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क्या होते हैं दिव्यांग महिला खिलाड़ियों के संघर्ष?

फिर खेलकूद जैसे गैर ज़रूरी चीजों से जुड़ने के लिए ज़्यादातर भारतीय औरतों को किसी भी ओर से कोई प्रोत्साहन और सुविधा आसानी से नहीं मिलती है ।

फिर खेलकूद जैसे गैर ज़रूरी चीजों से जुड़ने के लिए ज़्यादातर भारतीय औरतों को किसी भी ओर से कोई प्रोत्साहन और सुविधा आसानी से नहीं मिलती है।

टोक्यो 2020 ओलंपिक्स में भाग लेनेवाले भारतीय खिलाड़ियों और विजेताओं को लेकर पूरी देश में काफी चहल-पहल रही। सन 1960 से दुनियाभर के दिव्यांग खिलाड़ीयों के लिए पैराओलंपिक आयोजित होता आया है। समर ओलिम्पिक गेम्स के समाप्त होने के ठीक बाद में 1968 में भारत से पहली बार 8 पुरुष और 2 महिला खिलाड़ी इसमें हिस्सा लेने गये थे।

पिछले 5 दशकों में पैराओलम्पिक में हमारे देश की परफॉर्मेंस काफी अच्छी रही। इस बार 54 खिलाड़ियों का एक विशाल दल भारत का प्रतिनिधित्व करने टोक्यो पहुंचा है। जिनमें सिर्फ 14  महिला सदस्य हैं। वैसे भी जिंदगी के हर क्षेत्र में अपना अस्तित्व  महिलाओं को अनगिनत लड़ाईयाँ लड़ने के बाद मिला है। फिर खेलकूद जैसी गैर ज़रूरी चीजों से जुड़ने के लिए ज़्यादातर भारतीय औरतों को किसी भी ओर से कोई प्रोत्साहन और सुविधा आसानी से नहीं मिलती है ।  फिर इन 14 दिव्यांग महिला खिलाड़ियों के जीवन के संघर्ष ना जाने कितने कठिन हुए होंगे? फिर एक दिन, उन सभी कठनाइयों ने उनके फौलादी इरादों के सामने हर मान ली।

अरुणा सिंह तंवर:  अरुणा भारत के इतिहास की पहली महिला तायकोंडो खिलाड़ी हैं। जिन्होंने टोक्यो 2020 में पैराओलंपिक में भाग लिया हैं। हरियाणा के एक छोटे से गाँव दीनोद से आईं, अरुणा के पिता नरेश कुमार सिंह एक केमिकल फैक्ट्री के ड्राइवर हैैं और माँ सोनिया एक होममेकर हैं। उनकी तीन बेटियों में सबसे छोटी अरुणा को जन्म से ही दोनों हाथों की उंगलियों में विकलांगता रही है। फिर भी , अरुणा के परिवार वाले उनको  कभी यह महसूस नहीं  होने  देते कि वह बाकियों से कुछ कम हैं। बचपन से ही हर प्रकार के खेलकूद में अरुणा को काफी रुचि रही है। पहले एथलेटिक्स इवेंट्स में भाग लेनेवाली अरुणा को सबसे ज़्यादा लगाव था हर प्रकार की मार्शल आर्ट्स  में । खास कर के तायकोंडो में,  2008 में महज़ 8 साल की उम्र से ही उन्होंने इस खेल को औपचारिक रूप से सीखना शुरू किया। भिवानी के तायकोंडो कोच रॉबिन सिंह के द्वारा उनके स्कूल में आयोजीत एक कैम्प के बाद, छोटी सी अरुणा जल्द ही इसमें अपना हुनर दिखाने लगी और बड़े पैमाने की ‘जेनरल’ प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगीं पर अपने हाथों की वजह से वह मेडल नहीं जीत पा रही थीं।

