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एक थीं शांति घोष, जिन्होंने किशोर दिनों में वह काम कर दिया जिसके बारे सोचना भी दांतों तले अंगुली दबाने बराबर है। 22 नवबंर 1916 को उनका जन्म हुआ।
एक थीं शांति घोष, जिन्होंने किशोर दिनों में वह काम कर दिया जिसके बारे सोचना भी दांतों तले अंगुली दबाने के बराबर है। 22 नवबंर 1916 को शांति घोष का जन्म हुआ।
बीते दिनों देश को आज़ादी कब मिली और वह भी पट्टे पर मिली हुई आजादी थी, पर काफी लानत-मानत अब तक भेजी जा चुकी है। एक खुदमुख्तार मूल्क का आंखों में सपना लिए, न जाने कितने ही लोगों ने अपनी शहादत दे दी जिनके बारे में हम और हमारी पीढ़ी के लोग जानते तक नहीं हैं क्योंकि इतिहास में उनका नाम भी दर्ज नहीं हो सका। उन्हीं में एक थी शांति घोष, जिन्होंने किशोर दिनों में वह काम कर दिया जिसके बारे सोचना भी दांतो तले अंगुली दबाने के बराबर है।
“अरूण बहनी” नाम से लिखी, अपनी आत्मकथा में दर्ज जानकारी उनको इतिहास के पन्नों में न केवल दर्ज करने को मज़बूर करती है। ब्रिटिश शासकों के शान पर भी बट्टा लगा देती है जिसका सूरज कभी अस्त नहीं होता था।
आज के कोलकत्ता जो औपनिवेशिक दौर में कलकत्ता नाम से जाना जाता था। वहां एक प्रखर राष्ट्रवादी और बंगाल के विक्टोरिया कालेज में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर देवेन्द्रनाथ घोष के घर 22 नवबंर 1916 को शांति घोष का जन्म हुआ। यह वह दौर था जब बंगाल में पढ़े-लिखे लोगों ने शिक्षा के महत्व को समझ लिया और लड़कियों के शिक्षा को लेकर जो मान्यताएं थी उसका त्याग कर दिया था।
शांति घोष बंगाल के कोमिला में नवाब फैजुनेसा के गर्ल्स हाई स्कूल में पढ़ी। 1931 में शांति घोष वहां गर्ल्स स्टूडेंट्स एसोसिएशन के संस्थापक सदस्य भी रही इसके लिए उन्होंने सचिव के रूप में काम भी किया। वह अपने से वरिष्ठ प्रोफुल्ला नंदिनी से प्रभावित थीं जिन्होंने उन्हें जुगंतर पार्टी में शामिल किया। यह एक उग्रवादी क्रांतिकारी संगठन था जिसने औपेनिवेशिक शासन को हटाने के लिए राजनीतिक तकनीक के रूप में हत्या का इस्तेमाल किया। इसलिए इस पार्टी के सदस्यों को शस्त्रों और आत्मरक्षा का प्रशिक्षण लेना पड़ता था।
14 दिसंबर 1931 को शांति घोष और सुनीति चौधुरी दोनों की उम्र पंद्रह-सोलह साल उस वक्त, एक ब्रिटिश नौकरशाह और कोमिला के जिला मजिस्ट्रेट के कार्यालय चली गईं। उन्होंने मजिस्ट्रेट को कैंडी और चॉकलेट पेश किया। चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवंस ने कैडी खाई और कहा, “ये स्वादिष्ट है”। शांति और सुनीता दोनों ने पिस्तौल निकाल ली जो उन्होंने अपने शॉल के नीचे छिपा रखी थीं और कहा, “अच्छा, यह कैसा है मिस्टर मजिस्ट्रेट?” और उसकी गोली मारकर हत्या कर दी। उनका यह अभियान भगत सिंह के शहादत के प्रतिक्रिया के स्वरूप था।
शांति और सुनीता को गिरफ्तार किया गया और कलकत्ते की अदालत ने उन्हें आजीवन कैद की सजा सुनाई। अल्पायु होने के कारण दोनों को फांसी के सजा से महरूम कर दिया गया।
दोनों को इससे घोर निराशा हुई। अपने एक साक्षात्कार में दोनों ने कहा कि घोड़े के अस्तबल में रहने से मरना बेहतर है। वह निराश हैं कि उन्हें फांसी नहीं दी गई और वो इस शहादत को नहीं पा सकीं। उस दौर के समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में शांति घोष और सुनीता चौधरी के बारे में काफी कुछ छपा।
शांति और सुनीता दोनों ने ही जेल में रहते हुए अपमान और शारीरिक यातनाओं को झेला। जेल के रिकार्ड में दोनों को ही द्वितीय श्रेणी का अपराधी माना गया था। पंद्रह-सोलह साल की इन दोनों नायिकाओं के लिए जेल के अंधेरे कालकोठरियों में सजा काटना और यातनाएं झेलना सरल तो नहीं ही रहा होगा।
गेराल्डिन फोर्ब्स ने अपनी किताब भारतीय महिला और स्वतंत्रता आंदोलन में शांति घोष और सुनीता चौधरी से हुई बातचीत को दर्ज किया है। जिसमें इन दोनों की तस्वीर की तस्वीर एक कविता, ‘तू अब आज़ाद और प्रसिद्ध है’ के साथ छपी हुई है।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद औपनिवेशिक शासन से एक समझौते के तहत कई कैदियों को रिहा किया गया, शांति घोष को भी रिहा किया गया।
रिहाई के बाद शांति घोष ने बंगाली महिला कालेज से अपनी पढ़ाई पूरी की, कम्युनिस्ट आंदोलन में भाग लिया। बाद में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गई है प्रोफेसर चित्तरंजन दास से शादी की। उन्होंने दो बार पश्चिम बंगाल विधान परिषद में और एक बार पश्चिम बंगाल विधान सभा में अपनी सेवाएं भी दी। अस्सी के दशक में उनकी आत्मकथा अरूणबहनी लिखी जो प्रकाशित भी हुई।
देश जब आधुनिकता के चादर को छोड़ नवआधुनिकता के तरफ बढ़ रहा था। नब्बे के दशक एक साल पूर्व 1989 को शांति घोष ने विदा लिया।
इमेज सोर्स: Wikipedia/ YouTube
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