कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
आशा कार्यकर्ता की जिंदगी को जानने के लिये आईये मेरे साथ और जानिये गुलाबी साड़ी जिनकी पहचान बन चुकी है, उनकी जिंदगी को थोड़ा करीब से।
आशा कार्यकर्ता नाम से तो हम सभी परिचित हैं, लेकिन क्या हम जानते हैं कि ये कौन हैं? ये कैसे कार्य करते हैं? इनका चयन कैसे होता हैं? इनका वेतनमान क्या है? साथ ही ग्रामीण जन समुदाय को स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाली इस आशाओं के खुद की स्तिथि कैसी है और कितना संघर्ष है उनके जीवन में?
आशा कार्यकर्ता के संघर्ष पूर्ण जिंदगी को करीब से जानने के लिये आईये मेरे साथ और जानिये गुलाबी साड़ी जिनकी पहचान बन चुकी है उनकी जिंदगी को थोड़ा करीब से।
आशा कार्यकर्ता, एक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वस्थ्य कार्यकर्ता होती है जिन्हे संक्षेप में आशा या आशा बहु भी कहा जाता है। आशा भारत में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा नियुक्त जननी सुरक्षा योजना से सम्बंधित एक ग्रामीण स्तर की कार्यकर्ता होती है जिनका मुख्या कार्य स्थानीय स्वास्थ्य केंद्र के माध्यम से गरीब महिलाओं को बेहतर स्वास्थ्य संबंधी सेवाएं प्रदान करना है। देखने सुनने में आशा का काम जितना आसान लगता है वास्तव में वो उतना होता नहीं है।
ग्रामीण स्तर पे स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाली आशा कार्यकर्ता का चयन उसी समुदाय से किया जाता है जिनके लिये उन्हें काम करना होता है। करीब एक हजार की आबादी पे एक आशा की नियुक्ति होती है। ये कार्यकर्ता स्वेच्छा से कार्य करते हैं और विशेष रूप से प्रशिक्षित भी होती हैं।
कुपोषण, पोलियो के साथ साथ अब कोरोना जैसी महामारी के खिलाफ भारत की लड़ाई में सबसे आगे रहने के बावजूद हेल्थ वर्कर कम्युनिटी में ये महिलाएं सबसे ख़राब वेतन पाने वालों में से एक है, क्यूंकि इनके काम को स्वैच्क्षिक और पार्ट टाइम माना गया है।
राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत आशा योजना का आरंभ 2005 से हुआ। इस योजना को पूरी तरह लागु करने का लक्ष्य 2012 तक का था। एक बार लक्ष्य की पूर्ति होने के बाद हर गाँव में एक आशा की नियुक्ति आवश्यक होगी।
आशा कार्यकर्ता का पद केंद्र एवं राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग के जिला स्वास्थ्य कार्यालय में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कार्यक्रम के अंतर्गत गाँव के स्तर पे होता है। आशा कार्यकर्ता का पद सभी राज्यों में गाँव के स्तर पे अस्थाई आधार पे होता है। आशा कार्यकर्ता को विभिन्न स्वयं सहायता समूहों, आंगनवाड़ी संस्थानों ब्लॉक नोडल अधिकारी, जिला नोडल अधिकारी, ग्राम स्वास्थ्य समिति और ग्राम सभा से जुड़े चयन की कठोर प्रक्रिया के माध्यम से साक्षात्कार और योग्यता द्वारा चुना जाता है।
जुलाई 2013 के अनुसार हमारे देश भारत में आशा कार्यकर्ता की कुल संख्या 870,089 हो गई थी।
