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मुझे अपने पिया का साथ मिल गया था…

ये बात समझने में मैंने बहुत देर कर दी कि पति होने के नाते मेरे कुछ कर्तव्य तुम्हारे प्रति भी हैं। लेकिन अब तुम्हारे साथ कोई भेदभाव नहीं होगा।

प्यार मिल जाए, पिया का प्यार मिल जाए,

हाँ ऐसा प्यार मिल जाए,

गौरी शंकर जी के जैसी जोड़ी बन जाएं।

रात के बारह बजे कमरें में टीवी पर ये मधुर गाना बज रहा था जो रमा के रोम-रोम को आज हर्षित कर रहा था क्योंकि शादी के छ: सालों बाद आज तीज के अवसर उसके पति अमर पहली बार अपने हाथों से उसके हाथों पर मेहंदी लगा रहे थे। मेंहदी की डिजाइन भले ही किसी अच्छे डिजानर जैसी ना लगी हो। लेकिन उसमें प्रेम का रंग ऐसा घुला था कि उसकी खूबसूरती रमा के हाथों के साथ चेहरे पर भी मुस्कान ला रहे थे।

तभी अमर ने कहा, “रमा तुम अब आराम करो मैं ये मेंहदी का कोन रखकर आता हूँ।”

मेंहदी का कोन रखकर रमा और अमर सो गए क्योंकि अगले दिन रमा को तीज का व्रत रहना था।
अगले दिन सुबह जब रमा की आंख खुली तो उसने देखा सुबह के सात बज चुके है। वो हड़बड़ाहट में डर कर उठी।

मन ही मन सोचने लगी, “हाय राम आज तो बहुत देर हो गयी। अमर भी गुस्से में ऑफिस चले गए होंगे। सबकी चाय बाकी है।”

वो उठकर फटाफट बाथरूम में गयी तो उसकी नजर अपने हाथों पर रची मेहंदी पर पड़ी, जिसे देख वो एक बार फिर मुस्कुरा उठी और अपना सिर पर हाथ रख कर कहा, “तू भी ना रमा कितना अच्छा था कल अमर का मूड, अब आज पता नहीं कैसा होगा?”

दअरसल अमर घर मे सबसे बड़े बेटे होने के कारण अपनी मां के सबसे आज्ञाकारी बेटे थे। अमर के लिए सबसे पहले माँ उसके बाद उनका परिवार और सबसे अंत मे रमा आती थी। अमर को कभी फर्क ही नहीं पड़ता था कि घर के कामो में उलझ कर रमा कभी अपने लिए कुछ नहीं कर पाती। ना ही उसने कभी इतना ध्यान दिया।

लेकिन इस बार रमा के देवर अमन की शादी के बाद उसने उसकी पत्नी उमा को कहते सुना, “भाभी मैं रास्ते से मेहंदी लगवाकर आयी हूँ। तो मैं शाम का कोई भी काम नही कर पाऊंगी।”

पीछे  से अमन ने कहा, “भाभी जरा कमरे में दो कप चाय और कुछ नाश्ता हम दोनों के लिए भिजवा देना। आज हम बहुत थक गए है। ऑफिस और शॉपिंग के चक्कर में।” कहकर दोनों साथ कमरे में चले गए।

रमा ने “हम्म” कहा ही था कि तब तक उसकी सास गीता जी बोलने लगी, “अरे, यही घण्टा भर खड़ी रहोगी या जाओगी भी? ये लोग घर मे रहकर तुम्हारी तरह दिनभर सो-सो कर चरपाई नहीं तोड़ रहे।अब जाओ जल्दी।”

कहने के लिए रमा घर की बड़ी बहू थी लेकिन उसका सम्मान घर मे कुछ भी नहीं था। घरवालों की नजर में वो बेकार थी और पूरा दिन टाइम-पास करती रहती है। वहीं उसकी देवरानी को नौकरी पेशा होने के कारण घर पर पूरा मान सम्मान मिलता। उसकी पसन्द ना पसन्द का भी ख्याल रखा जाता।

लेकिन आज अमर ने जब अपनी मां ,अमन और उमा को ये कहते सुना तो ना जाने उसको क्यों बुरा लगा। वो उस समय तो बिना कुछ कहे कमरे में चला गया। लेकिन उसके दिमाग में उनकी बात  घूमती रही। इधर रमा ने चाय नाश्ता बना लिया और जब वो देवर देवरानी के कमरे में चाय नाश्ता लेकर जाने लगी तो पीछे से अमर ने रमा को आवाज दे कर रोका और कहा ,”तुम जाओ दूसरा काम करो मैं ये दे कर आता हूं।”

रमा ने आश्चर्य चकित हो कहा, “आप? अरे नहीं! अच्छा नहीं लगेगा, मैं जा रही हूं।”

अमर ने कहा, “क्यों मैं क्यों नहीं? तुम जा सकती हो तो मैं क्यों नही जा सकता?”

