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अबादी बानो बेगम उर्फ़ बी अम्मा, बी अम्मन के नाम से भी जानी जाती थीं। वह पहली मुस्लिम महिलाओं में से एक थीं जिन्होंने सक्रिय रूप से राजनीति में भाग लिया।
औपनिवेशिक दौर के भारत में महिलाओं की आत्मकथाओं से धूल झाड़ने पर सबसे पहला एहसास यहीं आता कि उनमें पढ़ने-लिखने की गज़ब की चाहत थी। कुछ महिलाएं इल्म पाने के देहरीयों को इसलिए लांघ पाई क्योंकि परिवार आर्थिक रूप से समृद्ध था या फिर जिन पुरुषों को उनके जीवनसाथी के रूप में चुना गया था वह लिख-लोढ़ा पर पत्थर वाली पत्नियां नहीं चाहते थे, उन्होंने पढ़ने-लिखने की गज़ब की चाहत करने का प्रयास किया। महिलाओं का एक बड़ा समूह इसलिए शिक्षित नहीं हो सकी, क्योंकि पढ़ना-लिखना महिलाओं का काम नहीं समझा गया।
कुछ महिलाएं वह थी जिनको शिक्षित होने का मौका नहीं मिला, पर उनकी सोच अपने समय से बहुत आगे थी। उनमें से एक थी “बी अम्मा”, जिनको इतिहास के पन्नों में अबादी बानो बेगम के नाम से पहचाना जाता है। मुस्लिम समाज में “बी अम्मा” का नाम बड़े अदब से लिया जाता है क्योंकि वह पहली मुस्लिम महिला थी जिन्होंने मूल्क के खुदमुख्तारी के लिए तमाम राजनीतिक गतिविधियों में न केवल भाग लिया, दूसरों को प्रेरित भी किया। वह शायद पहली मुस्लिम महिला होगी जो अपने शौहर और बेटों अली बंधुओं मौलाना शौकत अली और मौलाना मुहम्मद अली जौहर के मां के बरक्स अपनी खुदमुख्तार नाम अबादी बानो बेगम के साथ-साथ बी अम्मा के नाम से पहचानी गई।
देश के सबसे पहले स्वाधीनता संग्राम 1857 के क्रांति से महज़ सात साल पहले सन1850 में हुआ। उस दौर में बेटियों के जन्म की तारीख याद रखने का रिवाज़ न था तो बी अम्मां के जन्म के तारिख के बारे में कोई जानकारी नहीं है। गदर के आंदोलन में उनके परिवार शामिल हुआ था इसलिए शुरूआती समय अबादी बेगम में कुछ खास नहीं गुज़रे।
शौहर अब्दुल अली खान जो रामपुर रियासत में बड़े ओहदे पर नौकरी करते थे तो बाकी जीवन ठीकठाक तरीके से बीता, वह भी थोड़े से समय तक ही। शौहर प्रगतिपसंद ख्याल के थे तो अबादी को पढ़े-लिखे न होने पर अधिक तकतीफ नहीं हुई। पर वो थी अंग्रेजी शिक्षा की प्रबल समर्थक इसलिए बच्चों की तालिम आधुनिक तरीकों से करवाने के लिए जेवरों को गिरवी रखने तक से परहेज़ नहीं किया। बच्चों ने भी अलीगढ़ से आक्सफोर्ड तक का सफर सहाफत के लिए तय किया। बच्चों के पढ़ाई-लिखाई और परवरिश में राष्ट्रवादी तालीम पर विशेष ध्यान बी अम्मा ने दिया। अबादी बेगम छोटी सी उम्र में विधवा हुई और बी अम्मा बन गई।
एनी बेसेंट जब अपने दो बेटों के साथ जेल में बंद थी तब 1917 में अबादी बेगम सक्रिय भूमिका में जो आई, लौटकर घर के देहरी वापस नहीं गई। महात्मा गांधी ने बी अम्मा को महिलाओं को आजादी की लड़ाई से जुड़ने को कहा और बी अम्मा जुट गईं इस काम में। गांधीजी के साथ जुड़कर खिलाफत आंदोलन में भाग लिया।
मुस्लिम समुदाय में पहली महिला राजनेता होने के कारण बीअम्मां के जिम्मे कई तरह की जिम्मेदारी थी, जिसको निभाने में उन्होंने पर्दा प्रथा को बांधा नहीं बनने दिया। पर्दे में रहकर ही बड़ी-बड़ी सभाओं में शिरक्त करना और पर्दानशी महिलाओं को आज़ादी के जंग से जोड़ देने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी। यही नहीं बी अम्मां इस मुल्क में गंगा-जमुनी तह़जीब की पहली ईट कहीं जाए तो गलत नहीं होगा। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम दोनों कोमों को भारत की दो आंखे कहा और आजादी के लड़ाई में हिंदु-मुस्लिम एकता की पहरेदार बन गई।
महिलाओं के मताधिकार के सवाल पर मुस्लिम महिलाओं का पक्ष रखना और मुस्लिम महिलाओं की तालिम के लिए प्रयास करने में उनकी भूमिका यादगार रही। अबादी बेगम के बेटे को जब सजा हुई तो यह अफवाह फैला दी गई कि उन्होंने अंग्रेज सरकार से माफी मांग ली इसलिए उनको छोड़ा जा रहा है। बी अम्मा ने कहा कि पहले तो मेरे बेटे सरकार से माफी मांगेगे नहीं पर अगर उन्होंने यह किया है तो मेरे बूढ़े हाथों में अभी इतना दम है कि मैं उनका गला दबा सकती हूं।
13 नवबंर 1924 को देश के खुदमुख्तार होने के तीन दशक पहले ही बी अम्मा ने अपनी आंखे बंद कर ली, पर हिंदू-मुस्लिम एकता की जो ईट उन्होंने रखी और मुस्लिम महिलाओं में एक खुदमुख्तार मूल्क की जो तस्वीर पेश की, उनको कभी भूलने नहीं देगा।
इमेज सोर्स: Twitter/Wikipedia
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