समय समय पे रिक्त स्थानों पे आशा की भर्ती के लिये विकेंसी निकलती रहती है। मुख्य जिला अधिकारी द्वारा नोटिस जारी किये जाने के बाद इस पद के लिये इच्छुक अभ्यार्थी अंतिम तिथि के पहले आवेदन भर सकते हैं।
इसके लिये जो अवश्यक दस्तावेज है वो निम्लिखित हैं:
• शैक्षणिक योग्यता प्रमाणपत्र • पहचान पत्र • स्थाई प्रमाण पत्र • जाती प्रमाण पत्र • जन्म प्रमाण पत्र • पासपोर्ट साइज फोटो • रोजगार पंजीयन प्रमाण पत्र
• महिला सबंधित गाँव की स्थाई निवासी होनी चाहिये
• प्राथमिकता के तौर पे तलाकशुदा /विधवा /विवाहित महिला जिनकी आयु 25 से 40 वर्ष हो, चुनी जाती है
• अल्पसंख्यक /अनुसूचित जाति / जनजाति को वरीयता दी जाती है
• महिला कम से कम आंठवी पास होनी चाहिये, हाईस्कूल पास को वरीयता दी जाती है। आशा कार्यकर्ता के वो आठ कार्य जो उन्हें महत्वपूर्ण बनाते हैं
आशा का कार्य अपने कार्यक्षेत्र में ग्रमीण जनता को उपलब्ध सरकारी स्वास्थ्य सेवा की जानकारी देना प्राथमिक सेवा उपलब्ध करवाना, जटिल केस को स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंचने में मदद करना, स्वास्थ्य योजना बनाने में सहायता करना, ग्रामीण जनता को स्वच्छ पेयजल और शौचालय बनवाने में मदद करना जैसे कार्य आशा के सामान्य कार्यों के अंतर्गत आते हैं, जिन्हें मुख्यतः आठ वर्गों में बांटा गया है।
• ग्रामीण स्वास्थ्य योजना तैयार करवाने में भागीदारी • स्वास्थ्य संबंधी में सुधार के लिये विचार विमर्श • स्वास्थ्य कर्मियों एवं आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के साथ संपर्क, सहयोग एवं तालमेल बिठाना • ए. एन. एम के साथ तालमेल • स्वास्थ्य, स्वच्छता एवं सफाई के मुद्दों पे परामर्श देना • प्राथमिक चिकित्सकीये देखभाल करना • डिपो होल्डर यानि आशा गाँव में सामान्य स्वासथ्य सामग्री रख सकती है और उनसे सामान्य बीमारी का इलाज भी कर सकती इसके लिये आशा विशेष रूप से प्रशिक्षित की जाती है| • जन्म मृत्यु का रिकॉर्ड रखना और पंजीकरण करना
साफ शब्दों में कहें तो आशा कार्यकर्ता ग्रमीण जनसमुदाय और स्वास्थ्य प्रणाली के बीच एक कड़ी का काम करती है। इनके कार्य को वैसे तो पार्ट टाइम माना जाता है लेकिन असल में उनका काम चौबीस घंटो का होता है।
कड़ी और कठिन मेहनत के बाद भी इनका वेतन बहुत कम होता है। एक कार्यकर्ता के एक महीने का वेतन 2000 से 5000 रुपये तक होता है, ये वेतन इस बात पे भी निर्भर करता है की वो किस राज्य से है। एक आशा कार्यकर्ता की ज्यादातर कमाई प्रोत्साहन राशि या इंसेंटिव के रूप में होती है।
अगर आशा कार्यकर्ता की मेहनत देखी जाये तो तो उसकी तुलना में ये इंसेंटिव भी बहुत कम होता है। जैसे पूर्ण टीकाकारण के लिये 75 रुपये, बच्चे की मृत्यु की सुचना पे 40 रुपये और गर्भवती महिला के साथ सरकारी अस्पताल जाने के लिये 300 से 600 रुपये मिलते हैं। अगर बच्चा ना बचे या महिला निजी अस्पताल में भर्ती हो जाये तो ये इंसेंटिव के रुपये भी आशा कार्यकर्ता खो देते हैं।
