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अब वह सोच रही है अगर थियेटर प्रैक्टिस का टाइम चेंज नहीं होता है तो उसे थियेटर छोड़ देना चाहिए। पर क्या वह कुछ और कर सकती है?
अर्पणा को थियेटर करने का शौक है पर पिछले कुछ दिनों से वह तनावग्रस्त है क्योंकि प्रैक्टिस करते वक्त समय का पता नहीं चलता और घर पहुंचते-पहुंचते थोड़ी देर हो जाती है।
घर पहुंचते ही घंटी बजाते समय जेहन में मां-पिताजी-भाई सबको के न पूछने के बाद भी निगाहों में एक सवाल हवाओं में तैरता हुआ सा दिखता है, “फिर लेट…?”
घर पर सब का चिंता में घुला हुआ चेहरा देख अर्पणा परेशान हो जाती है। अब वह सोच रही है अगर थियेटर प्रैक्टिस का टाइम चेंज नहीं होता है तो उसे थियेटर छोड़ देना चाहिए। पर क्या वह कुछ और कर सकती है? एक थियेटर ही आता है उसको…
शायद ही कोई परिवार हो जो सामाजिक असुरक्षा के दवाब में लड़कियों पर अधिक सख्त नहीं हो। आज के दौर में जब हर क्षेत्र में लड़के-लड़कियों में प्रतिस्पर्धा में जीना पड़ रहा है, पढ़ाई से लेकर नौकरी तक की दौड़ में लड़के-लड़की का अंतर नहीं रह गया है, पर लड़कियों के सामाजिक असुरक्षा के कारण घर के चारदीवारी में लड़कियों पर नियंत्रण में कोई कमी नहीं आई है।
“जोर से मत हंसो”, “उधर मत जाओ”, “आंखे नीची कर के चलो”, “कोई कैसे भी फिकरेबाजी करे चुपचाप निकल जाओ।” लड़कियों और औरतों पर ये सलाहें अभी भी उतनी ही फेंकी जाती हैं जितनी कि कुछ दशक पहले।
वैसे विडंबना लड़कियों के संग यह भी है जब से वह होश संभालती हैं तभी से उसके खिलौने-कपड़े सभी में अंतर होता है। लड़का बैट, बंदूक और वीडियो गेम खेलेगा तो लड़कियाँ गुड़िया, किचन सेट और बिंदी नेलपॉलिश से। कुश्ती पेड़ पर चढ़ना आदि खेलों के लिए शुरू से ही लड़कियों को प्रोत्साहित नहीं किया जाता और उसको लड़की के एक कोष्ठक में रख दिया जाता है।
काम काज के प्रति लड़कियों से हमेशा यह अपेक्षित है कि वह घर के कामों में हाथ बंटाए, मां की गैरहाज़री में घर का सारा काम संभाल ले और लड़कों को कोई जिम्मेदारी नहीं। उससे कोई पूछताछ तक नहीं कि कहां जा रहे हो, कब तक आ जाओगे।
क्या नैतिकता की सारी जिम्मेदारी लड़की पर ही है? जो नियम सुरक्षा के नज़रिये से लड़कियों पर लागू किए गए हैं, क्या वह नियम लड़कों पर भी लागू नहीं होने चाहिए? या उन पर एक अलग नियंत्रण नहीं होना चाहिए? क्योंकि, महिलाओं के ऊपर होने वाले किसी न किसी अपराध में शामिल तो एक लड़का ही होता है, फिर परिवार शुरू से ही दोहरी नैतिकता लड़के-लड़कियों पर क्यों स्थापित करता है?
लड़की पर हद से अधिक नियंत्रण और लड़कों को मिलने वाली छूट लड़कों के अंदर उद्दंड व्यवहार के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार होती है।
आज बहुत ही कम परिवार होंगे जो यह सोचते होंगे कि बच्चों के लालन-पालन में दूसरे शब्दों का सहारा लूं तो समाजीकरण में जेंडर या लैंगिक रूप से संवेदनशील होंगे।
कुछ परिवारों में हो सकता है लड़कियों की सामाजिक सुरक्षा की चिंता से मुक्त रहने के लिए वैकल्पिक उपाय, मसलन अगर थोड़े समृद्ध हो तो निजी गाड़ी और अगर समान्य आमदनी के परिवार हो तो लड़कियों को आत्मरक्षा के लिए जूड़ो-करटे सीखा रहे हों, पर इन सबसे लड़कियों के सामाजिक असुरक्षा और समाज में मौजूद भयपूर्ण महौल में कीई कमी नहीं आती है। न ही, “जोर से मत हंसो”, “उधर मत जाओ”, “आंखे नीची कर के चलो”, “कोई कैसे भी फिकरेबाजी करे, चुपचाप निकल जाओ”, जैसे नसीहतों में।
इन नसीहतों को देते समय परिवार का कोई सदस्य यह सोचता ही नहीं है कि कैसे यह लड़कियों का मनोबल कभी बनने ही नहीं देते हैं। निर्विरोध सहने की प्रवृत्ति वाली सीख उसके आत्मविश्वास को तार-तार कर देती है।
मौजूदा दौर में आर्थिक आवश्यकताओं के बढ़ते दवाब के कारण लड़के-लड़कियों दोनों के बीच कार्य करने की जरूरत बढ़ी है। अर्थोपार्जन करने के साथ-साथ लड़कियों के मध्य सामाजिक असुरक्षा का जो बोध है वह असहनीय है। परंतु, कोई विकल्प नहीं होने के स्थिति में वह इन दवाबों को झेलने के लिए विवश है।
अगर, वह इसके खिलाफ खुदमुख्तारी भी करे, तो आलोचना झेलने को विवश है कि केवल तुमको ही परेशानी क्यों होती है? सब तो कर ही रही हैं इस महौल में? तुमको नहीं जमता है तो तुम छोड़ क्यों नहीं देतीं?
लेकिन ऐसा बोलने वालों को यह समझ में नहीं आता है कि एक उनके ऐसा बोलने से लड़कियों के हिस्से का तनाव और भी बढ़ जाता है, कम तो क्या खाक होगा। तो जब तक स्थिति नहीं बदलती है यही सच्चाई मान लो कि लड़की या बेटी हो तुम…
इमेज सोर्स: Still from Lunch With My Friends WIFE, A WIFE’S DILEMMA/ The Short Cuts via YouTube
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