही होता है ।अपने विचारों को ,उस अंतर्द्वंद्व को अपनी लेखनी से काग़ज़ पर उकेरने लगती हूँ । समाज के हर दबे तबके के बारे में लिखना चाहती हूँ ,फिर वह चाहे सदियों से दबे कुचले कोई भी वर्ग हों मेरी लेखनी के माध्यम से विचारधारा में परिवर्तन लाना चाहती हूँ l दिखाई देते या अनदेखे भेदभाव हों ,महिलाओं के साथ होते अन्याय न कहीं मेरे मन में एक क्षुब्ध भाव भर देते हैं | read more...
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