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सच है दूसरों से अपेक्षाएं रखते रखते हम खुद की उपेक्षा करने लगते हैं और परजीवी से बन जाते हैं, तो अपेक्षाएं रखनी ही है तो खुद से ही क्यों नहीं? जो पूरी हो तो सुखद ना पूरी हो तो सबक।
“मंजूषा” बस नाम की नहीं थी मैं, मां ही नहीं पूरे परिवार के प्रेम की पुष्पवर्षा होती थी मुझपर।पलकों पर बिठाया ही नहीं, पलक पांवड़े बिछाकर मुझे हर तकलीफ से भी बचाते रहे मेरे अपने। पर किस्मत से कौन लड़ा है भला? जो दुख तकलीफ होनी है वो तो होगी ही।शहर की जानी मानी व्यवसाई सह समाजसेवी मंजूषा अग्रवाल, प्रतिष्ठित न्यूज़ चैनल पर लिए जा रहे इंटरव्यू में बता रही थी।
“हम आपकी पूरी कहानी दुनिया के सामने लाना चाहते हैं,आप शुरू से हमें बताएंगी”, एंकर बोला। “जमींदार परिवार था हमारा। पिता डॉक्टर थे, दादा- दादी, चाचा-चाची, भाई बहनों से भरापूरा परिवार था। पिता, दादाजी द्वारा पसंद की गई, मेरी मां से खुश नहीं थे क्योंकि वो मामूली पढ़ी लिखी थी और उनके मापदंडों पर खरी नहीं थी। गांव से शहर, फिर शहर बदलते बदलते कब वो विदेश के हो गए किसी को कानों-कान खबर तक नहीं हुई। पर मुझ पितृ विहीना को हमारे परिवार ने कभी एहसास तक ना होने दिया। बेहतरीन लालन-पालन और परवरिश ही नहीं दी,एक बहुत ही अच्छे घर में शादी भी करवाई।
विद्या, धन दौलत के साथ साथ रसूख और दंबगई भी संजीव जी की विशेषताओं में शुमार थे। सरकारी नौकरी में बाबू थे, पूरे महकमे में हड़कंप रहती थी उनके नाम की। किसी का काम अटका हो, किसी की जमीन जायदाद के मामले हो, कोर्ट-कचहरी के चक्कर हो, पारिवारिक विवाद या किसी भी तरह का लफड़ा हो संजीव जी को सब याद करते और येन केन प्रकारेण पक्ष में फैसला करवाने में संजीव जी को महारथ हासिल थी।
मैं घर की दुल्हन, घर द्वार के साज संभाल, देखभाल और बच्चों के पालन-पोषण तक ही मेरी दुनिया सीमित थी। दो चार नौकर हमेशा लगे रहते। संजीव जी की देर रात तक चलती बैठकियां, यार दोस्तों की जमघट रहती पर उनमें आते जाते लोगों से मेरा दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था। पूर्णतया एक घरेलू महिला की भूमिका में बहुत खुश थी मैं। जेवर गहनों से लकथक,घर गृहस्थी में सर से पांव तक डूबी रहती। पति, बच्चों और घर की खुशहाली सर्वोपरि थी मेरे लिए”, कहकर मंजूषा रूकी और मेज पर पड़े गिलास से पानी पीकर फिर बोलना शुरू किया।
“वो मनहूस सुबह, इन्हें नाश्ता करा,लंच देकर रोजाना की तरह मुस्कुराकर विदा किया और आकर अपनी चाय लेकर बैठी ही थी कि संजीव जी के आफिस से फोन आया कि वो बेहोश होकर गिर गए हैं और उन्हें हास्पिटल ले जाया जा रहा है आप जल्दी पहुंचे। मेरे तो हाथ पैर फूल गए एक तो ऐसी खबर ऊपर से मेरी बाहरी दुनिया से अनभिज्ञता। अपने मायके खबर देकर, मैं बच्चों को नौकरों के भरोसे छोड़ जल्दी से हास्पिटल रवाना हुई। बाहर भीड़ जमा थी।
डॉक्टर ने बताया अचानक रक्तचाप बढ़ने से आए अटैक ने संजीव जी की पूरे शरीर को पारालाइज्ड कर दिया था। इस खबर ने मेरी सोचने समझने की क्षमता को निष्क्रिय कर दिया। कब मेरे मायके वाले आये, मेरे बच्चे कैसे रहें, उन दिनों की कोई याद ही नहीं दिमाग में। होश में तो तब आई जब अपने परिवार और बच्चे ही नहीं व्हील चेयर पर बैठे गर्दन ढुलकाए, निष्भाव, निष्प्राण से पति की भी जिम्मेदारी का जुआ मेरे कमजोर कंधों पर आन पड़ा।
कहते हैं बैठकर खाने से तो कुबेर के खजाने कम पड़ जाते है तो उठना भी था और बढ़ना भी था, वैसे भी कर्म-क्षेत्र में तो आप बिल्कुल अकेले होते हैं। हर बात के लिए पति पर आश्रित मैं अब इस भरी दुनिया में बिल्कुल अकेली थी, जिसे हर चीज नए सिरे से समझना था। फिर तो परपुरुष की छाया से भी दूर रहने वाली मेरी प्रवृत्तियां अब रोज अच्छी बुरी नजरों से बींधती और कराहतीं। घर की देहरी ना लांघने वाले मेरे कोमल पैर, दफ्तर के चक्कर काट काटकर दर्द में रात काटते।
