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हिंदी लेखिका मन्नू भंडारी: संस्कारों से मुक्ति स्त्री मुक्ति का पहला और अनिवार्य क़दम

हिंदी लेखिका मन्नू भंडारी: सबसे बड़ा बंधन स्त्रियों के लिए संस्कारों से मुक्ति का है। संस्कारों से मुक्ति स्त्री मुक्ति का पहला और अनिवार्य क़दम है। 

हिंदी लेखिका मन्नू भंडारी का मानना था कि सबसे बड़ा बंधन अगर स्त्रियों के लिए कोई है तो वह संस्कारों से मुक्ति का है। संस्कारों से मुक्ति ही स्त्री मुक्ति का पहला और अनिवार्य क़दम है। 

हिंदी साहित्य की जानी-मानी लेखिका मन्नु भंडारी पिछले कुछ दिनों से अस्पताल में भर्ती थीं और 15 नवम्बर 2021, सोमवार को उन्होंने इस दुनियां से विदा ले ली। मन्नु भंडारी जी को सबसे पहले मैंने 9वीं में पढ़ा था।

 हिंदी क्षितिज की किताब का चौदहवां अद्याय जिसका नाम था ‘एक कहानी यह भी’… 

एक कहानी यह भी में मन्नू भंडारी ने अपनी किशोरावस्था से जुड़ी घटनाओं के बारे बताया है। कैसे एक साधारण सी लड़की असाधारण बनने की पहली सीढ़ी चढ़ती है और कैसे वो आज़ादी की लड़ाई में भाग लेती है। मन्नू भंडारी के जीवन से जुड़ी इन घटनाओं को उन्होंने बड़ी ही सरलता और खूबसूरती से प्रकट किया है।

उनकी कहानियों की यह खासियत होती है कि वे बड़ी ही सरलता से अपने पाठकों को कहानी के अंत तक बांधे रखती है और उनकी कहानियां समाज के गंभीर विषयों पर सरलतापूर्वक एक गहरी चोट करने की काबिलियत रखती हैं। उनकी कहानियों में स्त्रियां लाचार, बेबस और कमज़ोर नहीं दिखती थीं। उनकी कहानियां समाज की उन स्त्रियों की आवाज़ होती थी जो कभी बोल नहीं पाईं या जो सही-गलत के भवर जाल में फसी रहती थीं। 

मन्नू जी की कहानियां पढ़ने के बाद लगता है कि ये कहानियां कितनी सच हैं।

हर नज़्म ख़ामोशी की औलाद होती है…

मन्नू भंडारी कहती हैं कि – “मैंने अपनी पीड़ा किसी को नहीं बताई क्योंकि मेरा मानना है कि व्यक्ति में इतनी ताकत हमेशा होनी चाहिए कि अपने दुख अपने संघर्षों से अकेले जूझ सके।” 

शायद इन्हीं दुखों और संघर्षों से जूझते हुए मन्नू जी ने लिखना चुना था।

1931 में भानपुरा , मंदसौर (मध्यप्रदेश) में इनका जन्म हुआ पर इनकी पढ़ाई-लिखाई अजमेर(राजस्थान) में हुई थी। इन्होंने  दिल्ली के मिरांडा हाउस कॉलेज में कई वर्षों तक अध्यापन कार्य किया फिर वहाँ से अवकाश लेने के बाद कई वर्षों से स्वतंत्र लेखन में सक्रिय थीं।

उपन्यास, कहानी संग्रह लिखने के अलावा मन्नू जी ने फ़िल्म एवं टेलीविजन धारावाहिकों के लिए पटकथाएं भी लिखीं हैं।

एक प्लेट सैलाब, मैं हार गई, यही सच है, त्रिशंकु (कहानी -संग्रह) और आपका बंटी, महाभोज जैसे उपन्यास उनके ही हैं।

आपका बंटी सिर्फ एक ऐसे बच्चे की कहानी नहीं है जिसके माँ-बाप तलाक ले चुके हैं और वो खुद को वांछित महसूस कर रहा है बल्कि बंटी की माँ शकुन की भी कहानी है। 

मन्नू जी का मानना था कि समाज में स्त्री से जुड़े जो भी सकारात्मक परिवर्तन हुए हैं और जो उनके जीवन में हम सबको दिखते हैं, उनमें स्त्रीवादी का रत्ती भर भी योगदान नहीं है। उनका मानना था कि ये समाज की गति से उपजे हुए हैं भले ही यह गति मंथर रही हो। लड़कियों ने शिक्षा लेनी शुरू की, फिर अपनी मर्ज़ी से विवाह भी करने लगीं, शहरों में अकेले रहने लगीं।

स्त्री की इस बदलती स्थिति का प्रभाव उन्होंने अपने जीवन और समाज में महसूस किया और उस पर कहानियां भी लिखीं। इससे सबको लगता है कि उनका जीवन एक स्त्रीवादी जीवन है पर वे फिर कहती हैं कि स्त्रीवाद से स्त्री की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया

बीबीसी की एक इंटरव्यू में वो कहती हैं, “निश्चित रूप से स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन तो आया है और यह परिवर्तन महानगरो और नगरों तक बहुत स्पष्ट रूप से देखा भी जा सकता है। लेकिन दूरदराज़ के गांवो में आज भी स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं है। आज स्त्री विमर्श के नाम पर नारेबाज़ी हो रही है कि देह की मुक्ति ही स्त्री की मुक्ति है वगैरह-वगैरह। मैं यह नहीं मानती। मेरा मानना है कि सबसे बड़ा बंधन अगर स्त्रियों के लिए कोई है तो वह संस्कारों से मुक्ति का है। मैंने ऐसी स्त्रियों को देखा है जो आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं लेकिन कोई निर्णय नहीं ले पातीं, जो ज़रूरी है क्योंकि वह संस्कारो से जकड़ी हुई है, तो संस्कारो से मुक्ति ही स्त्री मुक्ति का पहला और अनिवार्य क़दम है।”

मन्नू ने साहित्यकार राजेंद्र यादव से विवाह किया था और दोनों ने मिलकर उपन्यास ‘एक इंच मुस्कान’ भी लिखा था।

हिंदी लेखिका मन्नू भंडारी का जाना हिंदी जगत के लोगों के लिए क्षति है पर वे अपनी कहानियों में हमेशा जीवित रहेगीं और जीवित रहेगें उनके बंटी जैसे किरदार।

इमेज सोर्स: विकिपीडिया 

 

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