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अगर बहू आगे पढ़ना चाहती है तो ज़रूर पढ़ेगी…

"माँजी, मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ", जब डरते-डरते सरला जी ने अपनी सासूमाँ को कहा तो आंगन में बैठी सरला जी की सासूमाँ जोर से हॅंस पड़ीं। 

“माँजी, मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ”, जब डरते-डरते सरला जी ने अपनी सासूमाँ को कहा तो आंगन में बैठी सरला जी की सासूमाँ जोर से हॅंस पड़ीं। 

सरल व्यक्तित्व की स्वामिनी सरला जी के घर आज रौनक लगी थी। बाहर हलवाई तरह-तरह के व्यंजन बनाने में लगे थे, तो घर फूलों और रंग बिरंगी रौशनी में नहाया था।

धानी रंग के सुनहरे बॉर्डर की साड़ी पहने मेहमानों से बधाइयाँ स्वीकार करतीं सरला जी का चेहरा ख़ुशी से खिल उठा था और हो भी क्यों ना जो सपना उनकी आँखों ने कई साल पहले देखा था आज उनकी बहू रश्मि ने उसे पूरा किया था।

पढ़ने-लिखने की शौकीन सरला जी की शादी एक ऐसे संयुक्त परिवार में हुई थी जहाँ पढ़ाई-लिखाई को ज्यादा अहमियत नहीं दी जाती थी। सरला जी अपने मायके में पांच भाई बहनों में सबसे बड़ी थीं और पढ़ने में बेहद होशियार भी। उनकी बहुत इच्छा थी की पढ़-लिख कर जिंदगी में अपना मुकाम हासिल करें, लेकिन ये जरुरी कहाँ कि इंसान का देखा हर सपना पूरा ही हो। उनकी शादी भी बारहवीं करते ही रत्नेश जी से कर दी गई। घर में सभी बिज़नेस से जुड़े थे, जहाँ दसवीं बारहवीं की पढ़ाई पूरी होते-होते ये सोच घर के बच्चों को भी बिज़नेस में लगा दिया जाता कि इससे अधिक पढ़ कर क्या करेंगे संभालनी तो दुकान ही है।

“माँजी, मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ।”

जब डरते-डरते सरला जी ने अपनी सासूमाँ को कहा तो आंगन में बैठी सरला जी की सासूमाँ जोर से हॅंस पड़ीं।

“क्यों? क्या करेंगी आगे पढ़ कर बहू? कौन सी नौकरी करने जाना है? भगवान का दिया इतना कुछ है हमारे घर में, अब अपनी घर-गृहस्थी संभाल।”

और फिर घर गृहस्थी में सरला जी ऐसी उलझीं कि पढ़ने और कुछ बनने की ख़्वाहिश कहीं दब सी गई। समय के साथ दो बेटों अजय और अमर की माँ भी बन गईं सरला जी। खुद उच्च शिक्षा से वंचित सरला जी की बहुत इच्छा थी कि उनके बेटे उच्च शिक्षित हों लेकिन ये सपना भी पूरा ना हो सका। बेटे बड़े हुए तो उन्हें भी उनके पिता और दादाजी की तरह बिज़नेस में लगा दिया गया।

समय पंख लगा उड़ रहा था ऐसे में एक दिन रश्मि का रिश्ता बड़े बेटे अजय के लिये आया।

“सब तो ठीक है लेकिन लड़की ने अभी अभी बाहरवीं ही किया है। एक बार रश्मि से भी पूछ लिया जाता कहीं वो आगे तो नहीं पढ़ना चाहती?”

“हमें कौन सा नौकरी करवानी है बहू से? भगवान का दिया इतना कुछ है अपनी घर गृहस्थी संभालेगी और क्या?”

एक स्वर में सबने सरला जी के बात को काट एक बार फिर से सरला जी को चुप करा दिया गया। धूमधाम से अजय और रश्मि की शादी हो गई और बहु के रूप में रश्मि घर आ गई।

“माँ, मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ।”

जब एक दोपहर डरते डरते रश्मि ने सरला जी को कहा तो ऐसा लगा वक़्त से सत्ताइस साल पीछे लौट गया था जब ठीक यही बात सरला जी ने अपनी सासूमाँ से पूछा था। हमेशा की तरह रश्मि की इच्छा का भी पूरे घर ने विरोध किया।

“क्या करेंगी पढ़ का बहु जब संभालना घर ही है?”

लेकिन इस बार रश्मि अकेली नहीं थी इस बार सरला जी थी जो ढाल बन रश्मि के आगे खड़ी थीं।  अपनी बहू की इच्छा में कहीं ना कहीं सरला जी के अधूरे सपने भी छिपे थे तो बस कैसे टूटने देतीं रश्मि की इच्छा उसकी सासूमाँ? सरला जी के पूर्ण समर्थन से घरवाले कुछ दिन नाराज़ रहे फिर धीरे धीरे मान भी गए।

जल्दी ही रश्मि ने अपनी पढ़ाई की शुरुआत कर दी। पढ़ने-लिखने में होशियार रश्मि को अपनी सासूमाँ के रूप में माँ का साथ मिला जो हर परीक्षा में रश्मि का उत्साह बढ़ाती तो हर सफलता में ख़ुश होती। ग्रेजुएशन पूरी करते ही रश्मि ने प्रशासनिक सेवा में जाने का मन बना लिया।

आठ-दस घंटे की कठिन पढ़ाई में सरला जी परछाई की तरह रश्मि के साथ रहतीं। जब कभी रश्मि का उत्साह कम होता सरला जी अपनी बहु का मनोबल बढ़ातीं। रात को देर-देर तक पढ़ती रश्मि को चाय काफ़ी दे उसका ख्याल रखती। परछाई बन हर वक़्त सरला जी रश्मि के साथ रहती।  अपनी सासूमाँ का साथ और कठिन परिश्रम कर आज रश्मि ने वो सफलता भी प्राप्त कर ली जो सरला जी चाहती थीं।

“घर की बहु क्या करेंगी पढ़ कर भगवान का दिया सब कुछ है बस अपनी गृहस्थी संभाल”, पीढ़ियों पुराने इस सोच को सरला जी और रश्मि ने बदल दिया था। जो घरवाले किसी दिन रश्मि की पढ़ाई के विरोध में थे वहीं आज रश्मि की सफलता पे गर्व से भर उठे थे।

“माँ, आज आपके साथ से ही ये संभव हो पाया।”

सरला जी का आशीर्वाद पाने को झुकी रश्मि को भावुक हो सरला जी ने अपने अंक में भर लिया।

“नहीं मेरी बच्ची, तेरे इस सफलता में कहीं ना कहीं उस सरला की भी सफलता है जिसने जिंदगी में कोई मुकाम हासिल करने का सपना देखा था। मेरे क़दमों को तो पीढ़ियों पुरानी सोच ने रोक दिया था लेकिन आज तुम्हारी सफलता में मुझे मेरी सफलता मिल गई।”

सरला जी के सपनों को तो रश्मि के रूप में पंख मिल गए। लेकिन जाने कितने परिवार हैं जहाँ अक्सर ये सुनने को मिल जाता है, “बहु अब आगे पढ़ कर क्या करना जब गृहस्थी ही संभालनी है।”

ना कतरो पंख बेटियों के समाज की दुहाई दे कर…एक मौका तो दें अपनी बहू-बेटियों को भी पंख फ़ैला उड़ने का। एक मौका तो दें उन्हें भी अपने सपने पूरे करने के फिर देखिये एक नहीं अनेक मौके देंगी ये बेटियां आपको खुद पे गर्व करने के।

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