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अमृता शेरगिल, उनके नाम की तरह ही उनके रंगों से डूबी पेंट ब्रश से अमृत ही बहता था। कला का ऐसा अमृत जो किसी को भी मंत्रमुग्ध कर सकता है।
वो ख़ुद एक सुंदर तस्वीर की तरह लगती थीं। उनकी आंखें मानो बहुत कुछ कहना चाहती थीं। कहते हैं जब बातें भी कम कम पड़ जाएं तो भावनाएं व्यक्त करने का सबसे उम्दा ज़रिया कला होती है। अमृता शेरगिल, उनके नाम की तरह ही उनके रंगों से डूबी पेंट ब्रश से अमृत ही बहता था। कला का ऐसा अमृत जो किसी को भी मंत्रमुग्ध कर सकता है।
अमृता के जीवन की ईहलीला 30 जनवरी 1913 से 5 दिसंबर 1941 तक ही लिखी थी लेकिन इन 28 सालों में उन्होंने अपनी कला का वो ख़ज़ाना दुनिया को दिया जिसके रंग आज भी फीके नहीं पड़े हैं।
उनका जन्म बुडापेस्ट (हंगरी) में हुआ था। उनके पिता उमराव सिंह शेरगिल मजीठिया संस्कृत और पारसी के विद्वान व्यक्ति थे। उनकी माँ मेरी अन्तोनेट्टे गोट्समान हंगरी की एक यहूदी ओपेरा गायिका थीं। अमृता की छोटी बहन का नाम इंदिरा सुंदरम था। अभी तक पूरा परिवार बुडापेस्ट में ही रह रहा था लेकिन कुछ समस्याएं आने के बाद 1921 में सभी शिमला में बस गए जहां कलाप्रेमी अमृता ने पियानो और वॉयलन सीखना शुरू कर दिया।
बचपन से ही अमृता क़ागज़ पर तरह-तरह की चित्रकारियां करने लगी थीं लेकिन उनके एक रिश्तेदार ने उनकी कला को पहचाना और फॉर्मल ट्रेनिंग के लिए प्रोत्साहित किया।
अमृता की मां मैरी को शिमला में रहने वाले एक इटेलियन मूर्तिकार के बारे में पता चला लेकिन वो 1924 में वापस इटली चले गए। किस्मत ने कुछ तय किया था इसलिए अमृता की मां उन्हें इटली लेकर चली गईं जहां अमृता ने फ्लोरेंस के एक आर्ट स्कूल में दाखिला लिया।
कुछ समय तक वहां की कला सीखने के बाद अमृता को फिर से भारत की याद सताने लगी और वो उसी साल के आख़िर में लौट आईं। यहां भी उन्होंने अपनी कलाकारी की शिक्षा जारी रखी। समय बीतता गया और अमृता 16 साल की उम्र में अपने पूरे परिवार के साथ पेरिस चली गईं। 6 साल तक यूरोप में रहने के कारण ही उनकी पेटिंग में यूरोपियन कला का काफ़ी प्रभाव दिखता था। अमृता जाने माने यूरोपियन कलाकारों पॉल केज़ान और पॉल गॉग्विन की कला से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुईं।
अमृता शेरगिल ने अपनी कला की गंगा को कभी रूकने नहीं दिया। वो बस बहती जा रही थी। अपनी इसी मेहनत और कमाल कला के लिए उन्हें साल 1930 में ‘नेशनल स्कूल ऑफ फाइन आर्ट्स इन पेरिस’ से उनको ‘पोट्रेट ऑफ अ यंग मैन’ के लिए एकोल अवॉर्ड मिला। 1932 में उन्हें ब्रेकथ्रू मिला और उनकी ऑयल पेटिंग ‘यंग गर्ल्स’ ने खूब वाहवाही बटोरी। अपने इस काम के लिए उन्हें साल 1933 में उन्हें ‘एसोसिएट ऑफ ग्रैंड सैलून’ चुना गया। अमृता शेरगिल, इतनी कम उम्र में ये जगह पाने वाली पहली एशियाई और भारतीय थीं। अमृता की ऑयल पेटिंग का कोई सानी नहीं था।
यंग गर्ल्स(Young Girls)
इस पेंटिंग में अमृता ने जिस लड़की को मेहमान के रूप में दिखाया गया है वह उनकी बहन इंदिरा हैं।
एक बार फिर अमृता को अपने देश भारत की याद आ गई और 1934 में वो लौट आईं। शिमला लौटकर वो अपने फैमिली होम में अपने साथी और इंग्लिश पत्रकार मैलकॉम के साथ रहने लगीं। लेकिन ये साथ रास्ते अलग होने के कारण छूट गया। इसके बाद अमृता ने भारत में रहकर यहां की कला की खोज करनी शुरू कर दी। यूं कह सकते हैं कि यूरोपियन कला के दौर के बाद अमृता की भारतीय कला का ऐसा दौर शुरू हुआ जो फिर उनकी आख़िरी सांस तक चलता रहा।
थ्री गर्ल्स(Three girls)