एक ओर अपनी शारीरिक समस्या तो दूसरी ओर घर की नाज़ुक आर्थिक स्थिति के चलते अरुणा हताश हो रही थीं । तब उनके पिता नरेश कुमार ने कभी कर्जा ले कर, तो कभी किसी और तरह हर तरीके से अपनी बेटी के सपनों को साकार करने का प्रयास करते रहे। हालात, गंभीर थे पर अरुणा ने हौसला नहीं हारा और हर तरह से तायकोंडो में और आगे बढ़ने के लिए जी तोड़ मेहनत करने लगीं। फिर कोच परमिंदर ब्रार ने उन्हें जेनरल कटेगरी से निकल कर दिव्यांगों के लिए आयोजित पैरा तायकोंडो में हिस्सा लेने की सलाह दी। अरुणा, जिनको पैरा खेलों के अस्तित्व बारे में जानकारी तक नहीं थी, अब पैरा टायकोंडो की एक नई सितारा बन चुकीं हैं। उन्होंने लगातार 5 बार राष्ट्रीय स्तर की पैरा तायकोंडो की चैंपियनशिप और फिर 2018 और 2019 में आयोजित एशियाई और विश्वस्तरीय तायकोंडो चैंपियनशिप में  पदक जीते। इन सफलताओं के दम पर 2020 टोक्यो पैराओलिम्पिक के लिए अरुणा ने अपनी पक्की जगह बनायीं और तमाम कठनाइयों के बीच भी चण्डीगढ़ यूनिवर्सिटी से उन्होंने अपनी बी.पीएड की डिग्री हासिल कर ली।

अरुणा का कहना है उन्हें पता है वह किसी भी “नॉर्मल” खिलाड़ी से जीत सकतीं हैं पर शिखर तक पहुंचने के लिए और शारीरिक सीमाबद्धताओं के वजह से उनके पास पैरा तायकोंडो के इलावा और कोई चॉइस नहीं रही क्योंकि उन्हें हर हाल में बस यही करना है। उन्हें इतने साल इतनी सफलताओं के बाद भी, किसी प्रकार की कोई सरकारी सहायता नहीं मिली पर अरुणा  अपनी ट्रेनिंग, तायकोंडो किट्स खरीदने और  प्रतियोगिताओं पर आवाजाही के खर्चों को ले कर हमेशा गहरी समस्याओं से जूझती रहीं हैं। एक अपंग लड़की को इस तरह आगे बढ़ते देख सामाजिक बाधाएँ भी कईं आयीं पर अरुणा और उनके परिवार ने हर चुनौती का डट कर सामना किया।

पैराओलिम्पिक दल में शामिल होने के बाद हरियाणा सरकार ने उनकी आर्थिक मदद की गुहार को स्वीकारा और 21 साल की इस खिलाड़ी को आखिरकार आर्थिक अनिश्चितताओं से निजात मिली है। हर डगमगाती हुई स्थिति के बीच भी अरुणा की ज़िद, हौसला और मेहनत की प्रशंसा करते हुए नहीं थकतें है उनके कोच अशोक कुमार, सुखदेव राज और पूरा तंवर परिवार। पूरे देश को तो शायद पता ही नहीं पर भारतीय तायकोंडो एसोसिएशन, उनके कोच, परिवार और शुभचिंतकों को उनके पैराओलंपिक में देश के लिए पदक लाने का इंतजार है। अरुणा की माँ कहतीं है, “उनकी बेटी को पनीर और लस्सी बड़ी अच्छी लगती है, जिनको उसने अपने लक्ष्य और कठोर ट्रेनिंग की वजह से सालों से हाथ तक नहीं लगाया है। “

अब पैराओलिंपिक में देश के लिए मेडल जीतकर गांव वापस लौटने वाली उस अनोखी बेटी के लिए लस्सी का गिलास ले कर प्रतीक्षा में बैठीं है एक अनोखी माँ।