कहकर अमर रमा के हाथ से ट्रे लेकर कमरे में देने चले गए। अमर को सामने देखकर उमा और अमन चौक गए। उन्होंने कहा, “भैया आप क्यों आये? भाभी नहीं आ रही थी, तो हमें बुला लिया होता।

“कोई बात नहीं। रमा चाय नाश्ता लेकर तुम्हारे पास आये या मैं, बात तो एक ही है”, कहकर अमर ने अमन के हाथों में ट्रे देकर अपने कमरे के आ गया।

तभी गीताजी कमरे में चाय नाश्ता लेकर आयी और कहा, “ये ले बेटा! चाय पी। ये रमा भी ना आजकल कामचोर हो गयी है। बताओ तो, तुम्हें भेज दिया चाय नाश्ता लेकर? आज कायदे से मैंने भी सुना दिया कि अपनी आदत सुधार ले वरना अपना रास्ता देखो।”

अमर अपनी मां की तरफ देखते हुए कहा, “हाँ, मां काश वो कामचोर होती।”

गीताजी ने कहा, “क्या कहा बेटा?”

तब अमर ने कहा, “कुछ नहीं मां। लाओ चाय दो। माँ आप ठीक कह रही हैं। अब रमा को सुधार कर सही रास्ते पर मुझे ही लाना होगा।”

बेटे के मुँह से ये बात सुनकर गीताजी बड़ी खुश हुई। लेकिन रमा इधर डरने लगी कि अब अमर नाराज ना हो जाए। रमा ने फटाफट रात का काम निपटाया, रात का सबको खाना खिलाकर कमरे में गयी। देखा तो कमरे की बत्ती जली हुई थी और अमर टीवी देख रहे थे।

रमा ने घड़ी की तरफ नजर घुमायी तो रात के साढ़े बारह बज रहे थे। वो सोचने लगी कि आज अमर क्यों अभी तक जगे हुए है रोज तो बत्ती बुझा कर सो जाते हैं। उसे लगा कि आज शायद अमर गुस्से में है। तो वो चुपचाप मेंहदी का कोन लेकर कमरे से निकलने लगी तो अमर ने उसका हाथ पकड़ लिया। अमर के हाथ पकड़ते रमा की आंखों में भय के आंसू भर गए। वो नजरें झुका कर पलटकर अमर के सामने चुपचाप खड़ी हो गयी।

तब अमर ने कहा,”पूछोगी नहीं तुम्हें रोका क्यों मैंने?”

अब भी नजरें झुकाये रमा ने गर्दन के इशारे से पूछा, “क्यों?”

तो अमर ने कहा, “कहीं जाने की जरूरत नहीं। यहीं बैठकर मेहंदी लगाओ। मैं भी देखूंगा इस बार तुम्हे मेहंदी लगाते हुए।”

अमर के मुँह से इतना सुनते रमा ने हँसते हुए गर्दन उठाकर खुशी से अमर की तरफ देखने लगी क्योंकि पहली बार अमर ने कमरे में मेहंदी लगाने की हामी भरी थी। हर बार रमा अपने एक ही हाथ मे रात में मेहंदी लगाती थी क्योंकि घर के कामों में ही उसे देर हो जाती थी। अमर भी देर तक लाइट जलने पर गुस्सा हो जाते थे दूसरे हाथ पर वो खुद लगा नहीं पाती थी और कोई लगाने वाला था नहीं।

रमा ने बैठकर एक हाथ मे मेहंदी लगाकर कहा, “हो गया। मैं लाइट ऑफ कर देती हूँ आप सो जाइये।”

तब अमर ने कहा, “और दूसरे हाथ मे क्यों नहीं लगाया?”

“अरे मैं कैसे लगाऊँगी?”

तब तक अमर ने रमा को टोकते हुए कहा, “तुम कहो तो मैं लगा दूँ तुम्हारे? इतनी अच्छी तो नहीं लेकिन ठीक-ठाक मेहंदी लगा दूंगा।”

रमा ने मुस्कुरा कर हाथ अमर के आगे बढ़ा दिया और अमर हाथ पर मेहंदी लगा रहा था। इधर रमा एकटक अमर को देख सोच रही थी कि अचानक इतना बदलाव, क्या बात है।

नहा धोकर रमा रसोई में गयी तो देखा वहाँ पहले से ही अमर और गीताजी मौजूद थी। गीताजी की घूरती नजरें बता रही थी कि कोई तो बात है।

फिर डरी हुई आवाज में रमा ने कहा, “आप ऑफिस नहीं गए। आप दोनो जाइये मैं बाकी के काम करती हूं। माफी चाहूंगी आज थोड़ी देर तक आंख लग गई।”

अमर ने पलट कर देखा और कहा, “अरे, रमा तुम माफी क्यों मांग रही हो? क्या हुआ अगर लेट उठी तो। मैंने आज ऑफिस से छुट्टी ली है इसलिए नहीं गया। उमा और मैं, अमन हम सब भी तो छुट्टियों में देर तक सोते हैं। तो इसमें डरने या माफी मांगने जैसी कोई बात नहीं। वैसे भी तुम्हारा आज निर्जला व्रत है, तुम आराम से जाओ कमरे में आराम करो। काम की चिंता छोड़ दो, क्यों माँ?”