इस पेटिंग को अमृता शेरगिल ने 1935 में बनाया था। 1934 में जब वो यूरोप से भारत लौटी थी तो सबसे पहले उन्होंने यही पेटिंग बनाई थी। उनके इस काम को 1937 में बॉम्बे आर्ट सोसाइटी की वार्षिक प्रदर्शनी में गोल्ड मेडल मिला था।
अमृता ने भारत की मुगल, पहाड़ी कला और दक्षिण भारत की कला को देखा, सराहा और फिर ‘ब्राइडज़ टॉयलेट’, ‘ब्रह्मचारी’, ‘साउथ इंडियन विलेजर गॉइंग टू मार्केट’ नाम की तीन पेटिंग्स बनाई। 1937 में लाहौर में एक कला प्रदर्शनी आयोजित हुई जहां उनकी इन 3 पेंटिंग्स समेट 33 कलाकृतियों को लोगों ने खूब सराहा। अंजता की गुफाओं ने अमृता का मन ऐसे मोह लिया कि फिर उन्होंने अपना पूरा समय भारतीय के नाम कर दिया।
ब्राइड्स टॉयलेट(Bride’s toilet)
ये पेंटिंग दक्षिण भारतीय ट्रायलॉजी का पहला हिस्सा है। इस तस्वीर में दिख रही औरतें उदास सी दिख रही हैं जो हाथ में मेंहदी लगाए एक लड़की को उसकी शादी के लिए तैयार कर रही हैं जो खुद भी उदास ही दिख रही है।
ब्रह्मचारी (Brahamchari)
ये पेंटिंग दक्षिण भारतीय ट्रायलॉजी का दूसरा हिस्सा है जिसमें कुछ ब्रह्मचारी लड़के ज़मीन पर बैठें हैं।
साउथ इंडियन विलेजर गॉइंग टू मार्केट (South Indian villagers going to market)
ये पेंटिंग दक्षिण भारतीय ट्रायलॉजी का तीसरा हिस्सा रही।
अपने हंगेरियन रिश्तेदार डॉक्टर विक्टेर इगन के साथ 25 साल की उम्र में अमृता ने शादी कर ली और वो गोरखपुर के सरदार नगर बस गई। उनकी चित्रकारी के भारतीय दौर में रवींद्रनाथ टेगौर और अबानिंद्रनाथ का प्रभाव रहा। क्योंकि अमृता हंगरी और भारतीय परंपरा में पली बढ़ी थी इसलिए उनकी आर्ट का एक हिस्सा मॉडर्न था तो दूसरा हिस्सा भारतीय। यहां रहते हुए उन्होंने शहरों-गांवों में रह रही भारतीय महिलाओं के जीवन को अपने कैनवस पर उतारा। अमृता की पेंटिंग्स में ब्रिटिश राज के समय भारत के गरीब, वंचित वर्ग को संवेदनशीलता से दिखाया गया है।
अ विलेज सीन (A village scene painting)
ये पेंटिंग साल 2006 में नई दिल्ली में एक नीलामी के दौरान 6.9 करोड़ रुपए में बिकी थी।
साल 1941 में अमृता अपने पति के साथ तत्कालीन भारत (अब पाकिस्तान) लाहौर जाना पड़ा। लाहौर उस समय कला का सबसे बड़ा केंद्र माना जाता है इसलिए अमृता की कलाकारी के किस्से और फैलने लगे। धीरे-धीरे भारत की क्लासिकल-कम-मॉर्डन आर्टिस्ट अमृता शेरगिल की पेटिंग्स को बड़े-बड़े खरीददार मिलने लगे। लेकिन अपनी कला के उन सुनहरे दिनों में ही मौत को उनकी याद आ गई और जब 1941 में लाहौर में उनका सबसे बड़ा एग्जीबिशन आना वाला था। इस आयोजन के कुछ दिन पहले ही अमृता अचानक बहुत बीमार हो गई और हमेशा के लिए अलविदा कर गई।
कहते हैं चित्रकार, कलाकार और पत्रकार कभी एक जगह रूक नहीं पाते क्योंकि वो हर पल नई खोज में निकल जाते हैं। उनकी जिज्ञासा कभी शांत नहीं होती और ज़िंदगी को हमेशा स्वतंत्र नज़रों की देखने की गुदगुदी होती है। अपनी कला के साथ-साथ अमृता अपने जीवन में भी उस समय की सोच से कहीं आगे थीं। उन्होंने अपनी भी कई मॉर्डन पेटिंग्स बनाई थीं।
नेशनल गैलरी ऑफ मॉर्डन ऑर्ट, दिल्ली में अमृता की कई पेटिंग्स संजो कर रखी गई हैं। उनके नाम पर बुडापेस्ट में अमृता शेरगिल सेंटर भी है।
अमृता को आम लोगों की ख़ुशी, गम, सुंदरता और उनका जीवन बहुत प्रभावित करता था और इसी आम ज़िंदगी को उन्होंने बेहद ख़ास अंदाज़ में कैनवस पर ज़िंदा कर दिया। अमृता भारतीय कला के क्षितिज में चमकता वो सितारा है जिसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ेगी।
इमेज सोर्स: by author NGMAIndia & Wikipedia
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