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"पापा, आपने मुझे कदम-कदम पर रोक कर एक बोन्साई बना दिया है। आपकी पुरानी सोच ने मुझे भी दबा दिया है, पर मैं बोन्साई नहीं बनना चाहती।"
“पापा, आपने मुझे कदम-कदम पर रोक कर एक बोन्साई बना दिया है। आपकी पुरानी सोच ने मुझे भी दबा दिया है, पर मैं बोन्साई नहीं बनना चाहती।”
अशोक अपने प्रिय बोन्साई संतरे के पेड़ को पानी दे रहे थे। एक से एक सुन्दर बोन्साई उनके ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाते थे और अपने बोन्साई पौधों पर उन्हें बड़ा नाज़ था। पूरी कॉलोनी में उनकी धाक थी। और आखिर हो भी क्यों न वह एक रिटायर्ड प्रोफेसर जो थे। उनकी काबिलियत का लोहा सब मानते थे पर इसके साथ ही उनके कठोर व्यवहार की वजह से लोग उनसे कतराते भी थे।
शाम के 6 बजने वाले थे और वह अपनी बेटी ऋतु की बैचेनी से प्रतीक्षा कर रहे थे। ऋतु कभी शाम को बाहर नहीं जाती थी पर आज अभी तक नहीं आई थी और वह कई बार अपनी पत्नी से पूछ चुके थे कि आखिर वो गई कहाँ है? पर आज ऋतु अपनी माँ को भी बता कर नहीं गई थी।
अचानक गेट के खुलने की आवाज़ आई और अशोक दरवाज़े पर आकर खड़े हो गए।
“ऋतु कहाँ से आ रही हो तुम इस समय?”
पापा की कड़क आवाज़ ने ऋतु के क़दमों को थाम दिया। सहमी नज़र से उसने अपने पापा को देखा और धीमे से बोली, “मैं कॉलेज के फाउंडेशन डे की प्रैक्टिस के लिए गई थी तो देर हो गई।”
इतनी देर में अशोक की गरजती आवाज़ से उसकी पत्नी मीना भी बाहर निकल आई और ऋतु को अन्दर जाने का इशारा करने लगी। दोनों माँ-बेटी उनके गुस्से वाले स्वभाव से परिचित थीं और जानती थीं कि वो अपनी मान्यताओं से किस कदर बंधे हैं।
पर आज ऋतु ने कुछ और ही सोच रखा था उसने माँ के इशारे को अनदेखा कर दिया और तनकर अशोक के सामने खड़ी हो गई।
“पापा आज मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूँ। आपकी इन वर्जनाओं ने मुझे दबाकर रख दिया है। मैं कोई गलत काम के लिए नहीं रुकी थी। आप अच्छे से जानते हैं मुझे संगीत का कितना शौक है, पर आपको गायन बकवास लगता है। कॉलेज में सब चाहते हैं कि मैं प्रोग्राम में भाग लूँ और इसलिए मैं रोज़ प्रेक्टिस करती हूँ, पर आज देर हो गई। आपको लगता है कि अच्छे घरों की लड़कियों को गाना शोभा नहीं देता पर आपको कैसे समझाऊँ कि मुझे इस से ख़ुशी मिलती है।
आपको इन बोन्साई पौधों से बहुत प्यार है ना? आप कितने प्यार से इन्हें पानी देते हैं, देखभाल करते हैं, पर क्या कभी आपने इनको ध्यान से देखा है? क्या यह वास्तविक पेड़ों जैसे लगते हैं? बिलकुल नहीं। आज मैं आपको बताती हूँ वो इसलिए नहीं बढ़ते क्योंकि उन्हें बचपन से ही काटा-छांटा जाता है, उनको बढ़ने से रोक दिया जाता है। वो बड़े तो हो जाते हैं पर विकसित नहीं होते हैं।
वास्तु शास्त्र कहता है बोन्साई शुभ नहीं होते पर वो सदियों जीते चले जाते हैं बिना विकास किये। उनकी सीमित शाखाएँ होती हैं और सीमित जड़ होती हैं। पीपल और बरगद जैसे पेड़ भी गमलों में सिमट कर रह जाते हैं। फूल और फल भी आ जाते हैं उनपर। आखिर क्यों नहीं बढ़ते हैं वो? क्यों नहीं खुश हो कर फैलते बाकि के पेड़ों के जैसे? क्यों अधूरे से लगते हैं?
