क्या एक सच्ची कहानी और सशक्त अभिनय हल्की-फुल्की हॉरर कॉमेडी के आगे फीकी है या हम दर्शकों की पसंद को एक स्तर से ऊपर उठाने की ज़रूरत है?
क्या एक सच्ची कहानी और सशक्त अभिनय हल्की-फुल्की हॉरर कॉमेडी के आगे फीकी है या हम दर्शकों की पसंद को एक स्तर से ऊपर उठाने की ज़रूरत है?
2019 की दीवाली के दो दिन पहले बॉक्स ऑफिस पर दो फिल्मों ने अपनी आतिशबाज़ी दिखाई। 25 अक्तूबर 2019 को रिलीज़ हुई दो फिल्में हैं – सांड की आंख और हाउसफुल 4
आइए देखें ऐसा क्या है इन फिल्मों में –
जहां सांड की आंख देखकर सिनेमाघरों से बाहर आनेवाले दर्शक काफी संतुष्ट दिखाई दिए, वहीं हाउसफुल 4 देखकर आने वाले दर्शकों की प्रतिक्रिया काफी अलग-अलग तरह की दिखाई दी। हाउसफुल 4 के कुछ दर्शक बोरियत की शिकायत कर रहे थे, कुछ फूहड़ हास्य से भरी फिल्म बता रहे थे तो कुछ ये कहकर खुश थे कि ऐसी हल्की-फुल्की कॉमेडी ने उन्हें तनावमुक्त कर दिया।
सांड की आंख देखकर आनेवाले सभी दर्शक खुश नज़र आए। कुछ लोगों ने यह कहकर सराहा कि दो बुज़ुर्ग महिलाओं के जीवन का असली चरित्र देखकर वे काफी प्रभावित हुए। कुछ दर्शकों ने कहा कि नारी सशक्तिकरण सिर्फ नारे लगाने या छोटे कपड़े पहनने की आज़ादी नहीं है, तो इस फ़िल्म में नारी शक्ति का सही रूप सामने आया है।
सांड की आंख के लिए सभी प्रतिक्रियाएं सकारात्मक होते हुए भी इस फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर आज तक 15.33 करोड़ का कलेक्शन किया, तो बहुत सारे कलाकारों वाली हाउसफुल 4 ने 145.27 करोड़ का व्यापार किया(ये संख्याएँ पोस्ट लिखते समय के आसपास की औसतन संख्याएँ हैं)
आइए इसका कारण खोजने का प्रयास करें –
फरहाद सामजी द्वारा दिग्दर्शित हाउसफुल 4 एक मल्टी स्टारर फिल्म है। इस फिल्म में मुख्य किरदार निभाया है अक्षय कुमार, बॉबी देओल, रितेश देशमुख, कृति सनोन, पूजा हेगड़े और कीर्ति ने। इस फ़िल्म में केमियो रोल में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और राजा दगुबत्ती भी हैं। जॉनी लीवर, जेमी लीवर और चंकी पांडे कॉमेडियन की भूमिका में हैं।
फ़िल्म एक पुनर्जन्म और वर्तमान की प्रेमकथा है। सभी कलाकार, 6 सौ साल पहले के राज घराने से थे। वर्तमान में वे अपनी अधुरी प्रेम कहानी पूरी कर रहे हैं जिसमें उनकी प्रेमिकाओं की अदला बदली ही चुकी है। फ़िल्म की पूरी कहानी इसी पटकथा पर चलती है। फ़िल्म के संगीत ने काफी प्रसिद्धि पाई है। खासकर ‘बाला’ गाने ने। इस गाने के एक स्टेप में अक्षय कुमार अपनी जाघों पर हाथ मारते हैं और इस गाने को और प्रसिद्ध करने के लिए उन्होंने ‘बाला चैलेंज’ के नाम से इंटरनेट पर सनसनी फैलाई है। ‘बाला चैलेंज’ का पागलपन काफी वायरल हो रहा है। इस चैलेंज को अपनाने वाले लोगों की तादाद देखकर लगता है कि ऐसे बेकार के चैलेंज लोगों में बहुत लोकप्रिय है।
