कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

नारीवाद: एक सोच या श्राप?

हमारी पहचान हमारे लिंग से नहीं, हमारी सोच से होती हैं। जब तक हमारे समाज में लैंगिक असमानता रहेगी तब तक हमारे समाज का विकास, वंचित रहेगा।

नारीवाद एक ऐसी विचारधारा है जो महिलाओं और पुरुष में समानता का उद्देश्य रखती हैं। अक्सर देखा जाता है की हमारे समाज में नारीवादी विचारधारा को पाश्चात्य संस्कृति की उपज माना है बल्कि इसका सही अर्थ महिला और पुरुष दोनों के जीवन में सभी क्षेत्रों में समानता पर बल देना है। भले ही हमारे इतिहास में कल्पना चावला, ऐश्वर्या राय, किरण बेदी, गीता फोगाट जैसी वीर नारियो ने अपनी शक्ति का उदाहरण दिया है पर हमारे समाज में आज भी रूढ़िवादी सोच का अंत नहीं हो पाया है।

आज भी नारियों को समान अधिकार से वंचित रखा जाता हैं उन्हें सिर्फ़ पराया धन समझ कर उनका वजूद उसके पति के नाम मात्र से बांध दिया जाता है।आज के इस दौर में देखा जाता है की महिलायें पूरा-पूरा दिन घरो में काम करती हैं इसके बावजूद उन्हें ये सुनना पड़ता हैं की, “आखिर वो करती ही क्या हो पूरा दिन?”

जो महिलायें बाहर काम करती हैं, उन्हें भी घर का काम करना पड़ता है। यही बात अगर पुरुषों के सन्दर्भ में देखा जाए तो जो पुरुष बाहर काम करते हैं वो अक्सर घर में कुछ काम नहीं करते। नारीवाद का उद्देश्य इसी विचारधारा को बदलना है ताकि इस समाज में महिलायें और पुरुष बराबरी का अधिकार प्राप्त कर सकें। नारीवाद को न मानना सिर्फ एक सोच नहीं है। यह हमारे अंदर छुपी हुई एक भावना है जो दूसरे लिंग के व्यक्ति को अपने  से आगे नहीं  निकलने देना चाहती।

जब लड़कियां पैदा होती हैं तो उनको बचपन में किचन सेट खेलने  के लिए दिया जाता हैं और लड़को को कार, मोटरसाइकिल। यही चीज़  हमारी सोच को दर्शाती है की बचपन से ही हम एक लड़का और लड़की के कार्यो को बाँट कर उनके बीच असमानता पैदा कर देते हैं।

हमारा समाज आज भले ही कितना आगे बढ़ गया है, हर क्षेत्र में तरक्की कर रहा है पर आज भी ये पुरुष प्रधान ही है और महिलायें अपने हक़ से वंचित है।

आपने देखा होगा…आज भी कई घरो में जब लड़की पैदा होती है तो परिवार में वो ख़ुशी नहीं होती जो एक लड़के के पैदा होने पर होती है।हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में भी काफी पुरुष प्रधान मानसिकता को देख सकते हैं। लड़कियों को अक्सर घरों में खाना बनाना सिखाया जाता है।

मेरे अनुसार ये बात गलत नहीं हैं क्योकि हमें हर चीज़ का ज्ञान होना  चाहिए लेकिन जिस मानसिकता के साथ केवल लड़कियों को ही  सिखाया जाता है वो गलत है। उन्हें ये कहा जाता है की खाना बनाना,  ससुराल में काम आएगा। यही चीज़ लड़कों को क्यों नहीं सिखायी जाती है? इससे हमे आज के समाज की मानसिकता दिखती है। जिसने महिलाओं और पुरुषों के कामो को विभाजित कर दिया है। हाल ही मे करवाचौथ का उदाहरण आप देख सकते हैं, जहाँ केवल महिलायें अपने पती की लम्बी उम्र के लिए व्रत करती हैं। यही चीज़ एक पुरुष अपनी  पत्नी के लिए क्यों नहीं करता? हमारे समाज में पुरुषों के लिए ऐसा व्रत क्यों नहीं बनाया गया है।

