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अगर बेटे के बाद बेटी चाहना ठीक है तो बेटी के बाद बेटा चाहना गलत कैसे?

समाज की ये सोच बड़ी दोगली लगती शुभ्रा को, दो बेटे वाला इंसान अगर बेटी की इच्छा से तीसरा बच्चा करे तो उसे महानता का खिताब मिलता है...

समाज की ये सोच बड़ी दोगली लगती शुभ्रा को, दो बेटे वाला इंसान अगर बेटी की इच्छा से तीसरा बच्चा करे तो उसे महानता का खिताब मिलता है …

“जाने क्यों खरीद लिया मैंने ये कान्हा वाला ड्रेस? अब तो शायद ये अरमान अगले जन्म ही पूरे हों…”

अलमारी से रजत के कपड़े निकालते वक्त शुभ्रा की नजर कान्हा कास्ट्यूम पर पड़ी जिसे कुछ दिन पहले बाजार में टंगा देख, जरूरत ना होने के बाद भी उसका मन ना माना और उसने उसे खरीद कर रख लिया।

रजत के वाॅक पर निकलने के बाद शुभ्रा बैठी तो सोचने लगी अक्सर इंसान सोचता कुछ है और होता कुछ और है। तीसरे बच्चे का निर्णय लेते-लेते तीन साल हो गए पर किसी निष्कर्ष पर ना पहुंच पाई। भले पति ने भी इस निर्णय में उसका साथ छोड़ दिया हो, पर निगोड़े अरमानों ने एक पल के लिए भी उसका साथ नहीं छोड़ा।

दो बेटियों के बाद भी शुभ्रा की इच्छा थी कि उसका एक बेटा हो। जिसके पीछे वंश वृद्धि, पितृसत्तात्मक सोच बिल्कुल भी नहीं थी, बस एक प्यारी से चाह थी। अरमान था। एक ख्वाहिश थी कि एक कान्हा उसकी भी गोदी में खेले।

समाज की ये सोच बड़ी दोगली लगती शुभ्रा को, दो बेटे वाला इंसान अगर बेटी की इच्छा से तीसरा बच्चा करे तो उसे महानता का खिताब या अच्छी सोच का पदक मिलता है, वहीं अगर दो बेटियों वाला आदमी, बेटे की खातिर तीसरा बच्चा सोचे तो उसे पिछड़ा, दक़ियानूसी और ना जाने क्या क्या उपाधियां दे देते हैं लोग।

बेटी के बाद बेटे की इच्छा को क्यों लोग अच्छा दृष्टिकोण नहीं दे पाते, ये मेरी समझ से परे है। मां के लिए उसकी हर संतान बराबर होती है, पर बेटी चाहने वाले को उदारवादी और बेटे की इच्छा रखने को हर बार लिंगभेद समर्थक करार देना भी तो कहीं से उचित नहीं है।

डाक्टर भी पूछते, “दो बच्चे हैं ही, तो तीसरा क्यों? बेटे की खातिर? कब सुधरेंगे हम? बेटियों पर भरोसा नहीं? क्या नहीं कर सकती लड़कियां?”

जानती हूं सब कर सकती हैं और मेरी बेटियां भी करेंगी। पर मेरे बेटे की इच्छा रखने से बेटियों की क्षमता पर शक का सवाल कहां आता है?

शुभ्रा का जी करता चीख चीखकर बोले पर उंगली रख लेती होंठो पर।

बगलवाली ने कहा, “तीसरा चांस लेना हो, तो परीक्षण तो करवाना ही होगा।”

बगलवाली क्या सब यही सोचते होंगे। अब जवाब किसको किसको देती फिरे कि हां वो अपने लिए एक बेटा चाहती है! हां उसे अपनी इस इच्छा से प्यार है! पर भला उसके प्यार का वो फूल उसी की रक्तरंजित जमीं पर कैसे उग सकता है? वो नसीब पर तो फिर भी आंख मूंद कर भरोसा कर सकती है, पर मानवता के प्रति अंधी कैसे हो जाए भला?

