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आपका बंटी सिर्फ एक 9 साल के बच्चे की कहानी नहीं है!

आपका बंटी सिर्फ एक 9 साल के ऐसे बच्चे की कहानी नहीं है, जिसके माँ-बाप ने तलाक ले लिया है और वह खुद को अवांछित महसूस करता है बल्कि उस औरत की भी है...

अपने उपन्यास ‘आपका बंटी’ के उपलक्ष में मन्नू भंडारी कहती हैं कि “जीते-जागते बंटी का तिल-तिल करके समाज की एक बेनाम इकाई-भर बनते चले जाना यदि पाठक को सिर्फ अश्रुविगलित ही करता है तो मै समझूँगी कि यह पत्र सही पतों पर नहीं पहुँचा है।”

मैं उनकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ।

‘आपका बंटी’ सिर्फ एक 9 साल के ऐसे बच्चे की कहानी नहीं है, जिसके माँ-बाप ने तलाक ले लिया है और वह खुद को अवांछित महसूस करता है बल्कि आपका बंटी कहानी है शकुन की, एक ऐसी माँ की जो चक्की पीस-पीसकर बेटे का जीवन बनाने में अपने को स्वाहा कर देने वाली माँ नहीं है, बल्कि स्वतंत्र व्यक्तित्व, आकांक्षाएं और आजीविका के साधनों से तृप्त माँ है।

बंटी अपनी माँ से बहुत प्यार करता है और वह अपनी माँ के साथ रहता है। उसे अपने दोस्त टीटू से यह पता चलता है कि उसके माँ-बाप की कट्टी हो गई है और जब बड़े लोगों में ज्यादा बड़ी लड़ाई हो जाती है तो तलाक हो जाता है। 

कई दिनों तक वह यह सोचता रहता है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मम्मी-पापा की सलाह करवा दी जाए और पापा उसके साथ आकर उसके घर रहने लगे जैसे टीटू के रहते हैं। बंटी के पापा अजय कलकत्ता से कभी-कभी उससे मिलने आते हैं, पर घर नहीं आते। न मम्मी उनके बारे में कभी पूछती हैं और न वे मम्मी के बारे में कुछ पूछते हैं। बंटी को पता है की शकुन को अजय की कोई बात पसंद नहीं आती इसलिए बंटी कभी शकुन से अजय की कोई बात नहीं करता। 

उपन्यास में बंटी के बाद सबसे ज्यादा जिक्र शकुन का ही हुआ है। अजय से तलाक लेने के बाद शकुन डॉक्टर जोशी से शादी कर लेती है।

किताब पढ़ते वक्त मुझे लगा की भारतीय समाज में एक पुरुष का तलाक लेने के बाद किसी स्त्री से पुनर्विवाह कर लेना बहुत सामान्य सी बात है, वहीं किसी स्त्री का तलाक ले लेना ही पाप होता है। आखिर, कब तक समाज के डर से स्त्रियां एक ऐसे रिश्ते को ढोती रहेंगी। जहां उन्हें मानसिक तनाव और प्रताड़ना के सिवा कुछ और नहीं मिलता।

 हमारे समाज में आज भी स्त्रियां परंपरागत संस्कारों की जकड़न से खुद को अलग नहीं कर पाती हैं और अगर कुछ स्त्रियां कर भी लेती हैं तो वे आधुनिकता का सम्यक निर्वाह नही कर पाती हैं। वे आधुनिकता और परंपरा के बीच फसी रहती हैं।

समाज कभी किसी स्त्री को उसके नाम से खुशी-खुशी स्वीकार नही करता है। वह हमेशा स्त्री की पहचान उसके पिता, पति और फिर बेटे से करता आया है।

अजय और शकुन के बीच टकराव की सबसे बड़ी वजह यही है की शकुन बौद्धिक, आत्माभिमानी और स्वावलंबी है। वह अजय पर निर्भर नहीं है, अपने फैसले खुद लेना चाहती है, स्वतंत्रतापूर्वक जीना चाहती है और वह इन सबको अनदेखा करके अजय को खुद को पूरी तरह समर्पित नहीं कर पाती है। वहीं अजय को यह सब स्वीकार नहीं है इसलिए दोनों का निर्वाह एक साथ नहीं हो पाता है।

जबकि ये सब शकुन के अधिकार है अगर पुरुषों को अपने फैसले खुद लेने का अधिकार है तो महिलाओं को क्यों नहीं है? 

यह कितना दुखद है कि आज भी समाज में अच्छा खासा वर्ग ऐसा मौजूद है जो स्त्रियों को शिक्षित होने ही नहीं देना चाहता और उन्हें एक दायरे में सीमित कर देना चाहता है।

सिर्फ इसलिए ताकि उन्हें अपने अधिकारों के बारे में पता ही न चले । वो उनके साथ हो रहे अत्याचार के खिलाफ कभी आवाज ही न उठा पाएं और यह पितृसत्तात्मक समाज और मानसिकता मिलकर उनका दम घोट दें।

मुझे शकुन का डॉ जोशी से शादी करने का निर्णय किसी भी नजरिए से गलत नहीं लगता है। उसकी भी कुछ इच्छाएं  हैं। वह भी चाहती है की वह एक सुखी वैवाहिक जीवन जिए और इसमें गलत क्या है? हर किसी को अपने जीवन में आगे बढ़ने का अधिकार है। जीवन का नाम ही चलते रहना है। फिर, अगर कोई स्त्री जिसका तलाक हो गया है या वो विधवा हो गई है जब अपने जीवन में आगे बढ़ने का फैसला लेती हैं तो समाज उस पर प्रश्नवाचक चिन्ह क्यों लगाता है?

मेरे जहन में जो भी सवाल आए हैं वे सभी सवाल बहुत सामान्य सवाल हैं। उनके बारे में आपने पहले भी कई बार सुना होगा पर हमे मिलकर इन सवालों का जवाब ढूंढना होगा। हमे स्वावलंबी, आत्मनिर्भर और आत्मसम्मान से ग्रस्त होना पड़ेगा ताकि हम पितृसत्तात्मक इस दकियानूसी विचारधारा के शिकार न बनें और अपने लिए अगर हमे कठोर से कठोर फैसले भी लेने पड़े तो ले सकें। हमारे समाज को शकुन जैसी औरतों की आवश्यकता है जो अपने विचारों को प्रकट करना जानती हों, जो अनुचित है उसे अस्वीकार करना भी जानती हों और जो स्वतंत्रतापूर्वक जीवन जीने के लिए  पुरुष समाज से दी जाने वाली चुनौतियों का सामना कर सकें।

इमेज सोर्स: Every working mother should watch this Indian Commercial Ad/ TVC Episode ES718/Youtube 

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