वहीं पर सांड की आंख फ़िल्म हरियाणा के जोहड़ी गांव की दो महिलाओं के कामयाब जीवन का चित्रिकरण है। यह कहानी एक सत्य जीवन चरित्र पर आधारित है। फ़िल्म का दिग्दर्शन तुषार हीरानंदानी ने किया है। इस फिल्म में तापसी पन्नू और भूमि पेडणेकर दो बुज़ुर्ग महिलाओं की भूमिका निभाती नज़र आई। जोहड़ी गांव की ये महिलाएं हैं चंद्रो तोमर और प्रकाशि तोमर।
बड़ी दिलचस्प और जिंदादिल चंद्रो और प्रकाशि की जिंदगी में शूटिंग का खेल एक तूफान की तरह आया और उनकी जिंदगी के मायने बदल गए। चंद्रो अपनी पोती को शार्प शूटिंग की कोचिंग के लिए रोज़ ले जाती है और दो दिन बाद अपनी पोती को निराश होते हुए देख ख़ुद बंदूक उठाती है और गोली दाग देती है। निशाना बुल्स आय पर लगता है। दूसरी बार फिर तीसरी और चौथी बार भी वही निशाना लगता है। और यही है फ़िल्म के शीर्षक का सार ‘सांड की आंख’। अब दादी चुपके चुपके ट्रेनिंग लेना शुरू करती है । एक कॉम्पटीशन में भी जाती है और मेडल जीतकर आती हैं। अब चंद्रो की देवरानी प्रकाशि भी शूटिंग सीखना शुरू करती है। दोनों देवरानी जेठानी ने अब भारत के महिला शार्प शूटरों में अपना नाम दर्ज करवाया है। इस सफर में चंद्रो और प्रकशि को समाज और परिवारवालों के कई ताने सुनने पड़े। लेकिन वो दोनों अपनी राह चलती रहीं। दोनों ने मिलकर 200 से भी ज़्यादा मेडल जीते!
फ़िल्म देखकर आप कई बार भावुक हो जाते हो। यह फिल्म दर्शकों को एक भावनात्मक सफर पर ले जाती है। जहां इस बात पर हम सहमत हो जाते हैं कि उम्र बस एक अंक है। मन में लगन हो तो हम आकाश छू सकते हैं। इस फ़िल्म से बाहर आते वक़्त हम मन में प्रेरणा और उत्साह के भाव महसूस करते हैं। भूमि और तापसी ने बुज़ुर्ग महिलाओं के किरदार बखूबी निभाएं हैं। नकारात्मक किरदार प्रकाश झा ने भी बहुत सशक्त निभाया है।
सांड की आंख के इतने सकारात्मक कथा, पटकथा, संवाद और अभिनय के बावजूद इस फिल्म ने हाउसफुल 4 से नौ गुना कम कलेक्शन किया है। यह तथ्य सोचने पर मजबुर कर देता है कि क्या एक सच्ची कहानी और सशक्त अभिनय हल्की-फुल्की हॉरर कॉमेडी के आगे फीकी है? या हम दर्शकों की पसंद को एक स्तर से ऊपर उठाने की ज़रूरत है?
