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बॉलीवुड की 10 फेमिनिस्ट फ़िल्में जिन्होंने इस दशक की गरिमा बढ़ाई!

बॉलीवुड की 10 फेमिनिस्ट फ़िल्में, जो मुझे पसंद हैं और मुझे उम्मीद है कि इस लिस्ट से आप भी उतने ही प्रभावित और प्रेरित होंगे जितनी मैं हूँ!

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बॉलीवुड की 10 फेमिनिस्ट फ़िल्में, जो मुझे पसंद हैं और मुझे उम्मीद है कि इस लिस्ट से आप भी उतने ही प्रभावित और प्रेरित होंगे जितनी मैं हूँ!

मैं इस दशक के जाते-जाते अपनी कुछ पसंदीदा फिल्में देख रही थी, तो मुझे इस बात की ख़ुशी हुयी कि चाहे धीरे ही सही, बॉलीवुड में कुछ फेमिनिस्ट फिल्में बननी शुरू हो गयीं है। मैंने सोचा क्यों न इस दशक से बॉलीवुड की 10 फेमिनिस्ट फ़िल्मों की एक लिस्ट तैयार कर के बॉलीवुड लवर्स को अपनी तरफ से ये तोहफा दूँ!

यूँ तो ये लिस्ट और लम्बी हो सकती थी, क्यूंकि कुछ और फ़िल्में मुझे पसंद हैं लेकिन अभी सिर्फ इतनी! मुझे उम्मीद है कि मेरी इस लिस्ट से आप भी उतने ही प्रभावित और प्रेरित होंगे जितनी मैं हूँ!

इंग्लिश विंग्लिश (२०१२)

गौरी शिंदे लिखित एवम् दिग्दर्शित इस फ़िल्म को टोरंटो इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में दिखाया गया और वहां पर इस फिल्म ने पूरे ५ मिनिट का स्टैंडिंग ओवेशन पाया। यह पढ़कर एक भारतीय होने के नाते मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो गया था। साथ ही फ़िल्म फेयर फेस्टिवल में गौरी शिंदे को बेस्ट डेब्यू डायरेक्टर का भी अवॉर्ड मिला था। १० करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर ९१.४२ करोड़ का कलेक्शन किया। नारी समानता एवम् सशक्तिकरण पर बनी इस फ़िल्म में उस नारी की भूमिका निभाई है श्रीदेवी ने।

अभिनय के क्षेत्र में अपना लोहा मनवाने वाली श्रीदेवी ने इस फिल्म में एक गृहणी, एंथरप्रेनुर, मां, पत्नी, बहु और एक शिष्य की सशक्त भूमिका में खुद को बखूबी ढाला है। श्रीदेवी ने पूने शहर की एक महिला शशि का किरदार निभाया है। शशि एक व्यस्त गृहणी है जो घर में मोतीचूर के लड्डू बनाकर बेचती है। सभी कामों में कुशल शशि इंग्लिश बोलने-लिखने और समझने में कमज़ोर है। अपनी इस कमज़ोरी के कारण उसके पति और बेटी, उसको अनपढ़-गंवार समझ कर हमेशा नीचा दिखाते हैं। शशि आए दिन इस रवैए से आहत होती है। अपनी बहन के पास अमेरिका, भांजी की शादी के लिए, जाने के बाद शशि इंग्लिश सीखने की ठान लेती है।

शशि की लगन, विनम्रता और नारी की समाज एवम् परिवार में समानता पाने चाह ने सभी दर्शकों का दिल जीत लिया। फ़िल्म के आखिर में शशि का इंग्लिश स्पीच सबसे भावुक पलों में से एक है। यह फ़िल्म कई बार हसाती है और रूलाती भी है। गौरी शिंदे और श्रीदेवी के नारी सशक्तिकरण के चित्रण को सलाम। इस फ़िल्म में श्रीदेवी के अभिनय के लिए उन्हें अमेरिकी अभिनेत्री मरील स्ट्रीप की उपमा दी गई। नारी सशक्तिकरण के विनम्र रूप को दर्शाने के लिए गौरी शिंदे को हैट्स ऑफ!

