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संविधान को मानना पड़ रहा है, एलजीबीटीक्यू सम्प्रदाय के हर मानवाधिकारो को, बहुत धीमे ही सही पर ज़रूर इस देश में "रुख हवा का बदल रहा है"।
संविधान को मानना पड़ रहा है, एलजीबीटीक्यू सम्प्रदाय के हर मानवाधिकारों को, बहुत धीमे ही सही पर ज़रूर इस देश में रुख हवा का बदल रहा है।
कुछ हफ्ते पहले देश में कन्ज़्यूमर गुड्स बनानेवाली मशहूर कंपनी डाबर इंडिया के प्रोडक्ट ‘फेम ब्लीच’ के नए एड को रिलीज़ किया था। करवा चौथ सम्बंधित इस विज्ञापन में एक लेस्बियन जोड़ी एक दूसरे को करवा चौथ का महत्व समझाते हुए, बड़े प्यार से सज रही हैं क्यूंकि उसे चाँद की रात का जश्न मनाना है। पर इस विज्ञापन से बेहद ख़फ़ा हो ‘कई लोग’, जिनको लगा कि यह विज्ञापन ना सिर्फ सांस्कृतिक मूल्यों के खिलाफ है बल्कि समाज को गलत तौर पर बहकाने की एक आपराधिक साज़िश भी है। गौर करने की बात ये हैं कि किसी ने करवा चौथ के खिलाफ आवाज़ नहीं उठायी।
समाज की ठेकेदारों ने नहुत शोर मचाया। ज़ाहिर है, डाबर इंडिया, इन फ़िज़ूल कानूनी खींचातानीओं में नहीं जाना चाहता था और कंपनी ने हर मीडिया माध्यम से इस विज्ञापन को हटा लेने का सबसे आसान रास्ता चुन लिया।
भारत में एलजीबीटीक्यू सम्प्रदाय पर सबसे पहला विज्ञापन बना था ‘अमूल बटर’ का। जब हमेशा की तरह देश के जरूरी मुद्दों पर दोटूक स्टैंड लेने वाली ‘अमूल गर्ल’ 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा समलैगिंकता को अपराधिक कार्यों की श्रेणी से हटाये जाने के समर्थन पर भी खुल कर बोली और अमूल ने एक विज्ञापन बनाया।
फिर, 2013 में आया था फास्टट्रैक का ‘कमिंग आउट ऑफ क्लोस्ट’ वाला विज्ञापन। 2015 में कपड़ा ब्रांड अनोउक ने भी ‘द विज़िट’ शीर्षक का एक विज्ञापन बनाया था और देखा जाए तो पिछले 5 सालों में फिर एक के बाद एक विज्ञापनों में बड़ी सकारात्मकता से कभी समलैगिंकता, ट्रांसवीमेंन, प्राइड परेड, तो कभी देश में सदियों से पीड़ित रहे किन्नर समुदाय को दर्शाया गया। टाइटन रागा, विकस, ब्रुकबोंड रेड लेबेल चाय, अर्बन कंपनी, भीमा ज्वेलरी, क्लोज़ आप, एरियल, रालको, मिंत्रा, हमसफ़र ट्रस्ट जैसे एक के बाद एक जाने पहचाने ब्रांड और समाजसेवी संगठन ने एलजीबीटीक्यू समुदाय के जीवन के हर पहलू पर विज्ञापन बनाये।
इन विज्ञापनों को निषिद्ध तो नहीं किया गया ना ही इन्हें ले कर ज्यादा बवाल हुआ पर प्रत्याशित तरीके से ही टीवी या मेनस्ट्रीम मीडिया पर इनका प्रसारण भी नहीं हो सका। शायद, फेमब्लीच के एड को ले कर तमाम वितर्क इसलिए हुए क्योंकि इस एड ने समलैंगिकता जैसे ”विदेशी और अस्वाभाविक विषय” को भारतीय, खास कर धार्मिक परंपरा करवा चौथ से जोड़ने की हिमाक़त की।
वैसे 2018 में धारा 377 के हट जाने के बाद भी भारत में इस समुदाय के लोगों को सामाजिक सम्मान और रोज़मर्रा के संकटों से कोई खास फायदा नहीं हुआ है और अब भी ज़्यादातर इन लोगों को अपने परिवार, समाज और वर्कप्लेस में वो सम्माम और व्यवहार नहीं मिलता जो मिलना चाहिए। फिर,भी देश में समलैंगिकता सहित हर तरीके की मार्जिनल यौनिकता के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में सकारात्मक बदलाव ज़रूर हो रहा है, जो साफ झलक भी रहा है ।
