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पद्मश्री तुलसी गौड़ा हैं वैश्विव पर्यावरण संरक्षण नीतियों के मुँह पर एक करारा जवाब

ये समझने की कोशिश करें, विश्व स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के दावे और घोषणाएं पद्मश्री तुलसी गौढ़ा जैसे पर्यावरण संरक्षकों के आगे बौना हैं। 

ये समझने की कोशिश करें, विश्व स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के दावे और घोषणाएं पद्मश्री तुलसी गौढ़ा जैसे पर्यावरण संरक्षकों के आगे बौना हैं। 

नंगे पैर आदिवासी समुदाय की पर्यावरण संरक्षक तुलसी गौड़ा पद्म श्री पुरस्कार लेने भारतीय लोकतंत्र के सर्वोच्च भवन राष्ट्रपति भवन के सीढ़ियों को लांघ कर पहुंची। तब मुख्यधारा मीडिया और तथाकथित सभ्य कहे जाने वाला समाज चौक पड़ा। चौंकने वाला यह समाज यह भी नहीं जानना चाहता कि विकास के नायाब कीर्तिमान गढ़ने वाले देश में अधिकाश आदिवासी महिलाओं के पैर में चप्पल है ही नहीं और उनका इसको कोइ मलाल नहीं है

वैसे चौंकना तो बनता ही है क्योंकि आधुनिक और विकसित होता समाज जिस तरह पर्यावरण संसाधनों को दोहन करके आधुनिक विकास के नये आयाम गढ़ना चाह रहा है, वहां कर्नाटक की 72 वर्षीय तुलसी गौड़ा पिछले छह दशकों से 30 हज़ार से ज़्यादा पेड़-पौधे लगाकर अपने समुदाय, समाज और देश के हितों का संरक्षण कर रही हैं।

मात्र 10 साल की उम्र से तुलसी अम्मा पर्यावरण संरक्षण का काम कर रही हैं और अपना पूरा जीवन उन्होंने प्रकृति की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया है।

कर्नाटक के इलाकों में ही नहीं आस-पास के राज्यों के सीमाओं को पार करते हुए वैश्विक पटल पर जंगलों की इनसाइक्लोपीडिया के नाम से मशहूर तुसली गौड़ा पर पद्मश्री सम्मान मिलने के बाद भले ही पूरी दुनिया के लोग जान रहे हैं, परंतु, भारतीय आदिवासी समुदाय का जीवन पर्यावरण पर ही आश्रित है, यह एक अकाट्य सत्य है। वहाँ एक नहीं कई तुलसी गौढ़ा मौजूद हैं।

आदिवासी समुदाय और प्रकृति एक-दूसरे की परछाई: अकेली नहीं हैं पद्मश्री तुलसी गौड़ा (Forest Encyclopedia Tulsi Gowda)

आदिवासी समुदाय और प्रकृति एक-दूसरे की परछाई हैं। वह यह जानते है कि प्रकृति को जिंदा रखना स्वयं को जिंदा रखना है। इसलिए स्वयं के जीवन के लिए आदिवासी प्रकृत्ति को जीवित रखने के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं। इसका एक विपुल इतिहास है।

प्रकृति का जतन करना कृषि आधारित सभ्यता-संस्कृति का मूल रहा है। जिसका मात्र आध्यात्मिक या आसान शब्दों का सहारा लूं तो आस्थावान स्वरूप ही हमारी जीवन शैली या सामाजिक जीवन में बचा हुआ है। परंतु आदिवासी समुदाय प्रकृति के प्रति आस्था और अपने जीवन शैली से कभी मुक्त किया ही नहीं, वह आज भी अपने तमाम जरूरतों के लिए प्रकृत्ति पर ही निर्भर है। प्रकृति से उनको विलग करने की कोशिश ही भारतीय लोकतंत्र में गहरे तनाव का कारण बनता रहा है।

भारत ही नहीं विश्व के तमाम देश जितना जल्दी यह समझ लें, कि विकास के दौड़ में आदिवासियों को जंगल, पहाड़ और नदियों से बेदखल करना गलत है, उनके लिए अच्छा रहेगा। पूरी दुनिया को यह भी समझने होगा कि विकास के प्रतिमान बने बड़ी-बड़ी इमारतों के टैरेस पर गमले में चंद पौधे लगाकर आप प्रकृति का छोटा सा सान्निध्य पा सकते हैं, परंतु यह छोटा सा प्रकृति प्रेम पर्यावरण संरक्षण के दिशा में दूर की कौड़ी लाने के बराबर है।

पढ़ने लिखने की चाह रखने वाली पद्मश्री तुलसी गौढ़ा आर्थिक बदहाली के कारण पढ़ नहीं सकीं। अपनी मां और बहनों के साथ जीवन जीने के जद्दोजेहद में उन्होंने पेड़-पौधे लगाने का जो सफर शुरू किया अपनी मासूम से उम्र में, उसने उनको राज्यों से सम्मानित करते हुए, राष्ट्रपति के दहलीज पर ही नहीं, वैश्विव स्तर पर विश्व-पर्यावरण-संरक्षण के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है।

उनकी उपस्थिति मात्र तमाम पढ़े-लिखे समझदार और पर्यावरण संरक्षण के लिए वैश्विक आयोजन करने वालों के मुंह पर करारा तमाचा सरीखा है, जो बार-बार कह रहा है मानवीय जीवन को प्रकृति से विलग करना ही प्रकृति और पर्यावरण विनाश के तरफ बढ़ता हुआ कदम है।

पूरे विश्व को आज लाखों तुलसी गौढ़ा की आवश्यकता है, उनकी उपस्थिति से ही पर्यावरण संरक्षण का नया पुर्नपाठ कर सकती है और नई परिभाषाओं को गढ़ सकती है। विश्व स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के दावे और घोषणाएं पद्मश्री तुलसी गौड़ा जैसे पर्यावरण संरक्षक महिलाओं के आगे बौना है।

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