शुभ्रा जानती थी कि उसे “तीसरे” की सलाह देने वाले लोग कल को बेटी हुई तो फिर सहानुभूति देने आ जाएंगे और यही बोलेंगे, “अच्छा कोई बात नहीं, बेटियां “भी” तो आजकल बेटों से कम नहीं हैं।”

इस “भी” से ही तो चिढ़ मचती थी शुभ्रा को।

शुभ्रा सब जानती समझती है। संतान की अच्छी परवरिश, पति की व्यस्तता, खुद की देखभाल, भागती दौड़ती जिंदगी, जिम्मेदारियों का बोझ, इनमें से कोई भी उसके इस शौक को अमलीजामा पहनाने की इजाजत नहीं देते। उस पर से इतने सारे “अगर-मगर” तो क्या सच में अगले जन्म में पूरी होगी उसकी ये ख्वाहिश? कान्हा उसके नसीब में ही नहीं है क्या?

सांझ की पूजा बेला होती देख, अपनी सोच को विराम देकर शुभ्रा हाथ पैर धोकर दीपक में बाती करने लगी। तभी बाहर से खेलकर दोनों बेटियां घर आईं। काफी खुश थी दोनों और शुभ्रा को कुछ बताने दौड़ीं।

“मम्मा आपको पता है, सोसायटी में कल जन्माष्टमी की पूजा है!” आठ साल की बेटी चारू बोली।

“हां बच्चे, हम घर पर भी पूजा करेंगे”, शुभ्रा ने तैयारियां करते-करते ही जवाब दिया।

“मां, पूजा में एक फंक्शन भी है, जिसमें अरू को कान्हा बनाया जाएगा। पता है बहुत सारे बच्चों में अरू का ही सलेक्शन कृष्ण के लिए हुआ है और बाकियों का राधा और गोपियों में। मैं भी गोपी बनूंगी मम्मा। अभी कुछ आंटिया मिलने आएंगी आपसे बात करने के लिए”, चारू ने जोड़ा।

अरू का नटखटपना, उसके घुंघराले केश, बड़े बड़े कमल जैसे नैन, लालिमायुक्त ओंठो की शरारत करने के बाद की वो मनमोहनी मुस्कान, दुध दही के प्रति वो पागलपन, वो पूजा में रखी मिश्री के डब्बे से निकालकर भर मुट्ठी मिश्री मुंह में रख लेना और आकर खुद मासुमियत से बताना  मैंने बड़ी चीनी (मिश्री) नहीं खाई मम्मा, वो हुड़दंगपना और निर्भीकता… शुभ्रा ने शायद पहली बार अपनी चार साल की बेटी को उस नजरिए से देखा, जिस रूप को पाने के लिए उसकी आत्मा जाने कब से तड़प रही थी।

‘आपने तो कान्हा मेरी गोदी में पहले ही डाल दिया था प्रभु। बस उसे देख पाने वाली दिव्य दृष्टि अभी दी है! और मैं मुर्खा अपने भाग्य को कोसती फिर रही थी अब तक! कान्हा तो भाव है, एहसास है! लड़का या लड़की का भेदभाव नहीं!’

आरती की घंटी बजा रही शुभ्रा की मानों कब की बंद पड़ी मन की आंखें  खुल गई थीं। उसका कान्हा मिल गया आज उसे। उसका कान्हा कास्ट्यूम भी खरीदना भी शायद ऊपरवाले का ही इशारा था कि कान्हा ने उसे अगले जन्म का इंतजार नहीं कराया।

दोस्तों, अक्सर हम वही देखते हैं जो देखना चाहते हैं या जो हमें दिखाया जाता है, जबकि हमारी कई इच्छाओं की मंज़िल हमारे आसपास ही होती है, पर अज्ञानतावश हम वहां तक नहीं पहुंच पाते। वो कहते हैं ना गोद में बालक शहर में ढिंढोरा, कुछ ऐसी ही है आज की भी ये कहानी। पढ़ें और बताएं आपको कैसी लगी…!

इमेज सोर्स: Still from Gajar Ka Halwa/Ruma Mondal, YouTube

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