मैरी कॉम (२०१४)

२०१४ में रिलीज़ हुई इस फिल्म ने क्रीडा क्षेत्र में अपने अस्तित्व को लेकर जूझ रही महिलाओं को आशा की एक नई किरण दिखाई। २००८ में वर्ल्ड बॉक्सिंग चैंपियनशिप जीतने के बाद मैरी को दुनिया की नज़रें एक सफल स्पोर्ट्स वुमन के नाम से पहचानने लगीं। २०१२ में समर ओलंपिक में कांस्य पदक मिलने के बाद लेखक सेविन क्वाद्रस, मैरी की जिंदगी से प्रभावित हुए और उन्होंने मैरी पर एक फ़िल्म स्क्रिप्ट लिखने की सोची। दिग्दर्शन के लिए ओमंग कुमार ने हां कही और मैरी से फ़िल्म बनाने की अनुमति ली।

१८ करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर १०० करोड़ का कलेक्शन किया। टोरंटो इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में उद्घाटन की रात को ही स्क्रीनिंग की जाने वाली मैरी कोम पहली भारतीय फ़िल्म साबित हुई।२०१४ का नेशनल अवॉर्ड फॉर पॉपुलर फ़िल्म, फ़िल्म फेयर अवार्ड फॉर बेस्ट फिल्म एवम् बेस्ट एक्ट्रेस के खिताब भी इसी फ़िल्म ने कमाए। प्रियंका चोपड़ा को मैरी का दमदार किरदार निभाने के लिए स्क्रीन एवम् स्क्रीन गिल्ड अवॉर्ड्स से भी सम्मानित किया गया। मैरी कोम को अपनी बेटी एवम् नारी सशक्तिकरण का रूप पाकर भारत देश गौरवान्वित महसूस करता है।

फ़िल्म में मुख्य किरदार प्रियंका चोपड़ा ने इस लगन से निभाया है कि मैरी का पहले अपने पिता और बाद में समाज के साथ का संघर्ष अंदर तक झकझोर देता है। मैरी के किरदार के साथ ईमानदारी बरतने के लिए प्रियंका ने ३ महीने की बॉक्सिंग की कड़ी ट्रेनिंग ली। मैरी की जीवन शैली, खानपान, स्वभाव सभी को आत्मसात किया और अपने अभिनय से दर्शकों तक पहुंचाया। मणिपुर में पली-बढ़ी मैरी का जीवन कई संघर्षों से गुज़रा। मणिपुर में चल रहा राजनीतिक तनाव, घर की आर्थिक तंगी, पिता का विरोध इन सारी अड़चनों को पार कर मैरी नेशनल बॉक्सर तो बनीं, लेकिन इंटरनेशनल बॉक्सिंग का सपना तब अधूरा रह गया जब शादी के बाद उन्होंने जुड़वा बेटों को जन्म दिया।

मां का दायित्व निभाते हुए उनके अंदर की बॉक्सर गुम हो गई थी। लेकिन इस खालीपन को उनके पति ने जाना। बच्चों की जिम्मेदारी उठाई और मैरी की ट्रेनिंग फिर से शुरू हुई। कड़ी ट्रेनिंग के बाद मैरी ने अंतररष्ट्रीय बॉक्सिंग चैंपियनशिप जीती और देश का झंडा पूरी दुनिया में सबसे ऊंचा लहराया। फ़िल्म के कुछ डायलॉग दिल को छू लेते हैं जब प्रियंका चोपड़ा दीवार पर पंच मारती हुई कहती हैं, “बॉक्सिंग हम को भूल गया हम बॉक्सिंग को नहीं भूला”, या “भारत मेरे दिल में बसता है…”

और मैरी का बॉक्सिंग के प्रति समर्पण तब नजर आता है जब उनके पिता उन्हें बॉक्सिंग और पिता में से एक को चुनने कहते हैं और वो बॉक्सिंग चुनती हैं। नारी शक्ति की ऐसी मिसाल कोई विरला ही बना सकता है। मैरी कॉम के जज्बे को नमन! ओमंग कुमार,प्रियंका चोपड़ा और सेविन क्वद्रस को बधाई, उन्होंने देश में कई और बेटियों को मैरी बनने का रास्ता दिखाया।

हाईवे (२०१४)

यह शीर्षक पढ़कर कई वाचकों को हैरत हो रही होगी। इस फ़िल्म के रिव्यू में आज तक नारी सशक्तिकरण का कहीं भी ज़िक्र नही हुआ। यह फ़िल्म हमेशा से स्टॉकहोम सिंड्रोम को दर्शाने के लिए चर्चा में रही है। मेरे नज़रिए में लेखक दिग्दर्शक इम्तियाज़ अली ने स्टॉकहोम सिंड्रोम के माध्यम से नारी की आंतरिक आज़ादी के कई द्वार खोले हैं।

