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मुझे पति ‘परमेश्वर’ नहीं एक हमसफ़र की ज़रुरत है…

जो पति अपनी पत्नी को उचित सम्मान और प्यार ना दे, वो उसी दंड का पात्र हो, उसी अवहेलना का पात्र हो, जिसकी खरा ना उतारने पर, औरत होती है। 

“हमारी शादी को दस साल हो गए हैं श्वेता, लेकिन मुझे कभी भी महसूस नहीं हुआ कि मेरे जीवन मे किसी ऐसे आदमी है जिसे लोग ‘हमसफ़र’ कहते हैं…”

जीवन के अंतिम पलों तक साथ रहने वाला रिश्ता, पति-पत्नी का रिश्ता वो संबंध है जिसकी कोई सीमा नहीं, जिसमे कोई स्वार्थ नहीं। माता-पिता, बच्चे, सगे-संबंधी जब साथ छोड़ देते हैं, उस समय एक ही हाथ जीवन के उस अंतिम पड़ाव में हमारे हाथ में होता है, हमारी जीवन-रेखा बना हुआ, अडिग, और भी मज़बूत और भी सुलझा और भी सामंजस्य और भी प्यार से भरा हुआ।

लेकिन अफ़सोस कुछ लोग इस अर्थ को समझ ही नहीं पाते। उन्हें पूरी ज़िन्दगी इस बात को समझने में लग जाती है कि जिसे आज वो तुच्छ और निम्न बताते हैं, बार-बार उन्हें उनकी नज़रों में गिराते हैं, हर पल उनका दुर्भाग्य और भी बड़ा आकार ले रहा होता है।

ऑफिस में काम करने वाली सीधी लड़की निशा, ना जाने इतनी ऊर्जा कहां से लाती है। रोज़ उसके चेहरे पर एक अदम्य तेज, काम में चंचलता, वाणी में मिठास होती है। कोई दिन ऐसा नहीं होता जब उसकी बात में कोई शिकवा-शिकायत हो, गुस्सा हो, दुःख हो या क्लेश हो। चेहरे पर मुस्कान का गहना पहने वह सर्वत्र आनंद बिखेरती।

एक दिन काम करते-करते उसके पति का वीडियो कॉल आया। वो उसे पूछने लगा कि वो क्या कर रही है। काम बताने पर उसने उससे साबित करने को कहा कि वो कैमरा कंप्यूटर की तरफ करके बताये कि वो सचमुच काम कर रही है। फिर, उसने कहा कि सुबह तो कोई और ड्रेस पहन कर निकली थी तो अभी कैसे बदल गयी, तो उसका भी स्पष्टीकरण निशा ने दिया। और उसके पति ने फ़ोन रख दिया। मुझे थोड़ा अजीब लगा लेकिन किसी के व्यक्तिगत मामले में दखल नहीं देना मुझे उचित लगा।

अगले दिन निशा फ़ोन पर बात कर रही थी। हर मिनट सॉरी-सॉरी बोल रही थी और रोए जा रही थी। मैं अपने किसी काम से वहां से निकल रही थी तो देखकर फिर से ठिठक गयी। अन्तर्मन में द्वंद्व था। पूछूँ या रहने दूँ। कहीं उसे बुरा तो नहीं लगेगा। पति-पत्नी के बीच की बात होगी, क्यों बीच मे दख़ल देना। या, इतनी सहज और समझदार लड़की है। कोई तो बड़ी बात होगी जो इतना परेशान हो रही है। क्या पता मैं कुछ मदद कर सकूँ ।

निशा के फ़ोन रखते ही मैंने उसे पूछने की हिम्मत की, “क्या हुआ निशा? थोड़ी परेशान लग रही हो?”

“कुछ खास नहीं।” वो नकली सा मुस्कुराते हुए जाने लगी।

“तुम मुझे बता सकती हो, मन हल्का हो जाए शायद।” मैंने उसके मना करने के बाद भी पूछने की हिम्मत बटोरी।

मेरा कहना था और जैसे आँसुओं की सुनामी आ गयी। हमेशा मुस्कुराती निशा की आंखों में आँसू ना जाने कहाँ छुप कर बैठे थे। उसके ओजस्वी आँखों ने तो हमेशा खुशी और हँसी से ही साक्षात्कार करवाया था हम सब लोगों का।

“हमारी शादी को दस साल हो गए हैं श्वेता, लेकिन मुझे कभी भी महसूस नहीं हुआ कि मेरे जीवन मे किसी ऐसे आदमी की उपस्थित है जिसे लोग ‘हमसफ़र’ कहते हैं, जैसा मैं सोचा करती थी। श्रेया, मेरी बेटी, उसके अलावा ऐसी कोई कड़ी नहीं है जो हम दोनों को जोड़ती हो। श्रेया की ज़िम्मेदारी भी उनकी नहीं है, वो सिर्फ फॉर्म में नाम लिख कर पूरी हो जाती है।”