आशा कार्यकर्ता का काम खुद में बेहद चुनौतीपूर्ण होता है। ग्रामीणों को सरकारी अस्पताल में उपलब्ध स्वास्थ्य सेवा के लिये समझाना,जैसे प्रजनन और बाल स्वास्थ्य, प्रतिरक्षण, परिवार नियोजन, सामुदायिक स्वास्थ्य सम्बंधित जानकारी देना। गर्भवती महिलाओं के घर का दौरा करना उन्हें जरुरी टीके और अन्य स्वास्थ्य सबंधित जानकारी देना साथ ही दस्त, बुखार और मामूली चोटों के लिये प्राथमिक उपचार प्रदान करना भी है।
इन सब के अलावा जो सबसे चुनौती पूर्ण कार्य मेरी नज़र में है वो है आम ग्रामीण जनता जो आज भी नीम हकीम पे ज्यादा विश्वास करती है उन्हें नीम हकीम के पास जाने से रोक सरकारी अस्पताल ले जाना। इस कार्य में कई बार ग्रमीण आशा से लड़ भी पड़ते हैं। उनपे पत्थर या डंडो से हमला तक कर देते हैं। ऐसी घटनाओं को अकसर हम न्यूज़ में देखते पढ़ते हैं।
कोरोना जैसी महामारी में जब सब घरों में कैद थे तब भी आशा कार्यकर्ता जान जोखिम में डाल गाँव के घर घर जा लोगो को इस बीमारी के से ना सिर्फ अवगत कराया साथ ही क्वारंटीन के नियमों की जानकारी भी दी और जरुरी दवा को भी उपलब्ध करवाया। ग्रामीण स्तर पे ये आशा कार्यकर्ता ही थे जिनके कारण कोरोना की स्तिथि संभल सकी।
इतने कठिन कार्य के बाद भी आशा कार्यकर्ता सरकारी नीतियों के भेदभाव की शिकार है। उनकी स्तिथि किसी दिहाड़ी मजदूर से भी कमतर है क्यूंकि एक दिहाड़ी मजदूर भी प्रतिदिन के 300 से 400 कमा लेता है वहीं कोराना काल में अपनी जान का जोखिम उठा कार्य करने पे भी रोजाना के 30 से 35 रुपये ही मिलते हैं जो आज के महंगाई के दौर में कहीं से उचित नहीं है।
मेरी नज़र में आशा कार्यकर्ता की परेशानी सिर्फ उनकी सेवा के बदले भुगतान की नहीं है बल्कि सबसे बड़ा मुद्दा ये है कि एक कार्यकर्ता को अन्य फ्रंटलाइन वर्कर को दिये जाने वाले सुविधा और सुरक्षा की भी सुविधा नहीं दी जाती।
आशा अपने हक़ के लिये समय समय पे आवाज़ भी उठाती रही हैं। बदले में सरकारी वादे मिलते हैं, कुछ पूरे होते है तो कुछ फाइलों में दबी रह जाते हैं। मेरी दृष्टि में अब समय है कि सरकार अपने दृष्टिकोण को बदले। एक आशा के कार्य को दोबारा से परिभाषित करे, उन्हें जरुरी इंशोरेंस कवर दे, उनकी पक्की सैलरी फ़िक्स करे साथ ही उनके इंसेंटिव में भी बढ़ोतरी करे।
एक आशा बहू की भूमिका ग्रामीण इलाकों मे बेहद अहम होती है। इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता की सरकार कितनी योजना बना ले लेकिन जमीन स्तर पे काम किये बिना उन योजनाओं को सफल नहीं किया जा सकता जिसके लिये आशा चौबीस घंटे ड्यूटी पे रहती है, फिर क्यों सरकार द्वारा आशा कार्यकर्ता को उचित राशि और सुविधा मुहैया नहीं करवाई जाती ये एक ज्वलंत प्रश्न है ,
अब समय है कि आशा को भी उनके हिस्से का हक़ और सम्मान मिले जिससे अन्य महिलायें भी आगे आकर आशा कार्यकर्ता के रूप में ग्रमीण इलाकों में काम करें।
इमेज सोर्स:
read more...
Please enter your email address