घर से बाहर अपने ही अपहरणकर्ता के साथ अपनी आज़ादी ढूंढ़ना और उसे अपने परिवार एवम् समाज के सामने ज़ाहिर करना भी अपने आप में एक आज़ादी है। आलिया भट्ट ने इस फिल्म में वीरा का किरदार निभाया है जो बाल यौन शोषण की शिकार रह चुकी है और अपने ही घर में उसे घुटन महसूस होती है। जब वीरा का अपहरण होता है और उन्हें शहर से दूर लेे जाया जाता है तब उसे धीरे-धीरे उस घुटन से राहत का एहसास होता है और वो अपने ही अपहरणकर्ता महावीर से प्यार करने लगती हैं।

फ़िल्म देखते हुए आलिया का किरदार और इम्तियाज़ अली का दिग्दर्शन हमें सोचने पर मजबुर कर देता है कि हम कितनी जूठी दुनिया का हिस्सा है। आलिया का डायलॉग, “मैं बेवकूफ हूं, मगर आप लोगों में से एक नही हूं”, आप को रुला देता है। प्यार की आज़ादी और आज़ादी में प्यार महसूस करना, उसे ज़ाहिर करना, गलत को ग़लत और सही को सही बोल पाना भी एक योद्धा की पहचान होती है। नारी के रूप में ऐसी ही एक योद्धा का किरदार आलिया ने बखूबी निभाया है।

२०१४ में रिलीज़ हुई इस फिल्म को बर्लिन फ़िल्म फेस्टिवल के पैनोरमा कैटेगरी में दिखाया गया। एक सामाजिक संदेश को दुनिया भर तक पहुंचाने के लिए यह फिल्म सराही गई। २५ करोड़ के बजट में बनी इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर ५० करोड़ कमाए।

बॉक्स ऑफिस कलेक्शन के आंकड़े अपनी जगह हैं। लेकिन नारी शक्ति का जो रूप इम्तियाज़ अली ने दर्शाया है वह सबसे कीमती है। यह तोहफ़ा समस्त स्त्रियों को देने के लिए इम्तियाज़ अली का दिल से धन्यवाद!

नीरजा (२०१६)

नीरजा भनोट! यह नाम कौन नही जानता! वह सिर्फ २३ साल की थी। एक मॉडल, एक एयर होस्टेस और देश की एक सच्ची नागरिक। २३ साल की नीरजा हमें सीखा गई कि अपना कर्तव्य, देशप्रेम और इंसानियत सर्वोपरि है। १९८६ का समय जब नारी को अबला का तमगा पहनाया जाता था, नीरजा भनोट ने दिखाया कि बहादुरी स्त्री का गहना ही नहीं पहचान भी है।

५ सितंबर १९८६ के दिन पैन ऐम ७३ फ्लाइट कराची हवाई अड्डे पर रुकी और वहीं उस प्लेन को हाइजैक कर लिया गया। नीरजा ने वक़्त रहते पायलट्स को आगाह किया और फ्लाइट उड़ने नहीं दी। ३७९ मुसाफिरों में से नीरजा ने ३५९ मुसाफिरों की जान बचाई। इस कोशिश में नीरजा ने अपनी पीठ पर गोली खाई। आतंकवादी पकड़े गए। नीरजा भनोट को मरणोपरांत अशोक चक्र और कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया। पाकिस्तान सरकार और अमेरिका सरकार ने भी नीरजा को कई खिताबों से सम्मानित किया। नीरजा के नाम से डाक टिकट जारी किया गया और उनके नाम से बहादुर नारी के लिए अवॉर्ड भी शुरू किया गया।

नीरजा की इस बहादुरी को सुनहरे पर्दे पर उतारा लेखक सेविन क्वॉड्रास और डायरेक्टर राम माधवानी ने। फ़िल्म में नीरजा की समस्याओं से भरी शादी, शारीरिक अत्याचार करने वाले पति के साथ की ज़िंदगी भी बताई गई है। इस समस्या से बाहर आने का उनका संघर्ष, माता-पिता और भाइयों का साथ किस तरह उन्हें एक आत्मविश्वासी और बहादुर नारी के रूप में सामने लाता है, इसका सजीव चित्रण इस फ़िल्म में किया गया है।