“मैं सिर्फ उन्हें अच्छा खाना बनाकर, घर संभालकर, बच्ची को बड़ा करने और पैसे कमाकर लाने वाली एक मशीन लगती हूँ, जिसे वो सही से काम नहीं करने पर अपने तरीके से ठीक करते रहते हैं। कहीं मेरे साथ घूमना, समय निकालना, बातें करना उन्हें नहीं भाता। पैसों को खर्च करने का भी कोई दायरा नहीं, श्रेया के भविष्य के लिए जो मैं अपने हिसाब से बचाती हूँ, वो भी उन्हें पता चल जाने पर छीन लिया करते हैं।”

“सास-ससुर ने तो कभी अपनाया ही नहीं, पति से उम्मीद थी वो भी अब कोसों दूर-दूर तक पूरी होती नजर नहीं आती। पिछले साल माँ के चले जाने के बाद, दुनिया वीरान लगती है। कोई नहीं है जिससे अपने मन की बात कह सकूँ। यहां तक कि अपनी बेटी के सामने कभी रोती तक नहीं, शायद कमज़ोर माँ नहीं बनना चाहती मैं उसके सामने।”

“तुम छोड़ क्यों नहीं देती निशा ऐसे इंसान को?” मैंने धुंधली आंखों को साफ करते हुए कहा।

“इतना आसान नहीं है श्वेता। मेरी बेटी ज़िन्दगी भर अपने पापा के नाम से वंचित रहेगी। मैं उसे उस कुंठा का शिकार नहीं होने दे सकती जो कि बच्चा ‘अलग हुए मम्मी-पापा’ से होता है। मैं उसके उन प्रश्नों के जवाब देने की हिम्मत नहीं कर पाऊंगी कि सबके पापा उनके साथ रहते हैं तो उसके क्यों नहीं। सिर्फ मेरे सहने से उसका भविष्य सुधरता है तो मुझे ये ज़िन्दगी मंज़ूर है।” और, वो बिलख-बिलख के रोने लगी।

इतने भारी मन से मैंने उसे जाने दिया। मैं कहना चाहती थी उससे कि क्यों वो अपने लिए ऐसी नर्क की ज़िंदगी चुन कर भी खुश रहने का छलावा कर रही है। जो इंसान उसकी बेटी का भी सगा नहीं, उसे उसका नाम देने के लिए अपनी पूरी ज़िंदगी की खुशियां दाव पर लगा रही है। क्यों नहीं चुन लेती वो अपने लिए सच्ची खुशियां? क्या वो इतनी सक्षम नहीं कि अपनी बेटी को पाल पोसकर बड़ा कर सके?

लेकिन फिर उसी समाज का चेहरा मेरी आँखों के सामने चौंधिया गया जो उसे अकेले जीने ही नहीं देगा। हर कदम तानों और उलाहनों से उसी की निंदा करेगा। उसे ‘छोड़ी हुई’ का तमगा देगा। उसकी जिंदगी को शायद और भी बद्तर कर देगा।

हम औरतों को कोई परमेश्वर नहीं चाहये जिसकी हम पूजा करें, अपनी झूठ-मूठ की निष्ठा प्रमाणित करने की ज़रूरत पड़े। हमें सिर्फ एक ऐसा साथी चाहिए जो थोड़ा सा हमें समझ सके, हमारी भावनाओं की कद्र कर सके, उनके जीवन में थोड़ी सी जगह दे जिसकी कमी कोई और पूरी ना कर सकता हो।

‘सोच बदलो दुनिया बदलेगी!’ औरत आज भी अपने आपको हर कदम चुनौती के लिए खड़ा पाती है, कसौटियों पर आंकी जाती है। कितना बलिदान कर सकती है, उस मापदंड पर उसकी अच्छाई को आंका जाता है। लेकिन जिस दिन वो अपने हक़ और खुशी के लिए खड़ी हो जाए, उस दिन मॉडर्न, संस्कारहीन, औरत ही ना होने का कलंक लेती है।

सावित्री बनने की उम्मीद सिर्फ औरत से ही क्यों, कभी पतियों से भी परमेश्वर बनने की आस रखी जाए। और, जो पति अपनी पत्नी को उचित सम्मान और प्यार ना दे पाए वो भी उसी दंड का पात्र हो, उसी अवहेलना का पात्र हो, जिसकी खरा ना उतारने पर, औरत होती है।

मूल चित्र : Still from Short Film Sanskari Bahu, YouTube

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Shweta Vyas

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