प्राची यादव : ग्वालियर के छोटे से कस्बे आनंंदनगर से निकली प्राची यादव देेश की पहली महिला पैरा कैनो खिलाड़ी हैै, जो टोक्यो पैराओलंपिक में भाग ले रहीं हैं क्योंकि प्राची के दोनों पैर जन्म से ही काम नहीं करते थे, तो बचपन से ही उन्हें अनगिनत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। छड़ी पकड़ कर देर से ही सही पर चलना उन्होंने सिख तो लिया पर दिव्यांग होने की वजह से इलाके के सामान्य स्कूलों ने उन्हें भर्ती करने से इंकार कर दिया। बड़ी मुश्किल से चौथी कक्षा से उनकी पढ़ाई शुरू हुई। फिर 2003 में छोटी सी प्राची की माँ, जो उनकी ज़िंदगी का सबसे अहम हिस्सा थीं, कैंसर के कारण चल बसीं। रिश्ते नातेदार भी माँ को खो चुकी इस बच्ची के लिए हमेशा उपेक्षा और अवज्ञा के निर्मम शब्द ही बोले पर प्राची की दीदी और पिता ने बड़ी संवेदनशीलता के साथ नाज़ुक सी प्राची को संभाला और कभी बाकियों से अलग होने की हताशा को उन पर हावी नहीं होने दिया। 2008 में बतौर एक्सरसाइज कोच वीरेंद्र कुमार दबस के पास उन्होंने तैराकी शुरू की और अगले साल से ही रास्ट्रीय स्तर तक हर जूनियर पैरा तैराकी प्रतियोगिता में चैंपियन बनती रहीं पर पढ़ाई और आर्थिक समस्याओं की वजह से 2015 तक प्राची को अपनी, तैराकी से दूर रहना पड़ा पर तैराकी से उनके गहरे लगाव ने उन्हें फिर से स्विमिंग पूल वापस जाने पर मजबूर कर दिया।  नए सिरे से मेडल्स जीत रही प्राची को उनके कोच विरेंद्र कुमार ने इसबार पैरा रोइंग और पैरा कैनोइंग जैसे नए खेलों को आज़माने की सलाह दिया। वह बेशक तैराकी में सफल हो रही थीं पर वीरेंद्र कुमार का मानना था की प्राची के दोनों हाथ काफी लंबे और ताकतवर होने के कारण , वे नाव चलाने वाले खेलों में और अच्छा कर सकतीं हैं।

इसके बाद प्राची ट्रेनिंग के लिए भोपाल आयीं और वहां  कोच मयंक ठाकुर की देख रेख में दिन रात एक करके पैरा कैनो और पैरा कयाकिंग की प्रैक्टिस करना शुरू की। 2019 में जब उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर पैरा कैनो में गोल्ड और सिल्वर मेडल जीता तब से उनके मन में ओलीम्पिकस में देश के लिए कुछ कर दिखाने का जज़्बा पैदा हुआ। उसी साल उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अच्छा प्रदर्शन कर 2020 टोक्यो पैरा ओलीम्पिक के लिए अपनी भागीदारी को निश्चित किया। कोच मयंक ठाकुर ने उनके लिए एक स्पेशल कैनो नाव भी तैयार किया है क्योंकि भारत में अब तक पैरा कैनो जैसे कम प्रचलित खेलों के लिए ऐसी सर्वाधुनिक सुविधाएँ मौजूद नहीं है। 

प्राची के पिता अब हँस कर कहतें हैं, “उनकी बेटी की सफलता ने,  उनके रिश्तेदारों के तीखे शब्दों को अब मिठास और उत्सुकता में बदल दिया है।”

प्राची कहतीं हैं, “उनके जीवन में दो छड़ियों की बहुत बड़ी भूमिका रही है, पहली वे लोहे की दो क्रच जिनके सहारे उन्होंने बचपन में चलना सीखा और दूसरा पैरा कैनो का वह चप्पू जिसने उसकी ज़िन्दगी हमेशा के लिए बदल दी पर प्राची को शायद पता नहीं, उनका श्रम, धैर्य और दृढ़ निश्चय ही उनकी सबसे अहम छड़ी है, जिन के दम पर आगे बढ़ कर उन्होंने कभी अंधेरी रही अपनी ज़िन्दगी को आज हर ओर से सफलता के उजाले से रौशन किया है।

ज्योति बालियान : उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के छोटे से गांव गोयला के गरीब किसान परिवार की बेेटी ज्योति बालियान पैरा ओलंपिक में तीरंदाज़ी जैसे खेल में हिस्सा लेने वाली भारत की एकमात्र महिला प्रतिनिधि हैं।