IPSOS की साम्प्रतिकतम रिसर्च के मुताबिक भारत की 2% जनसंख्या एलजीबीटीक्यू सम्प्रदाय से आती तो है पर असली संख्या यकीनन इससे बहुत ज़्यादा है। वहीं शहरी भारतीयों में किए गये उनके शोध में दिखता है की 44% भारतीय समलैंगिक शादीओं को कानूनी मान्यता देने के पक्ष में हैं वहीं 66% लोग विश्वास करतें हैं कि एलजीबीटीक्यू सम्प्रदाय के पास सन्तान एडॉप्शन का हक़ होना चाहिए और 62% लोगों को यकीन है एक एलजीबीटीक्यू समुदाय का इंसान स्वाभाविक रूप से बिल्कुल सफल पेरेंट बन सकता है। 59% जनसंख्या को किसी के खुली तौर पर समलैंगिक होने पर कोई ऐतराज नहीं है। 50% अर्बन लोग खेलकूद में समलैंगिक खिलाड़ियों को और 55% लोग टीवी, फ़िल्म और विज्ञापनों में समलैंगिक चरित्रों के अस्तित्व का सशख़्त तरीके से समर्थन करतें हैं। कईं पैमाने पर यह सब आंकड़े अंतराष्ट्रीय आंकड़ों से भी सुस्पष्ट तौर पर ज़्यादा निकले हैं।
WVS का शोध समलैगिंकता पर समय के साथ बदलते हुए भारतीय नज़रीये को बहुत सफलता से उजागर करता है। ‘होमो सेक्सयूएलिटी इज़ नेवर जस्टिफाईऐबल’ सोचनेवाले लोग 89% से घट कर वर्तमान समय पर 24% हो चुके हैं। 1990 में 91% भारतीय किसी एलजीबीटीक्यू जोड़ी को पड़ोसी की हैसियत से नहीं देखना चाहते थे। जो 2014 में बस 42% तक सिमट गया। WVS का रिसर्च एलजीबीटीक्यू पॉजिटिव विश्व की पहली 60 देशों में भारत को भी शुमार करता है।
फेम ब्लीच का एड टी.वी पर ही सही, काल्पनिक ही सही पर यकीनन हमारे होमोफोबिक समाज के प्रेक्षित में आज़ाद हवा के झोंके की तरह सबको छू कर गया। निःसन्देह, यह विज्ञापन खुद में ही पितृसत्ता की पैरबी करता है। अपनी सावँली त्वचा को बदल कर गोरी चिट्टी ‘सुंदरता’ पाने के लिए हो या फिर करवा चौथ का व्रत रखना, जो सदियों से औरतों को सिखाता है पति के बरकत के लिए उपवास करने का महत्व, पितृसत्ता की इन सदियों पुरानी परिभाषाओं में अटका हुया है।
गौरतलब ये है कि फेम ब्लीच का एड पर एक आम एलजीबीटीक्यू नागरिक के नज़रिए से देखें तो करवा चौथ का पालन हो या फिर दुर्गा दशमी के दिन सिंदूर खेला में भाग ले पाना, ऐसी हर पितृसत्तात्मक प्रथाओं का खात्मा होना उनके लिए बहुत ज़्यादा ज़रूरी है। समाज के हर स्तर पर उनके लिए संवेदनशील मानसिकता का विकसित होना, ताकि उनका जीवन भविष्य में भारत में, संघर्ष का नहीं, सम्मान का हो सके।
अपना सर बुलंद कर जीने के लिए एलजीबीटीक्यू समाज का रोज़ का संघर्ष व्यर्थ नहीं हो रहा है। पितृसत्तात्मक परम्परा के साथ समलैंगिकता का सम्बंध बदले ना बदले, सांस्कृतिक और सामाजिक रूढ़िवाद के स्वनियोजित अभिभावक चाहें ना चाहें पर यकीनन देश में पिछले दशक से अब तक तीसरे जेंडर को मिल रहे कानूनी संरक्षणों का क्षितिज बढ़ रहा है।
अभी भी समलैगिंकता सम्बंधी विज्ञापनों को धर्म और परंपरा के नाम पर कुछ लोग जबरन निषिद्ध कर रहे हैं। शादी और संतान पालन जैसे कई मौलिक कानूनी अधिकार अभी भी “हेटेरोसेक्सयूएल प्रिविलेज” बना हुआ हैपर सेक्सुअली मार्जिनल भारतीयों (जो विशाल संख्यक उपभोक्ता भी हैं) के सुख-दुःख के साथ अपने प्रोडक्ट को जोड़ कर विज्ञापन बनाने के लिए एक के बाद एक मेनस्ट्रीम के ब्रांड्स आगे भी आ रहे हैं।
IPSOS और WVS के शोध के आंकड़ों में झलक रही है होमोसेक्सुअलिटी की ओर हेटेरोसेक्सयूएल समाज की बढ़ती सकारात्मकता। संविधान को मानना पड़ रहा है, एलजीबीटीक्यू सम्प्रदाय के हर मानवाधिकारों को, बहुत धीमे ही सही पर ज़रूर इस देश में रुख हवा का बदल रहा है। सपना नहीं बल्कि यह अब सच है कि संसार के सबसे बड़े जनतंत्र में एलजीबीटीक्यू सम्प्रदाय के लोगों के आने वाले हर दिन निःसन्देह अच्छे दिन बन कर ही उभरेंगे।
इमेज सोर्स : Canva Pro
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