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शादी के बाद सुगंधा ससुराल गयी, तो वहाँ कभी खाना मिलता तो कभी नहीं, कभी ये नहीं तो कभी वो नहीं। घर की माली हालात अच्छी न थी।
सही कहा जाता है मन के जीते जीत, मन के हारे हार है।
यह ज़िंदगी एक युद्ध का मैदान, या यूं कहें, रंगमंच यहाँ, आपको सारथी भी बनना है, योद्धा भी, रथ भी, और सशत्र भी खुद ही बनना पड़ता है।
सुगंधा की शादी रोहन से 2003 में हुई। पता नहीं मम्मी-पापा ने क्या देखकर उसकी शादी कराई थी। लड़का देखने से ही बीमार लगता था। जो हो, थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी थी गाँव में। और मैट्रिक पास था लड़का। अपने माँ-बाप की बदौलत, सुगंधा भी सिर्फ पाँचवी-छठी तक ही पढ़ी-लिखी थी।
अरे माँ- बाप ही जिसका भला न सोचेंगे, उनका दुनिया में क्या भला होगा?
शादी के बाद सुगंधा ससुराल गयी, तो वहाँ कभी खाना मिलता तो कभी नहीं, कभी ये नहीं तो कभी वो नहीं। घर की माली हालात अच्छी न थी। सुगंधा, जैसे-तैसे खाना बनाती, पर वह कुंठित और चिड़चिड़ी रहने लगी। उसे आगे कुछ समझ न आ रहा था।
शादी हो गयी, ऐसे घर में जहाँ, ठीक से खाना भी न मिल पाता। माँ-बाप तो शादी कर निश्चिंत हो गये, जैसे मैं ही सबसे बड़ी भार थी? आखिर यह जिंदगी कैसे गुजरेगी?
पति को भी नजदीक से जाना तो लगा बहुत सीधे या यूँ कहें मंदबुद्धि थे। अब कैसे दिन कटे, कैसे निभे?
सास-ससुर, पति, वह हैं तो भोजन आदि में समस्या आ जाती है, परिवार बढ़ेगा तो? कैसे पुरेगा, सोच-सोच कर सुगंधा परेशान रहती। किसी काम में भी मन न लगता। वह सोचती कौन पार लगाएगा उसके जीवन की नैया?
वह अपने पति से कहती कि काम-धंधा करने पर पति की क्षमता ज़्यादा न थी, आखिर कैसे कमायेंगे? धीरे-धीरे सुगंधा ने खुद काम करने की सोची। पर गाँव में क्या, कौन-काम करेगी?
समाज का विश्वास, भले घर की बेटी, दूसरे के घरों में चौका-बर्तन करेगी? और पढ़ी-लिखी तो ज्यादा थी नहीं जो टयूशन पढ़ा लेती।
समय किसी तरह गुजरते जा रहा था। लगभग जैसे-तैसे दो साल गुजर गये, पर स्तिथि में कुछ सुधार न हुआ, और समस्या बढ़ती गयी।
वह गाँव के कुछ लोगों को देखती थी, दिल्ली-पंजाब आदि जाकर काम करते हुए। उसने यह भी सुना था कि वहाँ महिलाओं को भी हर तरह के काम मिल जाते हैं। उसने अपने पति से कहा, “यहाँ पेट नहीं भर रहा है। हम लोग के बच्चे होंगे, फिर भरण-पोषण और मुश्किल हो जायेगा। चलिए दूसरे शहर वहाँ, आपको भी कोई न कोई आसान काम मिल जायेगा, औए मुझे भी।”
सास-ससुर को मनाने लगी कि वहाँ से आपके लिए भी पैसे भेजेंगे। मैं इनका वहाँ ख्याल रखूँगी। कमाना बहुत जरूरी है, वरना दिन-ब-दिन हालत बद से बदतर होती जायेगी। परिवार बढ़ेगा तो, और दिक्कतें होंगी।
सास-ससुर ने कहा, “भले घर की बहुएं बाहर जाकर काम न करती हैं और वहाँ करोगी क्या?”