पापा मुझे भी आपने बोन्साई बना दिया है मेरी छोटी छोटी खुशियाँ कुचल कर। मुझे कदम-कदम पर रोक कर। मैं सुन्दर दिखती हूँ, खुश दिखती हूँ, जिंदा भी हूँ, पर मैं भी बोन्साई हूँ।
आपकी पुरानी सोच ने मुझे भी दबा दिया है, पर मैं बोन्साई नहीं बनना चाहती। मेरा भी मन करता है कि मैं भी अपने मन का करूँ स्वयं निर्णय लूँ।”
कहते-कहते ऋतु की आँखें भीग गईं, “पापा अब मुझे विकसित होने दीजिये। मुझे बोन्साई नहीं बनना है।”
अशोक और मीना दोनों सन्न रह गए। ऋतु की बातों ने जैसे उन्हें आईना दिखा दिया। अपनी बेटी की ओर देखते हुए अशोक दबी आवाज़ में बोले, “ऋतु मुझे माफ़ कर दो। मैं अपनी पुरानी सोच में इतना बंधा हुआ हूँ कभी गौर ही नहीं दिया कि अपनी बेटी को धीरे धीरे बोन्साई बनाता जा रहा हूँ। अब तुम्हें पूरी आज़ादी दूँगा। जो हो चुका वो तो मैं नहीं बदल नहीं सकता पर अब खुल कर जिओगी।”
मीना भी अपनी बेटी का हाथ पकड़ कर बोली, “बेटा आज से तुम अपने निर्णय खुद लेना।”
ऋतु को लगा जैसे बोन्साई को गमले में से निकालकर बाहर बगीचे में लगा दिया हो।
अपने पाठकों को इस कहानी से यही सन्देश देना चाहती हूँ कि अपनी बच्चियों को सड़ी गली परंपराओं, पुराने रीति-रिवाज़ों और वर्जनाओं के नाम पर बोन्साई मत बनाइए। उन्हें रोक-टोक की इन कैंचियों से इतना मत कतरिये कि उनका दम घुटने लगे। उन्हें विकसित होने दीजिए, पनपने दीजिए। इतनी काट-छाँट करके उन्हें बढ़ने से मत रोकिये। उन्हें गमले में नहीं खुले आकाश और ताज़ी हवा में बढ़ने दीजिए।
इमेज सोर्स: Still from Smile Simi/Six Sigma Films, YouTube
I am Shalini Verma ,first of all My identity is that I am a strong woman ,by profession I am a teacher and by hobbies I am a fashion designer,blogger ,poetess and Writer . मैं सोचती बहुत हूँ , विचारों का एक बवंडर सा मेरे दिमाग में हर समय चलता है और जैसे बादल पूरे भर जाते हैं तो फिर बरस जाते हैं मेरे साथ भी बिलकुल वैसा ही होता है ।अपने विचारों को ,उस अंतर्द्वंद्व को अपनी लेखनी से काग़ज़ पर उकेरने लगती हूँ । समाज के हर दबे तबके के बारे में लिखना चाहती हूँ ,फिर वह चाहे सदियों से दबे कुचले कोई भी वर्ग हों मेरी लेखनी के माध्यम से विचारधारा में परिवर्तन लाना चाहती हूँ l दिखाई देते या अनदेखे भेदभाव हों ,महिलाओं के साथ होते अन्याय न कहीं मेरे मन में एक क्षुब्ध भाव भर देते हैं | read more...
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