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पता नहीं कितनी कहानियाँ... बढ़ती उम्र के साथ घटती उम्मीदों की। बड़े से घरों में बढ़ती दूरियों की। कितने उधड़ते-बुनते रिश्तों से बना था ये 'आशालय'।
पता नहीं कितनी कहानियाँ… बढ़ती उम्र के साथ घटती उम्मीदों की। बड़े से घरों में बढ़ती दूरियों की। कितने उधड़ते-बुनते रिश्तों से बना था ये ‘आशालय’।
प्रकृति की गोद में, सह्याद्री पर्वत माला से घिरे, अरब सागर की खाड़ी का वो हिस्सा, छोटी सी नदी सा लगता और इनके बीचों-बीच बना वो आशाओं का बागान, “आशालय”।
मैं और मेरे पति ऐसे एक समूह से जुड़े हैं जो सामाजिक कार्यों से जुड़ा हुआ है। व्यस्तता के कारण हम दोनों इतना बढ़-चढ़ कर भाग नहीं ले पाते, लेकिन जब भी मौका मिलता है, अपनी उपस्तिथि लगाने का पुरजोर प्रयास करते हैं। पिछले शनिवार भी ऐसा मौका मिला। पनवेल के आगे का रास्ता मानसून में किसी जन्नत से कम नहीं लगता और फिर पतिदेव के साथ बाहर जाने का मौका! दोनों केक पर चेरी की तरह थे।
हसीं वादियों से गुज़रते हुए, कांदा-भज्जी और भुट्टों का आनंद लेते हुए हम लोग हमारे गंतव्य पर पहुंचे। एक दम्पति ने हमारा बड़े खुले मन से स्वागत किया। अन्दर बहुत से वृद्ध अपने चेहरे पर मुस्कान का चोला पहने खड़े थे मानो उन्हें बहुत समय से हमारी प्रतीक्षा थी।
थोड़ी देर आराम करने के बाद वहाँ के संचालक से बात हुई। वो दोनों पति-पत्नी थे जो आज से 25 साल पहले अपने दोनों बच्चों को खो चुके थे। उनका लड़का मुंबई के KEM हॉस्पिटल से MBBS की पढ़ाई ख़त्म करने ही वाला था कि एक एक्सीडेंट में उसकी मृत्यु हो गयी और उसके ठीक एक साल बाद, उनकी लड़की, जो कि जुड़वाँ थी, गुज़र गयी। अपने जीवन का वहीं अंत होते देख दोनों मुंबई छोड़कर पनवेल आ गए और अपनी सारी संपत्ति “आशालय” को बनाने में लगा दी।
कहानी सुनने के बाद, सम्मान की एक सीढ़ी और चढ़ गए थे वो दोनों। पौधारोपण के बाद, थोड़े भजनों से वहाँ के माहौल को भक्तिमय कर, हम सब लोग वहाँ उपस्थित बुजुर्गों से बात-चीत करने लगे।
मेजर राठौर से पता चला कि उनकी बहु को उनका ज़रूरत से ज्यादा discipline पसंद नहीं था तो उनके बेटे ने उन्हें यहाँ आने की हिदायत दे डाली। बीवी से ये कहने की हिमाकत ना कर सका कि इस discipline ने ज़िन्दगी को कहीं ज़्यादा व्यवस्थित और काबिल बनाया है। देश की सेवा करने का जज़्बा इसी discipline से ही आया था।
शर्मा जी का परिवार मुंबई जैसे शहर में बाकी सारे खर्चे उठा सकता था, पर माँ के गुज़रने के बाद बूढ़े बेसहारा बाप का खर्चा उठाना उनके लिए नामुमकिन था। किटी पार्टी के बिना इस शहर में रहना मुश्किल था लेकिन पिताजी के हर महीने के चेक-अप का ख़र्चा, महीने के बजट को बिगाड़ देता।
मूल चित्र: Pixabay
शिंदे जी, भारद्वाज जी, व्यास जी….और पता नहीं कितनी कहानियां….उधड़ते-बुनते रिश्तों की। परवरिश पर उठती उँगलियों की। बढ़ती उम्र के साथ घटती उम्मीदों की। बड़े से घरों में बढ़ती दूरियों की। निहारती आँखों की। पुराने सूटकेस में दबी पोते-पोती की तस्वीरों की। बड़े लाड से अपने बेटे के लिए बहू लाने की। हज़ारों साल जीने और ढेरों आशीर्वाद देने की…..और…..आशालय में हर दिन घटती उन आशार्थियों की….
व्यथित सा मन, व्यग्र समंदर में गोते लगा ही रहा था कि वहाँ से जाने का समय हो गया। हम लोग सबसे मिलने लगे और शाम का नाश्ता करके हम सबसे विदा ही ले रहे थे कि तभी….
“सुनिए! आप लोग नवी मुंबई से आये हैं ना? मेरा बेटा वाशी में रहता है……मुझे 5 साल पहले छोड़ के गया था फिर लेने ही नहीं आया। आप लोग तो वाशी जानते होंगे ना, मुझे भी छोड़ दीजियेगा !”
पीछे से मिसेस पाटिल की उन छलकती आँखों ने हम सबकी आँखों में भी आंसू छोड़ दिए …….
Now a days ..Vihaan's Mum...Wanderer at heart,extremely unstable in thoughts,readholic; which has cure only in blogs and books...my pen have words about parenting,women empowerment and wellness..love to delve read more...
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