इन सभी उदहारणों से हमें आज भी पितृसत्तात्मक समाज के होने की पुष्टि मिलती हैं। महिलाओं और पुरुषों में असमानता का एक कारण शिक्षा का अभाव हैं। हमें ये चीज़ कोई बताता ही नहीं हैं की महिलायें और पुरुष दोनों ही समाज के सिक्के के दो पहलू हैं, जिनका बराबर होना उतना ही जरुरी है जितना एक सिक्के के दोनों पहलू का होना होता हैं। हालांकि शैक्षिक नामांकन में पिछले दो दशकों में काफी बढ़ोतरी हुई है साथ ही लैंगिक समानता की स्थिति प्राप्त हो रही है।

अभी भी समाज में पूरी तरह महिला और पुरुष में समानता नहीं हैं। साथ ही इसके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रगति के बावजूद आज भी भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक मानसिकता देखी जाती हैं। पितृसत्ता एक ऐसी सोच है जिसमे महिलाओं पर पुरुषों का नियंत्रण होता है। उनके ज़िन्दगी का हर फैसला यहाँ तक की उन्हें घर से बाहर निकलना हैं या नहीं, इसका भी फैसला पुरुषों के द्वारा लिया जाता हैं।

इसका नुकसान महिला और पुरुष दोनों को होता है। जब एक पुरुष रोता है तो उसे सब ये कहते हैं की,”औरतों की तरह क्यों रो रहे हो?” इसका ये मतलब है की आज भी बहादुरी का पर्याय केवल पुरुषों को ही समझा जाता है।नारीवादी आंदोलन का उद्देश्य पितृसत्ता को जड़ से समाप्त करना है क्योंकि पितृसत्ता केवल एक सोच नहीं है बल्कि एक बीमारी है जो हमारे समाज को धीरे-धीरे खोकला बनाये जा रही हैं।

नारीवाद वो विचारधारा है जो नारी को उसका खोया हुआ स्थान दिला कर पुरुषों से बराबरी दिलाने के संकल्प में हैं। अगर आज के समय देखा जाए तो यहाँ दो विचारों के लोग हैं। एक जिनकी नारीवादी सोच है और दूसरी जो नारीवाद को नहीं मानते। इन दो सोच के आपस में अलग होने का मुख्य कारण उनका वातावरण और विचार होते हैं।

जहाँ कुछ महिलायें नारीवादी विचारो की हैं, अपने आपको किसी से कम नहीं मानती, ज़िन्दगी के सफर में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहती हैं। अपनी सोच को सिर्फ घरो तक सीमित नहीं रखती हैं। ऐसी सोच वाली महिलाओं को अपने जीवन में काफी द्वेष भी देखना पड़ता हैं। समाज में उनको सही नज़रिये से नहीं देखा जाता हैं। नारीवादी सोच न रखने वाला वर्ग उनको कोसता रहता है।

तो दूसरी तरफ कुछ ऐसी महिलायें हैं जिन्होंने पौराणिक रूढ़िवादी सभ्यता को अपनाकर अपने आपको उसी में ढाल लिया है। वे मानतीं हैं की महिलाओं का काम अपने घर और अपने पति की सेवा करना है। इनकी सोच इनके घर की चार दीवारों में ही कैद हो चुकी है।

आज जहाँ नारीवादी सोच रखने वाली महिलायें अपने दम पर अपनी ज़िन्दगी जी कर दिखा रही हैं और वे किसी के सामने हार न मानने का जज्बा रखती हैं। वहीं दूसरी तरफ कुछ महिलायें अपने छोटे-छोटे फैसलों और ज़रूरतों के लिए अपने घरो के पुरुषों की इजाजत का इंतज़ार करती हैं।

नारीवादी आंदोलन एक ऐसे समाज को बनाने के लिए काम कर रहा है जहाँ लोग एक समान अधिकार प्राप्त कर उनके लिंग से नहीं बल्कि उनके काम से पहचाने जायेंगे। आज के समय में अगर एक औरत ही दूसरी औरत का समर्थन नहीं करेगी तो नारीवाद की ये विचारधारा कभी सफल नहीं हो पाएगी।

हमारे समाज का विकास हमारी सोच पर निर्भर करता है।अंत में मै बस इतना ही कहना चाहूंगी की हमारी पहचान हमारे लिंग से नहीं, हमारी सोच से होती है। जब तक हमारे समाज में लैंगिक असमानता रहेगी तब तक हमारा समाज विकास से वंचित रहेगा।

 

इमेज सोर्स : JUICE|NEERAJ GHAYWAN|SHEFALI SHAH|ROYAL STAGE BARREL SELECT LARGE SHORT FILMS|Youtube

 

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

3 Posts | 2,767 Views
All Categories