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नंदिता दास: एक विचारशील अभिनेत्री की कहानी!

नंदिता दास की जीवनी भी एक कहानी ही है। बेबाक, मुखर, पितृसत्तात्मक व्यवस्था में एक स्त्री के रूप में काम करती महिला।

नंदिता दास की जीवनी भी एक कहानी ही है। बेबाक, मुखर, पितृसत्तात्मक व्यवस्था में एक स्त्री के रूप में काम करती महिला।

बॉलीवुड की चकाचौंध कर देने वाली दुनिया से अलग नंदिता अपनी अलग पहचान रखती हैं। फिल्में करना उनका पेशा नहीं जीवन जीने का तरीका हैं। वे इंडस्ट्री की उन चुनिंदा अभिनेत्रियों में से हैं जो संवेदनशील मुद्दों पर भी अपनी अलग और असरदार राय रखती हैं। उनके लिए फिल्में महिला मुद्दों, सामाजिक और मानवाधिकार से जुड़े मुद्दों पर अपनी आवाज़ आगे रखने का एक जरिया है।

फायर, अक्स, हजार चौरासी की मां, बवंडर सहित 10 अलग-अलग भाषाओं की 40 फिल्मों में उन्होंने अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ने वाली नंदिता दास चित्रकार जतिन दास और लेखिका वर्षा दास की बेटी है।

नंदिता दास का जन्म मुंबई के वर्ली इलाके में हुआ था। पर 6 महीने की उम्र में ही वे दिल्ली आ गईं। जहां उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी के मिरांडा हाउस से स्नातक किया। स्नातक की पढ़ाई के दौरान ही सफदर हाशमी के साथ जन नाट्य मंच के साथ वह जुड़ गयीं और नुक्कड़ नाटक करते हुए इनकी पहली सांस्कृतिक ट्रेनिंग हुई। नुक्कड़ नाटक करते हुए उनके मन में आदर्शवाद का भाव आने लगा। उन्हें लगता था कि दहेज के खिलाफ नुक्कड़ नाटक करने के बाद दहेज से जुड़ी समस्याएं देश से खत्म हो ही जाएंगी। उन्होंने फिर दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क से मास्टर ऑफ सोशल वर्क किया। जहां उनका सामाजिक मुद्दों से सीधा सामना हुआ। उन्होंने येल से फेलोशिप भी की।

अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित नंदिता दास हमेशा अलग और बदलाव लाने वाला काम करना पसंद करती हैं। दीपा मेहता के निर्देशन में बनी फिल्म ‘फायर’ में शबाना आजमी के साथ नंदिता दास ने अपनी पहली फिल्म की। ये फिल्म बॉलीवुड में समलैंगिक संबंधों पर बनी मुख्यधारा की फिल्मों में से एक है। इस फिल्म में मूल रूप से पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री के स्थान और महिलाओं के यौन संबंधों को दर्शाया गया है। उस समय यह फिल्म विवादों में थी। पितृसत्तात्मक समाज इसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था।

2008 में उनके निर्देशन में बनी पहली फिल्म ‘फिराक’ सांप्रदायिकता की भयावहता को सामने लाती है।

वहीं 2018 में उनके निर्देशन में दूसरी फिचर फिल्म थी ‘मंटो’। जो कि सआदत हसन मंटो की बायोपिक है।

अभिनय और निर्देशन के अलावा नंदिता दास ने 8 सालों तक अखबारों में स्तंभ लेखन किया

साढ़े 7 सालों तक मां के रूप में अपना पूरा समय अपने बेटे को दिया। साथ ही साथ नंदिता दास 3 सालों तक चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी की अध्यक्ष भी रही। दो बार कांस फिल्म फेस्टिवल के जुरी मेंबर भी रहीं।

नंदिता दास की उपलब्धियां बहुत हैं पर वह इन उपलब्धियों और अपने कला के क्षेत्र में ही जुड़ी रहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। उन्होंने न केवल फिल्मों और लेखन के माध्यम से सोशल एडवोकेसी की, नंदिता दास असल जीवन में भी सोशल एडवोकेसी करती है। वे एनजीओ भी चलाती हैं। वह वूमन ऑफ वर्थ के ‘डार्क इज़ ब्युटिफुल कैंपेन’ की ब्रेंड एंबेसडर भी रहीं। उन्होंने रंगभेद के विरुद्ध लड़ाई लड़ी।

उपनिवेशवाद और उपभोक्तावाद ने भारत की स्त्रियों को अपने रंग को लेकर परेशान कर दिया था। उनके अंदर इस कैंपेन के माध्यम से विश्वास भरा। सिर्फ गोरी चमड़ी ही खूबसूरत नहीं बल्कि हर रंग के लोग खूबसूरत है। खूबसूरती रंग को देखकर तय नहीं होती। नंदिता दास ने स्वंय इंडस्ट्री में रहकर इसका सामना किया। उनसे कहा जाता कि ये पढ़े-लिखी औरत का रोल है इसीलिए थोड़ा मेकअप लगा लीजिए। पर नंदिता दास उन्हें दो टुक कह देतीं, “आपने पढ़े-लिखे गोरे होते होंगे और स्लम में रहने वाले काले, ऐसा स्टीरियोटाइप बना दिया है।”

 

जब देश में ‘मी टू’ मूवमेंट चल रहा था। उनके पिता जतिन दास पर भी आरोप लगे थे। फिर भी नंदिता दास ‘मी टू’ कैंपेन का सर्पोट करती रही।

जब हम समय को पलटकर देखते हैं तो हमें कहानियां दिखती हैं। नंदिता दास की जीवनी भी एक कहानी ही है- बेबाक, मुखर, पितृसत्तात्मक व्यवस्था में एक स्त्री के रूप में काम करती महिला। पितृसत्ता को चुनौती देती महिला की कहानी। सामाजिक मुद्दों पर बात रखने वाली और काम करने वाली महिला की कहानी। इस कहानी को हमें पढ़ना चाहिए और सीखना चाहिए।

मूल चित्र: Twitter

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