ज्योति के पिता सपना देखते थें, एकदिन उनकी बच्ची देश के लिए वॉलीबॉल खेलेगी पर बचपन में पैर में लगाए गए एक गलत इंजेक्शन की वजह से ज्योति के दोनों पैर पोलियो से हमेशा के लिए अक्षम हो गए और वह चलने-फिरने तक की क्षमता खो  बैठीं पर ज्योति और उनके पिता ने अपना हौसला नहीं छोड़ा और 2009 में महज़ 12 साल की उम्र से बागपत ज़िले में स्थित आर्चरी कोच कुलदीप कुमार वेदवां के पास ज्योति ने तीरंदाज़ी की ट्रेनिंग लेेनी शुरू की। 

उनका सफर शुरुआत से ही कठनाइयों से भरा हुआ था। कभी जरूरी पर बहुत महँगे खेल संसाधन खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे तो कभी शारीरिक कमजोरियों  चुनौती बन जातीं थीं। कईं बार उन्होंने आर्चरी छोड़ना भी चाहा पर कोच और उनके पिता को ज्योति की प्रतिभा पर पूरा भरोसा था। शुरुआती, ट्रेनिंग के मात्र एक महीने बाद ही उन्होंने राष्ट्रीय पैरा आर्चरी में अपना पहला गोल्ड मेडल जीता। इस के बाद प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर की हर पैरा आर्चरी प्रतियोगिता में वह चैंपियन बनने लगीं थीं। ज्योति को तीरंदाज़ी से इतना जुनूनी लगाव है कि वह खुद हँस कर बोलतीं है कि वह पूरे दिन चल रही प्रैक्टिस से संतुष्ट नहीं होतीं, उन्हें नींद में भी तीर चलाना अच्छा लगता है।

2016 में ज्योति ने अपने पिता को  खो दिया। अपने सबसे बड़े सहायक को खो कर वह मानसिक तौर पर पूरी तरह से टूट गईं और तीरंदाजी से खुद को हमेशा के लिए हटा लेने का फैसला किया पर कोच और परिवारवालें ज्योति को हमेशा प्रोत्साहित करते रहे। 2018 में ज्योति फिरसे तीरंदाज़ी में वापस आयीं और विश्वस्तरीय पैरा आर्चरी खेलों में भाग ले कर लगातार मेडल्स जीतती रहीं पर उनके पास सरकारी सहायता और कोई नौकरी ना होने की वजह से उनकी आर्थिक समस्याएँ कम नहीं हो रहीं थीं। कुछ सालों पहले बड़ी दिक्कत से ज्योति ने ढाई लाख रुपये का एक धनुष अपने लिए खरीदा था पर पैरा ओलिंपिक में जगह बनाने के लिए इससे भी बेहतरीन धनुष की ज़रूरत थी। जब ज्योति के सपने फिर से ओझल होने लगे थे तब जिले की डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट और आईएएस ऑफिसर कुमारी सेल्वी जे ने उनको चार लाख रुपये  कीमती धनुष खरीद के दिया। 

अपने गांव, कोच, परिवार, जिले, प्रदेश, और देश के लिए कुछ बड़ा कर गुज़रने की उनकी लगन, जो ज्योति के अंदर ज्योत बन कर हमेशा जलती रहती है। 2019 में अपने विश्वस्तर की  रैंकिंग और प्रदर्शन के दम पर ज्योति बालियान पहली भारतीय महिला पैरा आर्चर बनकर 2020 टोक्यो पैरा ओलंपिक जानेवाले भारतीय दल में चुनी गयीं। टोक्यो में अबतक ज्योति अपने कैरियर की सबसे अच्छी परर्फोमेंस दिखा रहीं है। 

 एकता भयान :  एकता बचपन से ही बुकवॉर्म थीं। खेलकूद से कोसों दूर, उन्हें बड़े होकर बहुत पढ़ाई करनी थी और एक बढ़िया नौकरी करनी थी। 2003 की एक सुबह वह  ट्यूशन पढ़ने के लिए निकलीं और एक ऐसा हादसा हुआ की उनकी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदल गई । एकता भयान भारत की एक ऐसी सफल पैरा एथलीट हैं जिन्होंने क्लब थ्रो इवेंट में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पिछले कईं सालों से अपना दबदबा कायम किया है। 

