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इस त्यौहार दिखावे के बड़े उपहार नहीं, मिलकर छोटी से छोटी खुशियां बांटें!

तुम ये सब क्या करने लगीं? खुशी की एक प्लेट जब जाती थी तब ये हिरस, स्वार्थ, दिखावा कुछ नहीं था। खुशियों के त्योहार में बुराई-भलाई में लगी हो?

तुम ये सब क्या करने लगीं? खुशी की एक प्लेट जब जाती थी तब ये हिरस, स्वार्थ, दिखावा कुछ नहीं था। खुशियों के त्योहार में बुराई-भलाई में लगी हो?

“अरे सुनते हो!” मधु ने मयंक को आवाज लगाते हुये कहा।

“आज लिस्ट बना ली है दीवाली की, शाम को जल्दी आना आफिस से, बाज़ार जाना है।”

मयंक ने कहा, “ठीक है मधु, पाँच बजे तैयार रहना।”

दोनो शाम को बाज़ार गये। मधु ने कहा, “सुनिये जी, पहले सबको हम मिठाई एक प्लेट मे रख कर भिजवाते थे। याद है आपको!”

“हाँ हाँ याद है!”

“खील, बताशे और मिठाई और फल। बस ये लगता था, अच्छी-अच्छी मिठाई सबको दें, सब खुश हो जाएँ। फिर कुछ सालों बाद, आधा किलो मिठाई भेजी जाने लगी। समयानुसार बदलाव था।”

“हाँ मधु बदलना भी चाहिए। सभी डिब्बा भेजने लगे थे।”

“फिर कुछ सालों में एक किलो मिठाई जाती थी। अब मिठाई में मिलावट की वजह से, मेवे, काजु-बादाम देने लगे।”

“ठीक भी है। मिठाई सब बिमारी की वजह से कम खाने लगे हैं। मेवे नुकसान भी नहीं करते। या बिस्किट, मेवे, नमकीन के सुंदर डिब्बे सजे मिल जाते हैं। देने में भी सुंदर होते हैं।”

“हाँ जी। अब तो, ऐसे सजे उपहार या घर मे प्रयोग करने का सामान चलने लगा है। पिछले साल बैडशीट दी थी पड़ोस में मीना ने। रीया कप का सैट दे गयी थी। इस साल मुझे भी कुछ ऐसा ही खरीदना है।”

“ठीक है जी, जो चाहे ले लेना। घर की लक्ष्मी को नाराज़ कौन करे”, मयंक ने मुस्काते हुए कहा।

दो तीन साल तक मिठाई, मेवे और उपहार दिये जाने लगे।

इस साल दीपावली पर मधु ने कहा, “मयंक सुनिये, आज मन परेशान हो गया मेरा।”

“क्युं क्या हुआ?”

“देखिये पिछले साल दीपावली पर पास के बाज़ार से हमने लिया था उपहार और आसपास में दिये उपहार की उलट फेर भी की।”

“उलट फेर क्या?”  मयंक ने पूछा।

“वो रीना ने कटलरी सेट दिया था। हमारे तो दो तरह के हैं घर में। मैंने वो दीपा को दे दिया। और रीना ने अपना पहचान लिया, दीपा से पूछा, ‘मधु ने दिया है क्या?’ तो दीपा ने मुझे बता दिया कि उसे बुरा लगा। और ऐसे ही जो पास के बाज़ार से लिये, सबने वहीं से वो ही लिए। दिये हुए कुछ लौट कर मेरे पास आ गये। मैंने जो दिये थे कितने मन से लाई थी जूली के लिए, उसने दूसरे को दे दिया। और कुछ, दूसरों को पता चल गया कि एक का उपहार दूसरे को दिया। इसलिये परेशान हूँ। अब किसको क्या देना है, जो एक दूसरे पर ना पहुँचे और अबकी बार मेन बाजार से लायेगें।”

“मधु, तुम ये सब क्या करने लगी? खुशी की एक प्लेट जब जाती थी तब ये हिरस, स्वार्थ, दिखावा कुछ नहीं था। खुशियों के त्योहार में बुराई-भलाई में लगी हो”, मयंक ने कहा।

“ये सब, हम किसी से कम नहीं, दिखाया जा रहा है। जबकि एक का उपहार, दूसरे को दिया जाता है। खुशियाँ मनाने की जगह, अब ये सोचने मे समय व्यर्थ करना कि किसको हमने क्या दिया? या किसके घर से क्या आया?
ये सब लेन-देन त्योहार का रूप बिगाड़ रहे हैं।”

“सुनो आज शाम सोसायटी की मीटिंग में सबको बुलाता हूँ।”

“क्यूँ क्या करोगे आप मयंक?” मधु ने पूछा।

“तुम देखती जाओ।”

शाम को मीटिंग मे मयंक ने कहा, “दोस्तों मुझे कुछ कहना है।”

“दिवाली खुशियों का त्योहार है, पर अब इसका रूप बदलता जा रहा है। उपहार, एक दूसरे से बढ़कर देने की इच्छा, बेकार का फिजूल खर्च और बर्बादी है, क्योंकि हम एक उपहार दूसरे को देते हैं तो वह प्रयोग करें ना करें वह तीसरे को दे देते हैं। बहुत कम होता है कि कुछ उपहार प्रयोग में लाए जाएँ।”

“इन सब बातों से अगर आप सहमत हैं, तो मैं एक सुझाव देना चाहता हूं।”

“क्यों ना! हम दिवाली के दिन, घर ना जाकर एक दूसरे के, सब यहीं नीचे पार्क में, एक मिठाई, घर या बाहर से ली हुई, या मेवे का डिब्बा लाएं और सब आपस में मिलकर खाएं? और, जो देने में हम लोग खर्च करते हैं, वह पैसा इकट्ठा करके हम किसी अनाथालय या वृद्धाश्रम जाकर उन बच्चों के साथ, बड़े-बुजुर्गों के साथ दिवाली मनाएं? उनको हम वह उपहार दें, जो उनकी ज़रूरतों के समान है?”

सब लोग इस राय से बहुत खुश हुए और तब से सोसाइटी में सब, दिन में मिलकर, ज़रूरत का सामान लेकर, अनाथलय और वृद्धाश्रम जाते हैं और वहाँ दिवाली मनाते हैं। और रात को घर की बनी मिठाई या बाज़ार की मिठाई, थोड़ा बहुत मेवा लेकर सब पार्क में आते हैं और एक दूसरे को शुभकामनाएं देकर खाते हैं।

ज़िंदगी में समझदारी से खुशियों को बटोरा जा सकता है। आइये, मिलकर उन ज़रूरतमंद लोगों के साथ दिवाली मनाएं। उनके घर खुशियों की रोशनी बिखेरें।

मूल चित्र : Canva

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