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मैं आगे बढ़ रही हूँ लेकिन ‘श्रीमान’ की सोच अभी भी वहीं की वहीं है…

क्या घर और बाहर महिलाओं के योगदान के एवज़ में सामाजिक स्तर पर उनको लेकर मान्यताओं में बदलाव आया है? उनके बारे में पुरुषों की सोच बदली है?

क्या घर और बाहर महिलाओं के योगदान के एवज़ में सामाजिक स्तर पर उनको लेकर मान्यताओं में बदलाव आया है? उनके बारे में पुरुषों की सोच बदली है?

महिलाओं ने स्वयं को शिक्षित करके न सिर्फ खुद को अपने अधिकारों के प्रति सजग किया है, बल्कि परिवार के प्रति अपने दायित्यबोध को लेकर वैज्ञानिक सोच का विस्तार भी किया है। इसके साथ अपने अस्तित्व के प्रति उनमें एक जागरूकता आई है, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है।

आज तमाम सरकारी-गैरसरकारी संस्थानों/ प्रतिष्ठानों, निजी कंपनियों, फर्मों में पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर सिर्फ कार्य ही नहीं कर रही हैं, बल्कि इस तथ्य को भी बड़ी मजबूती से स्थापित कर रही हैं कि किसी भी काम का कोई जेंडर नहीं होता है। सिर्फ स्त्री-पुरुष ही नहीं थर्ड जेंडर के लोग भी दुनिया का हर काम कर सकते हैं।

एक दूसरा तथ्य यह भी स्थापित हुआ है कि आर्थिक रूप से आजादी या आत्मनिर्भरता हासिल किए बिना किसी स्थापित सामाजिक संरचना में किसी भी तरह के मुक्ति की बात करना बेमानी है। स्पष्ट है कि मौजूदा दौर में महिलाओं ने घर की चार-दीवारी में चूल्हे-चक्की के इतर भी अपनी जिम्मेदारी को समझा है। महिलाओं में आई इस समझदारी के विकास ने पुरुषों पर उनकी निर्भरता और जीवन जीने वाली परंपरागत “अबला छवि” को केवल तोड़ा ही नहीं है, पीछे धकेल दिया है।

इन तमाम बदलावों के बाद भी एक सवाल सिर्फ घर के अंदर रहने वाली महिलाएं ही नहीं, घर के देहरी पार कर कामकाज को जाने वाली महिलाएं भी बार-बार झेल रही हैं। वह यह कि क्या घर और बाहर महिलाओं के योगदान के एवज़ में सामाजिक स्तर पर उनको लेकर मान्यताओं में बदलाव आया है? क्या उनके बारे में पुरुषों की सोच बदली है?

कालेज के दिनों में मेरी सहपाठी रही श्चेता(बदला हुआ नाम) पहले चैन्नई और फिर चंढ़ीगढ़ में बैंक में कार्यरत थी। वह बताती है कि उसे परिवार की बिगड़ी हुई आर्थिक स्थिति ने बचपन में इतना अधिक दुनियादार बना दिया था कि उसे अपने पैरों पर आत्मनिर्भर होना ही है। तीन-चार जोड़ी कपड़ों और किसी तरह दाल-रोटी पर जीवन संघर्ष की चक्की चलाते हुए, पढ़ाई ख्त्म करते-करते मेरे पास बैक की नौकरी आ चुकी थी, जो मेरे ही नहीं परिवार के आर्थिक जरूरतों को पूरा करने का साधन बना। परंतु, बैक के अपने दफ्तर में मैं जिस महौल में काम कर रही हूँ, हर रोज सब कुछ छोड़कर भाग जाने की इच्छा होती है।

आफिस घुसते ही हर तरफ से पुरुषों की निगाहें अपनी तरफ उठा हुआ पाती हूं। थोड़ा देर का रिलेक्श करना भी चाहूँ और नज़र उठाती हूँ तो किसी न किसी पुरुष को घूरते हुए ही पाती हूँ। कुछ तो बात बिना बात के बतियाने की कोशिश में रहते हैं। दो टूक शब्दों में कहूं तो बतौर महिलाकर्मी अपने सहयोगियों का व्यवहार और कटु अनुभव ने मानसिक रूप से तोड़ा है मुझे।

घर पर किसी से कुछ कह नहीं सकती हूं और बतौर महिलाकर्मी जो सहज और सुलभ महौल के लिए जो कमेटियां बनाई गईं, वह नाम मात्र की हैं। इसलिए कुछ कर नहीं सकती हूं। मुझे पहले किसी ने बतौर कामकाजी महिला मेरे घर में किसी ने काम किया नहीं है इसलिए इन चुनौतियों के बारे में बताने वाला कोई था नहीं। मैं आने वाली पीढ़ी को इन चीजों के प्रति पूर्व में ही सर्तक अपने अपनी मानसिक स्थिति को मजबूत करने की मशवरा तो जरूर दूंगी। नहीं तो इस तरह का महौल मानसिक स्थिति बिगाड़ने और क्विट करने के लिए तो काफी है।

विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में काम करने वाली मेरी कई महिला मित्र बताती हैं कि यह क्षेत्र शुरू से ही पुरुषों के अधिपत्य वाला क्षेत्र रहा है। समय-समय पर हम जैसी कई महिलाओं ने अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए स्वयं को साबित किया है और लोगों को विस्मय में डाल दिया है। पर कई मौकों पर उनको परेशानियों का सामना करना पड़ता है। वे कुछ मौकों पर तो नजरअंदाज कर देती हैं, परंतु कभी-कभी तो ये सारे आत्मविश्वास पर पानी डालने जैसा लगने लगता है।

पुरुषों के साथ काम करने के सवाल पर करीब-करीब अधिकांश महिलाओं (नाम और कार्यक्षेत्र नहीं बताने की शर्त पर) का मानना है कि पुरुष अभी भी महिलाओं को उपभोग और सजावट की वस्तु ही मानते हैं। कई पुरुषों के लिए यह बात गले से नीचे नहीं उतर पाती है उसके साथ काम करने वाली महिला उसके मुकाबले अधिक श्रेष्ठ हैं।

आपको मानना ही होगा कि स्त्री मानसिकता कुछ और ही है। पुरुषों को नीचा दिखाना उनका लक्ष्य नहीं है बल्कि उनके समय़ांतर चल कर समाज में अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करना है। मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध करना ही उनका उद्देश्य है। पर उनके साथ जो व्यवहार होता है वह खटकता है।

यह अच्छा सलूक तो नहीं है, जो घर और बाहर दोनों ही जगहों पर महिलाओं के भूमिका और योगदान को देखते हुए समाज और पुरुषों की सोच में बदलाव के लिए नये स्तर पर सोचे जाने की आवश्यकता की मुखालफ्त करता है।

इमेज सोर्स: Still from short film The Last Date, Pocket Films (for representational purpose only)

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