2003 में रोड एक्सीडेंट में एकता की रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोटें आईं और उनके दोनों पैर हमेशा के लिए अक्षम हो गये। 9 महीने दिल्ली के अस्पताल में तीन सर्जरी और लंबी रिहैबिलिटेशन के बाद एकता हरियाणा के हिसार  अपने घर लौट आयीं। उन शुरुआती दिनों में व्हील चेयर से बंधी उस लड़की की दोनों आंखों के सामने बस अंधेरा था और आगे बढ़ने की कोई दिशा नज़र नहीं आती थी। लोग कहने लगें वह अब बस माँ बाप पर बोझ बन कर रह जायेगी।

फिर धीरे-धीरे एकता ने अपने टूटे हुए सपनों को फिर से संजो कर एक नई एकता को जन्म दिया। 

अंग्रेजी साहित्य में उन्होंने अपना ग्रेजुएशन और फिर  मास्टर्स किया और बी.एड की पढ़ाई भी पूरी की इसके बाद बतौर, एक पोस्ट ग्रेजुएट टीचर हरियाणा सरकार में उन्हें नौकरी भी मिली पर एकता का सपना इससे और आगे जाने का था तो उन्होंने लोक सेवा आयोग केे इम्तिहान में सफलता हासिल की और हिसार के अस्सिस्टेंट एम्प्लॉयमेंट ऑफिसर की हैसियत से बड़ी कुशलता से अपनी नई ज़िम्मेेदारी को संभालने लगीं।

 इतनी सारी दिक्कतों को पार करके एक दिव्यांग लड़की की ऐसी सफलता की कहानी ने हरियाणा में उन्हें एक चर्चित चेहरा बना दिया था।  उस समय तक उनके जीवन में खेलकुंद का कोई नामों निशान नहीं था।  एकता के जज़्बे की कहानी सुन कर मशहूर पैरा एथलीट और कोच अमित कुमार सरोहा बहुत खुश हुए , अमित जी ने खुद एकता से मुलाकात की और उन्हें पैरा क्लब और पैरा डिसकस थ्रो जैसे खेलों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। 

लंबे समय से मुश्किलों से लड़ती आयीं एकता में अब ज़िन्दगी के हर खूबसूरत पहलू को आज़माने का जज़्बा आ गया था। उन्होंने अमित सरोहा के बुलावे को मना नहीं किया और उनके पास सहमी हुई ही सही पर  समय निकाल कर प्रैक्टिस करना शुरू कर दिया। जल्द ही क्लब थ्रो खेल के सिर्फ इस इवेंट के लिए ही नहीं बल्कि उनके भीतर हर प्रकार के खेल के लिए गहरी रुचि पैदा की। एकता अपनी पूरी लगन से अब राष्ट्रीय पैरा क्लब में, थ्रो प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए मेहनत करने लगीं। 

उनके सामने आर्थिक कठनाई तो नहीं थी पर एक सरकारी मुलाज़िम होने के नाते काम का दबाव और शारीरिक प्रतिकूलताओं ने उन्हें कईं बार पीछे खींचा।  उनके दफ्तर के कलीग हमेशा उनकी हौसला अफ़ज़ाई करते रहते और शारीरिक कमी को लांघना अब  एकता की आदत बन चुकी थी। 2016 से राष्ट्रीय स्वर्ण पदक से लेकर 2019 तक कईं अंतरराष्ट्रीय मेडल उनके नाम आये।  लगातार, अपने अच्छे प्रदर्शन के दम पर 2020 के टोक्यो पैरा ओलिंपिक के क्लब थ्रो इवेंट में प्रतियोगी की  हैसियत से एकता ने खुद को शामिल किया और घण्टों जी तोड़ प्रैक्टिस और काम करने के बाद, थोड़े से बचे समय में कविता लिखने वाली यह खिलाड़ी अब अपने देश और परिवार के लिए मेडल जीतने के संकल्प को लेकर टोक्यो पहुंच चुकीं हैं। बेशक एकता दिव्यांग हैं, पर बताइये?  हर मायने में उनसे ज़्यादा सक्षम और साहसी क्या कोई नॉर्मल इंसान होते भी है ? 

इमेज सोर्स :  Gwalior Impact | First Indian Paracanoe Athlete To Qualify For Tokyo 2020 Paralympics | YouTube

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Suchetana Mukhopadhyay

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