मेरी वो निश्छल मुस्कुराहट अब होंठो से कतराने लगी। मायके वालों ने बहुत साथ दिया पर सबकी अपनी अपनी दुनिया थी, मां के अलावा और कौन बैठा रहता मेरे पास। दफ्तर से कहा गया कि अनुकंपा के आधार पर नौकरी तब लगती अगर पति की मौत हुई होती। नियति ने दो तरफा मार दी थी मुझे। बैठकियो की जमघट वाले सारे वक्त के यार निकले।
इधर संजीव जी गिरे, उधर उनकी इंसानियत। बड़े शहरों में खरीदे दो घर और किराए पर चलने वाली तीन गाड़ियां ही अब मेरी संपत्ति थी और आजीविका का साधन भी। पर बढ़ती मंहगाई, बच्चों की पढ़ाई, संजीव जी की देखभाल और दवाईयों का खर्चा तो सुरसा के मुंह की तरह थे।
मैने सिलाई कढ़ाई का काम सीखना शुरू किया, क्योंकि पढ़ाई तो इस उम्र में संभव ना थी। धीरे धीरे काम बढ़ाया, मेरी मां ने मुझमें विश्वास दिखाते हुए, अपनी सारी संपत्ति बेचकर मेरी यथासंभव मदद की और मैंने अपना व्यवसाय शुरू किया और बढ़ाया। मेरे हालात सुधरने लगे, कुछ ही वर्षों में मैं इस स्थिति में पहुंच गई, जहां मुझे लगने लगा कि मैं अब किसी की मदद कर सकती हूं।
फिर अपने जैसी औरतों के लिए मैंने ये एनजीओ बनाया ‘ना कोमल थी ना कमजोर हूं’।आज पूरे देश में मेरे एनजीओ है और लाखों की संख्या में महिलाएं लाभान्वित हो रही है तो लगता है शायद ये परिस्थितियां ना होती तो मेरा जीवन सार्थक कैसे होता?”
मंजूषा की बात खत्म होते ही पूरी कहानी पूरी तन्मयता से सुन रहे एकंर ने फिर प्रश्न किया। “एक सफल व्यवसाई या समाजसेवी के तौर पर नहीं,एक महिला के नाते क्या संदेश देना चाहेंगी अन्य महिलाओं को?”
“खुद को अपेक्षाओं से आजाद रखना” मेरी पहली और आखिरी सीख! जो मेरे एनजीओ की भी कैच लाइन है। मुझे पता है हम भारतीय नारियों को पिता, पति, पुत्र से अपेक्षाएं रखना और उनकी पुर्ति पर खुश होना बहुत पसंद है। पर आप ये मानें दुसरो से अपेक्षाएं हमें अंदर से खोखला करती हैं।
हम अपना आत्मविश्वास खोने लगते हैं, अपने पर भरोसा क्षीण होता है और काबिलियत घटती जाती है। मेरी आधी उम्र दुसरो द्वारा अपेक्षा पुर्ति और पराश्रितता में ही बीती,नतीजतन बाहरी दुनिया ही नहीं, अपने आप से भी लड़ना पड़ा अपने अस्तित्व को पाने के लिए। और शायद मेरी जिंदगी में ये हादसा ना होता तो मेरा अस्तित्व अपेक्षाओं की छत्रछाया में पलते पलते, आत्मविश्वास की रोशनी के अभाव में सड़ गल कर मुरझा जाता और एक औरत वही खत्म हो जाती।
तो भले मेरा पत्नीधर्म और संस्कृति मुझे इजाजत ना देती हो मैं ये स्वीकारने से नहीं हिचकूंगी कि आज मेरे पति के साथ वो हादसा ना होता तो शायद मंजूषा अग्रवाल, चारदीवारियों के अंदर घुटती। लाखों मंजू की तरह अपना जीवन जाया कर रही होती और इस निष्कर्ष पर कभी ना पहुंच पाती कि ना कोमल थी ना ही कमजोर हूं। हर औरत दूसरों से अपेक्षाएं रख पूरा करवाने का भरोसा छोड़, वही भरोसा खुद से जताए तो उसका जीवन ज्यादा उज्जवल और आसान हो।”
मंजूषा ने मुस्कुराते हुए कहा।
“तो अभी आप मिल रहे थे जाने माने व्यक्तित्व मंजूषा अग्रवाल से,” ईधर एंकर ने अपने कैमरे की तरफ देखकर बोलना शुरू किया, उधर मंजूषा थोड़ी ही दूर पर व्हील चेयर का हैंडल पकड़ पति को लेकर घर की तरफ निकल ली।
दोस्तों, सच है दूसरों से अपेक्षाएं रखते रखते हम खुद की उपेक्षा करने लगते हैं और परजीवी से बन जाते हैं तो अपेक्षाएं रखनी ही है तो खुद से ही क्यों नहीं? जो पूरी हो तो सुखद ना पूरी हो तो सबक। आप क्या कहते हैं?
इमेज सोर्स : Still from the documentary on women empowerment, YouTube
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