कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

अगर सत्य रानी चड्ढा न होतीं तो आज भी कितनी बेटियां दहेज़ की आग में जल रही होतीं!

सत्य रानी चड्ढा भारत के दहेज़ विरोधी आंदोलन का चेहरा बन गयीं। उनके प्रयत्न के कारण अपनी बहुओं को जलाने की हिम्मत कोई नहीं कर पाता। 

सत्य रानी चड्ढा भारत के दहेज़ विरोधी आंदोलन का चेहरा बन गयीं। उनके प्रयत्न के कारण अपनी बहुओं को जलाने की हिम्मत कोई नहीं कर पाता। 

इतिहास गवाह है की कोई भी परिवर्तन, समाज में बदलाव किसी क्रांति के बिना संभव नहीं हुए है। संघर्ष की अपरिमित कहानियाँ मिल जाएगी चाहे वो आजादी की जंग हो, स्त्रियों के लिए शिक्षा  हो या मजदूर का सार्वभौमिक हक। हर चीज़ के लिए संघर्ष करना पड़ा है।

स्त्रियों की बात कहे तो अगर सावित्री बाई फुले न होती तो आज एक आम लड़की को शिक्षा न मिलती। राजा राममोहन रॉय न होते तो आज भी सती होना पड़ता और अगर सत्य रानी चड्ढा न होती तो आज भी कितनी सारी बेटियां दहेज़ की आग में जलकर भस्म हो जातीं और उनके गुनहगार आजादी से घूम रहे होते।

आज की पीढ़ी को निर्भया मालूम है क्योंकि उसी एक घटना ने बलात्कार के खिलाफ कानून व्यवस्था को झंझोड़ कर रख दिया और निर्भया की माँ के पुकार ने पुरे समाज को एकत्रित कर सरकार पे दबाव बनाने पे मजबूर किया। लम्बी चलने वाली हमारी क़ानूनी न्याय प्रक्रिया को फ़ास्ट ट्रैक पे आने के लिए मजबूर किया तब जाके सात साल और तीन महीने बाद निर्भया को इंसाफ मिला।

पर इतिहास में एक ऐसी माँ भी मौजूद है जो अपनी बेटी के लिए ३४ साल इंसाफ की पुकार लगाती रही और ३५ साल के बाद उनके हक़ में फैसला हुआ। पर उनके गुनहगार को सजा न मिली पायी। पर उनकी वजह से आज कई सारी बेटियों को दहेज़ के लिए आग में जलाने की हिम्मत नहीं कर पाता कोई।

जब भारत में दहेज़ विरोधी कानून इतना सख्त न हुआ करता था

Satyarani Chadha by Sheba Chhachhi

यह बात १९७८ के दशक की है जब भारत में दहेज़ विरोधी कानून इतना सख्त न हुआ करता था।सत्य रानी जी की शानाबाला करके एक २० वषीर्य बेटी थी, जिसके ग्रेजुएट होते ही उसका विवाह सुभाष चंद्रा से हुआ जो बाटा जुते की कंपनी में प्रबंधक के रूप से काम करते थे। चंद्रा परिवार ने दहेज़ में एक रेफ्रिजरेटर, एक टेलीविजन और एक स्कूटर की मांग की। सत्य रानी जी की इतनी हैसियत न होते हुए भी उन्होंने टीवी और फ्रिज दिया।

शादी को एक साल होने को आया और अब शाशि बाला ६ महीने की गर्भवती भी थी। एक दिन इनके जमाई ने सत्य रानी के घर जाकर दहेज़ की बाकी की कीमत जल्दी अदा न की तो परिणाम बुरा होगा ऐसी धमकी दी।

दो दिन बाद ही खबर आई की खाना बनाते वक़्त केरोसिन के स्टोव फटने से उनकी बेटी १०० प्रतिशत जल गयी है। पहले तो शाशि बाला के ससुरालवालों ने इसे एक हादसा बताया, लेकिन जब २ कमरे के घर में, चार लोग होते हुए भी किसी को उसकी चीखने- चिल्लाने की आवाज नहीं आयी, इस पर शक जताया गया तो इस घटना को आत्महत्या का रूप दे दिया गया।