काफी सोचने पर इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि हाउसफुल 4 की सबसे मज़बूत बात है उस फ़िल्म की स्टार कास्ट। जहां तापसी और भूमि को बॉलीवुड में आए अभी 4-5 साल ही हुए हैं वहां अक्षय कुमार पिछले दो दशकों से दर्शकों का मन रिझा रहे हैं। बॉबी देओल और रितेश देशमुख भी एक लंबे अरसे से फिल्मी दुनिया का हिस्सा हैं।
हाउसफुल 4 में सारी नायिकाएं बस एक शो पीस की तरह चित्रित की गई हैं। पर शायद हमें इस तरह हिंदी फिल्म जगत में स्त्रियों के देखने की आदत पड़ चुकी है और यही तथ्य बेहद निराशाजनक है। साथ ही अक्षय कुमार, बॉबी दओल और रितेश देशमुख की फैन फॉलोइंग भी काफी ज़्यादा है। कई दर्शक तो बस अपने पसंदीदा हीरो को देखने इस फिल्म में आए थे। यह बात भी गौरतलब है कि यह फिल्म हाउसफुल की चौथी कड़ी है। जिन लोगों ने भी पहली तीनों कड़ियां देखी हैं वह चौथी कड़ी ज़रूर देखना चाहते थे।
यूट्यूब के एक वीडियो में नीना गुप्ता और सोनी राजदान जैसे वरिष्ठ कलाकारों ने भी सांड की आंख पर तंज कसना नहीं छोड़ा, इन दोनों का कहना था कि बुज़ुर्ग महिलाओं का किरदार तुषार हीरानंदानी हमें ही दे देते।
कंगना रनौत जो हमेशा किसी ना किसी कलाकार पर अपने शब्दों के तीर छोड़ती रहती हैं, उनका भी यही कहना था कि तापसी और भूमि को बुज़ुर्ग महिलाओं के किरदार नहीं निभाने चाहिए। इस तरह की बातों का विरोध करते हुए अनुपम खेर सामने आए और कहा कि कैसा किरदार निभाना है यह हर कलाकार का निजी हक है। खुद अनुपम ने 20 की उम्र में 60 साल के बुजुर्ग का रोल निभाया था। नीना गुप्ता और सोनी राजदान जैसे कलाकारों के निराशावादी रवय्ये भी फ़िल्म के प्रमोशन में कुछ हद तक नकारात्मक भूमिका निभाते हैं। वहीं पर बाला चैलेंज और इसके समर्थकों ने काफी दर्शक बटोरे हैं।
अपनी तमाम कमियों के बावजूद हाउसफुल 4 ने सांड की आंख से 9 गुना ज़्यादा व्यापार किया। यह सिर्फ आंकड़ा नहीं यह एक सोच है जो बताती है कि आज भी आम जनता नारी सशक्तिकरण और जीवन चरित्र के बजाय फूहड़ और तनावमुक्त हास्य देखना ज़्यादा पसंद करती है। इसका सबूत है ये तथ्य कि जहां हॉउसफुल 4 को देखने पूरा परिवार जा रहा है, वहीं सांड की आँख को देखने या तो सिर्फ औरतें या कुछ ही परिवार जा रहे हैं। ऐसा इसलिए भी है क्यूंकि ये एक फेमिनिस्ट फिल्म है, और अभी फेमिनिस्ट फिल्मों को हमारे समाज ने पूर्णतः नहीं अपनाया है।
वैसे भी हमारे देश में जहां पैसा खर्च करने की बात आती है, वहाँ आज भी, ज़्यादातर घर के आदमी ही फैसला करते हैं कि मनोरंजन किस ज़रिये से होगा, या साफ़ सीधे शब्दों में कहें तो परिवार में कौन सी फिल्म देखी जायेगी। और जहां बात हो फेमिनिस्ट फिल्मों की, तो ये खुद-ब-खुद स्पष्ट हो जाता है कि ऐसी फिल्में क्यों कम कमाती हैं। इससे हम इस बात का अंदाजा बख़ूबी लगा सकते हैं कि पितृसत्ता ने हमारी ज़िंदगी के छोटे से छोटे से पहलू को भी नहीं बक्शा।
कहते हैं फिल्में समाज का आइना होती हैं। और आइना अगर यह छवि दिखा रहा है तो बहुत ज़रूरी है बदलाव। यह बदलाव घर से शुरू हो तभी छवि बदलने के आसार नज़र आएंगे।
मूल चित्र : YouTube