पर सुगंधा ने अनुमति ले ही ली। गाँव के कुछ लोग दिल्ली, जा रहे थे। अपने जेवर को गिरवी रखकर कुछ पैसे जोड़े। कपड़े आदि साथ लिए और पति के साथ दिल्ली जाने के लिए उन्हीं लोगों के साथ चली गयी।
वहाँ जाकर उसे पता चला कि वह माँ बनने वाली है। बहुत परेशानी हुयी, कुछ भी करने का मन न करता। कोई तो समझदार आदमी साथ हो, ऐसा ही लगता। नयी जगह, नया वातावरण, सीधा पति, और प्रेग्नेंसी का समय, बेचारी को लगता, “आकाश से टपकी, खजुर पर अटकी। मैं समस्या के लिए ही जन्मी हूँ! जहाँ जाऊं समस्या पीछा न छोड़ती। मैंने सोचा था, कुछ दिन काम कर कुछ पैसे कमा लूंगी। पर मेरा तो उठने का भी मन न करता है।”
बेचारी के मन के भाव खुद उसे परेशान करते। फिर वह एक दिन बाद, गाँव के ही दूर के चाचा जी से मिली, और किसी सोसाइटी में अपने पति को गार्ड के रूप में काम पर लगवा दिया। कुछ ज़्यादा नहीं करना था उसे, बस गेट पर पहरा देना था। बेचारा, दिन में सोता, रात में ड्यूटी करता।
यहाँ एक छोटी सी झुग्गी, चाचा ने कम दर पर दी। कुछ बर्तन आदि भी चाचा ने दे दिए। कुछ सेकेंड-हैंड चाचा ने ही दिलवा दिया। सुगंधा समय से पति को डयूटी भेजने लगी। खाना आदि समय पर बनाती, कपड़ा सब भी तैयार रखती। उनको मासिक तनख्वाह इतनी हो जाती थी कि दोनों का पेट भर जाये। वह भी एकाध महीने बाद कुछ पार्ट टाइम काम करने लगी। बोतल, ढक्कन, पाइप आदि छोटी-छोटी कंपनियां घरों में ही काम दे जाती हैं और गिनती के हिसाब से पैसे देती हैं। वह वही करती और अपने ससुराल भी कुछ कभी-कभी पैसे भेजने लगी।
इस तरह समय गुजरने लगा। धीरे-धीरे कुछ पैसे जुड़ने लगे। पर्व-त्योहार में गाँव भी आते वह। फिर उसने एक बेटी को जन्म दिया। पति लगातार काम करते रहे। वह ईमानदार थे तो लोग उनकी कम बुद्धि को जानते हुए भी, काम पर रखे थे। अब सुगंधा को खाने-पीने की कमी न होती। वह भी पार्ट-टाइम काम हमेशा करते रही।
मायके वाले को तो पहले जरा भी भान न था, पर अब कभी-कभी माँ-भाई भी पूछने लगे उसे। फिर कुछ दिन बाद एक बेटी और, और तीसरा बेटा हुआ। उनकी माली हालत सुधर रही थी अब।
फिर उसने सोचा क्यों ना अपने पति का इलाज कराया जाए। अच्छे डॉक्टर का पता कर, उसने अपने पति का भी ईलाज करवाया। कुछ सुधार हुआ। आगे बच्चे भी अच्छे स्कूल में जाने लगे। और वह फुल टाइम काम करने लगी वह।
अब वह स्पोर्ट्स में काम करने लगी थी और सेलरी भी काफी अच्छी थी अब। शहर में रहने से, लोगों से मिलने-जुलने से उसका आत्मविश्वास भी काफी बढ़ गया था।
बेटियां पढ़ाई में काफी अच्छी है उसकी। उनके रहन-सहन, परवरिश में कोई कमी नहीं आने देती सुगंधा। अब वह लगातार, काम करती है और पति भी ठीक-ठाक कमा लेते हैं। उसने अपना छोटा सा घर भी शहर में ले लिया है।
मैं जब पिछले साल मिली तो मैं आश्चर्यचकित हो गयी। पिछले हालत को जानती थी मैं, कितनी दयनीय स्तिथि थी उसकी, और आज बच्चे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं, अपना घर, कुछ बैंक-बैलेंस, स्तिथि काफी बेहतर हो गयी थी।
इतना बदलाव..??
किसने सहयोग दिया, कैसे?
उसने कहा, “बहन, माँ-बाप ने तो बचपन से ही कभी मेरे भविष्य के बारे में सोचा नहीं। ज़िंदगी के युद्ध में बिना शिक्षा का शस्त्र दिए, अकेले ही एक अंधकारयुक्त भविष्य की और धकेल दिया। और ससुराल भी एकदम असन्तुलित मिला। पति भी सहयोगी कम, निर्भर ज्यादा हो गये। मुझे तो महाभारत से भी ज्यादा दुःख नजर आने लगा था अपने जीवन में। जहाँ न कोई कृष्ण, और न ही मैं, अर्जुन बन पा रही थी।
पर मैं जिंदगी की जंग जीतना चाहती थी, जहाँ मैं ही कृष्ण बनी, मैं ही अर्जुन। खुद ही उठा लिया अपनी जिंदगी का सारा बीड़ा और आज एक सुखद मोड़ पर है ज़िंदगी। इस बेहतर ज़िंदगी में मेरा विश्वास और ऊपरवाले का साथ है।”
“सलाम है तेरे जज्बे को सुगंधा! तेरी परेशानियों को, तेरे हौसलों के सामने झुकना ही पड़ा। आखिर बीत ही गये तेरी समझ से तेरे दुःख के दिन। तुम बहुत बहादुर हो जो अकेले, अर्जुन भी हो और कृष्ण भी, अपने जीवन के रण में।” मेरे मुँह से खुद ब खुद ये शब्द निकल गए।
सच बात है, ज़िंदगी की जंग जीतनी हो तो, खुद कृष्ण और खुद अर्जुन बनना पड़ता है।
मूल चित्र : Still from short film Arranged Marriage/ContentkaKeeda, YouTube
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