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अपनी लेखने क्षमता से लेखिका मन्नू भंडारी ने जिस स्त्री विमर्श के साथ-साथ बाल विमर्श स्थापित किया, उसको मील का पत्थर कहा जाए तो कम है।
कल हम सबों की मन्नू दीदी यानी मन्नू भंडारी एक भरी-पूरी सार्थक जीवन जीकर चली गईं। भरा पूरा सार्थक जीवन इसलिए क्योंकि उन्होंने समाज और दुनिया से जितना लिया नहीं, उतना वो अपनी कलम से सैकड़ों-लाखो-करोड़ों पाठकों के मन में एक चेतना विकसित करके गईं, जैसे कह रही हों “तेरा तुझको अपर्ण”।
उनको हिंदी साहित्य का मौन हस्ताक्षर कहा जाए तो कोई अतिशोक्ति नहीं होगी। पारिवारिक संस्कार में जो लेखन परंपरा अपने पिता से उन्होंने पाई, उसमें महानगरीय-शहरी मध्यवर्गीय जीवन का द्वन्द उन्होंने अपने साहित्य में उभारा, वह उनका हिंदी साहित्य में अलग मुकाम रखता है।
हिंदी पाठकों के दुनिया में अपनी लेखने क्षमता से उन्होंने जिस स्त्री विमर्श के साथ-साथ बाल विमर्श स्थापित किया, उसको मील का पत्थर कहा जाए तो कम है। हिंदी कथा साहित्य में मन्नू दी ने जिस खामोशी से धमाकेदार हस्तक्षेप किया, उनके लेखन से गुजरे बिना हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता।
मैं मन्नू दी उंगली पर गिन सकता हूं मात्र दो बार मिल सका, वो भी पुस्तक मेलों में। उनसे मिलकर लगा नहीं मैं उनको नहीं जानता था। अपने कलम से शब्दों से वाक्यों को पिरोकर जो कहानियां वो कहती थीं, जो विमर्श वो गढ़ रही थीं, वो तो हर रोज मेरे अंदर मौजूद रहता था। असल में अपने साहित्य से मन्नू दी आधुनिक समाज में बेहतर और संवेदनशील मानवीय समाज गढ़ने के मिशन पर थीं।
उन्होंने गढ़ी अपनी लेखनी से संवेदनशील मानवीय पीढ़ी, तभी तो चाहे स्त्री जीवन हो या बाल जीवन उस पर कोई भी ज्यादती हो, हमारा मन कराह उठता है और उसके हक में अपनी आवाज़ बुलंद करने लगता है। इसलिए मैंने पहले कहा, “तेरा तुझको अपर्ण”…
उन्होंने समाज से केवल शब्द, वाक्य, भाषा और संवेदना ली जितना कुछ दिया, उसकी देनदारी समाज नहीं चुका सकेगा। अपने साहित्य में मौजूद मानवीय संवेदना से लबरेज जो पीढ़ी उन्होंने अपनी रचनाकर्म से रचा है, वह मन्नू दी के ही पथ पर चलकर बेहतर समाज और दुनिया रचने के मुहीम पर है।
लेखिका मन्नू भंडारी अपने उपन्यास महाभोज में मानवीय मूल्यहीनता की जिन तहों को परत-दर-परत उधेड़ती हैं, उसको कौन संवेदनशील इंसान अपने अंदर किराये पर भी घर देना चाहेगा। भष्ट्र और निक्कमी हो चुकी राजनीति और नौकरशाही के चक्की में पिसता हुआ आम आदमी के तकलीफ और उसकी आवाज को सही मंजिल तक पहुंचाने में मन्नू दी सफल रही थीं।
आपका बंटी में उपन्यास स्त्री विमर्श के साथ-साथ बाल विमर्श की मजबूत धरातल बनाता है इससे कोई कैसे इंकार कर सकता है? इस उपन्यास को पढ़ने के बाद शायद ही कोई सोचने-समझने वाला इंसान बच्चों के प्रति अपनी संवेदाओं को पुर्नपरिभाषित करने के बारे में नहीं सोचेगा?
एक इंच मुस्कान जो उन्होंने कथाकार पति राजेंद्न यादव के साथ रची, जिनके साथ उनका वैवाहिक जीवन सफल नहीं रहा, दोनों अलग-अलग रहने लगे। मन्नू दी ने अपने जीवन में जिस अकेलपन को महसूस किया, क्या वह उनके उपन्यासों में स्त्री पात्र के अकेलेपन के मानसिक दवाब, भावनात्मक उत्पीड़न के टीलों पर चढ़ता-उतरता हुआ नहीं दिखता है? क्या उनका लेखन आधुनिक शिक्षित महिलाओं की उन पीड़ा या तकलीफों की अभिव्यक्ति नहीं है जो दामपत्य जीवन में अपनी अस्मिता के लिए भी सम्मान की चाह रखती हैं?
अपने भोगे हुए यथार्थ से और सामाजिक जीवन में रहते हुए स्त्री जीवन के यथार्थ को देखते हुए, स्त्री जीवन के सुखमय यथार्थ की तलाश उनके साहित्य में नहीं दिखती है? क्यों नहीं एक स्त्री जीवन का सच उसकी सामाजिक स्थिति को बदलने का राजनीतिक-सामाजिक और सांस्कृतिक बोध हो सकता है या होना चाहिए?
मन्नू दी का पूरा का पूरा साहित्य इस बात की पूरजोर वकालत करता है कि भारतीय समाज में पूर्व में और मौजूदा दौर में हर रोज जिस सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक मूल्यों के बीच घुन की तरह पिस रही है, वही स्त्री संघर्षों का इतिहास है जिसको इतिहस में दर्ज करने से इतिहासकारों ने सदियों से इंकार किया हुआ है।
मन्नू दी जब स्त्री जीवन के सच को कलमबद्ध कर रही थीं तो कभी नहीं सोचा था कि एक स्त्री के जिंदगी के सच को रूपहरे पर्दे पर भी उतारा जा सकता है, जो रंजनीगंधा की खुबसूरत खुशबू की तरह हर तरफ बिखर जाएगी।
इस सफलता और प्रशंशा ने ही मन्नू दी को नाटकों और सिनेमा की तरफ लिखने को मजबूर किया। उनके उपन्यास महाभोज पर उषा गांगुली का मंचन जिसको नाटक रूप में खुद मन्नू दी ने ही ढाला, इतना बताने के लिए काफी है कि उनमें अन्य कई प्रतिभाएं थीं जो बड़े पैमाने पर आकार नहीं ले सकीं।
मन्नू दी के लेखन को भले समीक्षक नई कहानी की पुरोधा कहानीकार के रूप में दर्ज करे और कहे कि उन्होंने हिंदी साहित्य के नए क्लासिक रंग को पकड़ा, परंतु मूल सत्य यह है कि उन्होंने अपने साहित्य में जिस पीड़ा, घुटन, मानवीय त्रासदी को जगह दी वह हमेशा से ही समाज में मौजूद थे। मन्नू दी ने उसको प्रासंगिक बना दिया, स्त्री जीवन के सच को रचनात्मक उत्कर्ष दे दिया।
लेखिका मन्नू भंडारी ने शहरी, मध्यवर्गीय और आधुनिक शिक्षित महिलाओं के जिंदगी को एक रंग या फलसफा दे दिया और कहा यही सच है।
इमेज सोर्स : अमेज़न
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