संदिग्ध रूप से दिख रहे इस घटना के विरुद्ध जाके सत्य रानी जी ने हत्या का आरोप लगाया। पर पुलिस के अक्षमता और लापरवाही की वजह से पुख्ता सबूत न जुटाए गए। पुलिस ने हत्या का चार्ज न लगाते हुए चंद्रा पर दहेज़ निषेध अधिनियम के तहत आरोप लगाया। १९६१ में वैसे तो दहेज़ की मांग को अवैध का कानून बन चूका था फिर भी समाज में वो आज भी अनियंत्रित है।

१९८० में जब यह केस सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तब, अदालत ने फैसले को बरकरार रखते हुए फैसला दिया क्यूंकि दहेज़ की मांग और शाशि बाला की संदिग्ध मौत में दस महीने का अंतर था और उनको उसमे कोई संबंध नहीं दिख रहा था।

सत्य रानी चड्ढा को कोर्ट का यह फैसला मंजूर नहीं था

सत्य रानी जी को यह फैसला मंजूर नहीं था, अतः उन्होंने कानून के प्रावधान को इस्तेमाल किया जो एक व्यक्ती को हत्या के आरोप में मुकदमा करने के लिए अनुमति देता है। यह करते वक़्त उनकी मुलाकात शाहजहां आपा से हुई जो सत्य रानी जी की तरह ही अपनी बेटी के दहेज़ की वजह से की हुई हत्या से आहत थी।

दोनों माँ ने हात मिलाते हुए शक्ति शालिनी संस्था की स्थापना की जिसके अंतर्गत दहेज़ और घरगुती हिंसा की शिकार पीड़ित लड़कियों को न्याय मिल सके। दोनों ने देशभर में २० पीड़ित लड़कियों के घरवालो के साथ हाथ मिलाके रैली की, मोर्चे निकाले।

लाख कोशिशों के बाद उनकी मेहनत रंग लायी और कानून को मजबूर कर दिया वो अपने अधिनियम को और सख्त करें। सबूतों का बोझ हटाते हुए न सिर्फ पति बल्कि उसके घरवाले को भी दोषी घोषित करने पे मजबूर किया।

२० साल लम्बी चली इस प्रक्रिया में अंततः चंद्रा पे आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में दोषी करार किया गया और सात साल की सजा सुनाई गयी। चंद्रा को आत्मसमर्पण करने को कहा गया लेकिन वह फरार है।

पर जिसकी वजह से यह जंग छिड़ी, शाशि बाला को इंसाफ कहाँ मिला?

३५ साल के इस संघर्ष में दहेज़ विरोधी कानून में कई सुधार किए गए, कई लड़कियों की जानें बची। पर जिसके वजह से यह जंग छिड़ी गयी थी उस शाशि बाला को इंसाफ कहाँ मिला?

आज भी उसका गुनहगार दूसरी शादी करके आजादी से कही घूम रहा है। २०१४ को सत्य रानी जी का देहांत हुआ। जब वो इस दुनिया से गयी तब वो कैंसर और डिमेंशिया जैसे बिमारियों से लड़ रही थी। उनकी संस्था अब कोई और चलाता है।

विमेंस वेब सत्य रानी चड्ढा जी की प्रशंसा करते हुए उनके इस कार्य को सलाम करता है। वो एक मध्यमवर्गीय गृहिणी, कम पढ़ी-लिखी होते हुए भी जिस तरह से उन्होंने अपने बेटी के इंसाफ के लिए संघर्ष किया वो लाजवाब है। वो खुद आहत हुई पर आने वाली पीढ़ी के लिए उन्होंने सुनहरा कल लिख दिया।

बदलते इस कानून ने आज स्त्रियों को अपने हक़ के लिए, अपने ऊपर होने वाले अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने की हिमंत और प्रेरणा दी है जिसका स्त्रोत सत्या रानी चड्ढा जी का संघर्ष है। सत्या रानी जी ने एक बार फिर साबित किया की कोई भी सामान्य स्त्री जब ठान ले तो वो कुछ भी कर सकती है।

एक माँ अपने बच्चे के लिए पूरी दुनिया से लड़ सकती है। स्त्री के अंदर की लड़की भले कितनी भी थकी हो, हारी हो पर उसके अंदर की माँ वो कभी नहीं हारती। स्त्री और माँ से बढ़के इस दुनिया में कोई और योद्धा नहीं है।

इमेज सोर्स: feministsindia.com

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

7 Posts | 11,499 Views
All Categories