गीताजी अब बेटे के आगे कुछ बोल नहीं पाई थीं। मन मारकर उन्होंने कहा, “हाँ बहु मुझे तो डायबिटीज है तो मैं तो व्रत रखती नहीं, तो हम दोनों रसोई सम्भाल लेंगे तुम जाओ। कल से काम करना।”

तब तक वहाँ अमन और उमा भी आ गए। अमन ने गुस्से में तपाक से कहा, “ये क्या भाभी? अब माँ और भाईसाहब रसोई के काम करेंगे? और आपको शर्म भी नहीं आएगी।”

रमा ने कहा, “अमन, मैं तो मना ही कर रही हूँ।”

“वो इस बार तो दोनों हाथों में मेहंदी लगी है आपके? क्या बात है? लेकिन फिर भी मेरे जितनी अच्छी नहीं लगी”, उमा ने व्यंग करते हुए कहा।

“अरे आप को भी मेरी तरह दोनो हांथो में मेंहदी लगाने का मन था तो मुझे बोल देतीं, मैं कर देती काम। यू भाईसाहब और माँजी को क्यों परेशान किया।”

इन सब के बीच गीताजी चुप चाप सब कुछ सुन रही थी।

तब अमर ने कहा, “कोई बात नहीं उमा। तुम तो रमा की आदत जानती हो वो किसी से कुछ कहेगी नहीं। लेकिन मैं तुमसे अब कह देता हूं, तुम और अमन चाहो तो अब दोपहर का लंच बना दो। मैंने और मां ने नाश्ता बना लिया है।”

इतना सुनते उमा का मुँह बन गया, उसने तपाक से बोला, “अमन तुम क्यों चुप हो? कुछ बोलते क्यों नहीं? बताओ कि मेरा आज निर्जला व्रत है। मैं नहीं कर पाऊंगी घर के काम?”

अमन की तरफ अमर ने देखा तो उसने नजरें झुका लीं, क्योंकि वो समझ चुका था कि अमर ये सब क्यों कर रहे हैं?

तब अमर ने कहा, “उमा जब तुम निर्जला व्रत होकर घर के काम नहीं कर सकती हो। तो सोचो, रमा सारे काम इतने सालों से अकेले कैसे करते आयी है? क्यों माँ सही कह रहा हूं ना! लेकिन अब रमा के साथ ये भेदभाव नहीं होगा। घर सबका है तो थोड़ा थोड़ा घर के काम भी सबके हिस्से आएंगे।”

उमा ने कहा, “लेकिन भाईसाहब आप भूल रहे हैं, भाभी नौकरी नहीं करती और हम सब नौकरी करते हैं। हमारे पास समय कहाँ है लेकिन भाभी तो पूरा दिन खाली रहती है। हमे तो ऑफिस से जुड़े हजारों काम होते हैं, चिंताएं होती हैं। लेकिन भाभी को किस बात की चिंता और टेंशन? उनको तो सिर्फ खाना बनाना है।”

तब तक गीताजी बोल पड़ी जो अब तक चुपचाप सब सुन रही थी, “तो क्या हम रमा को घर का नौकर बना दें? उमा मुझे कल ये बात समझ मे आयी जब अमर ने मुझे मेरे पुराने दिन याद दिला दिए। जब मैं बहु थी तब मेरी जेठानी नौकरी करने जाती थी और घर आकर आराम करती थी लेकिन मैं सारा दिन चलती रहती थी। जिससे मेरी तबियत खराब रहने लगी। और एक दिन इन सब भेदभाव भरे हरकतों से परेशान होकर तुम्हारे ससुर जी मुझे लेकर अलग हो गए। तुम्हारी बड़ी ननद निशा के साथ भी यही हुआ इसलिए वो भी अलग हुई, लेकिन मैं नही चाहती कि वही चीजें फिर एक बार दोहरायी जाएँ। क्या घरेलू महिला की कोई इज्जत नहीं।”

“जाओ अब तुम दोनों खुशी खुशी पूजा की तैयारियां करो क्योंकि व्रत त्योहार और पूजा पूरे परिवार के साथ खुशी खुशी मनाते हैं, समझीं? रमा आंखों में खुशी के आंसू लिए एकटक कभी अमर को तो कभी उनकी प्यार से लगायी हुए मेहंदी को निहार रही थी। आज सही मायनों में उसकी तीज पूरी हुई थी क्योंकि आज उसको उसके पिया का साथ मिल गया था।

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