२० करोड़ में बनी इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर १३६ करोड़ की कमाई की। यह आंकड़ा बताता है कि नारी शक्ति का सही चित्रण लोगों को कितना प्रभावित कर सकता है। इस फिल्म ने ६ अवॉर्ड्स जीते। उनमें से ६४ वा नेशनल अवॉर्ड फॉर बेस्ट फिल्म, फ़िल्म फेयर अवार्ड फॉर बेस्ट एक्ट्रेस, बेस्ट फिल्म भी है। फिल्म यह भी बताती है कि बहादुरी किसी उम्र मोहताज नही और देशप्रेम से ऊपर कोई जज़्बा नहीं, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष! नीरजा के नारी सशक्तिकरण और बहादुरी के जज़्बे को सलाम!

 दंगल (२०१६)

आज पूरा देश फोगट बहनों को सिर्फ जानता ही नहीं उन्हें देश की काबिल बेटियां भी मानता है। कुछ साल पहले यही बहनें समाज के ताने सुनकर भी अपनी पहलवानी की राह पर डटी रहीं। किसी लेखक ने कहा है कि हर कामयाब स्त्री के पीछे एक बाप होता है, जो जानता है कि वो सब कुछ कर सकती है। ऐसे ही एक पिता हैं हरियाणा के महावीर सिंह फोगट। और महावीर सिंह जी के सपने पर फ़िल्म बनाई नितेश तिवारी जी ने। इस फिल्म के निर्माता हैं आमिर खान।

आमिर खान ने २०१४ में अपने शो सत्यमेव जयते में गीता और बबीता फोगट को शो में आने का न्योता दिया। इस शो में फोगट बहनों से बात करते हुए काफी प्रेरणादायक लगा जब उन्होंने कहा कि उनके पिता बेटा और बेटी में फर्क नहीं करते। और महावीर सिंह जी ने भारत के लिए गोल्ड जीतने का सपना अपनी बेटियों से साकार करवाया। आज फोगट परिवार से पांच लड़कियां रैसलिंग के क्षेत्र में देश का सिर ऊंचा किए हुए हैं।

दंगल एक भावनात्मक एवम् प्रेरणा स्त्रोत फ़िल्म है। गीता और बबीता की अपने पिता से कड़ी ट्रेनिंग, गांव वालों के ताने, स्कूल में दोनों बहनों की बेइज़्ज़ती और इन सब से लड़कर इंटरनेशनल रैसलिंग चैंपियन बनने का सफर बहुत रोचक है। सभी कलाकारों ने फ़िल्म में जान डाल दी है।

आमिर खान का डायलॉग, ” म्हारी छोरी छोरों से कम है के?” अपने आप में नारी समानता को बढ़ावा देता है। वहीं पर एक सीन में गीता बबीता की सहेली कहती है कि ” कम से कम थारा बापू थाने औलाद का दर्जा तो देवे है।” यह सुनकर मन विदिर्ण हो जाता है कि अब २१ वी सदी में भी बाल विवाह के क्रूर प्रथा ने हमारी बेटियों को दबा कर रख दिया है।

गीता के कौमन वैल्थ में गोल्ड जीतने पर पूरा गांव उसके सफलता पर खुशियां मानता है। यह दर्शाता है कि हम उस दोगले समाज का हिस्सा हैं जहां समानता एक हक है जो छीनना पड़ता है।

बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में इस फ़िल्म ने कई तारीफें बटोरीं। ६२ वे फ़िल्म फेयर में बेस्ट फिल्म, बेस्ट एक्टर, बेस्ट डायरेक्टर और कई सारे अवॉर्ड्स इस फ़िल्म के झोली में आए। साथ ही फातिमा को ६४ वे नेशनल अवॉर्ड फेस्टिवल में बेस्ट एक्टर इन सपोर्टिंग रोल का खिताब मिला। चाइना फ़िल्म फेस्टिवल में भी यह फिल्म दिखाई गई ।

नारी समानता और सशक्तिकरण के लिए माता-पिता की बच्चों के प्रति सही सोच ही इस भावना को नया आयाम दे सकती है। महावीर सिंह फोगट, गीता और बबीता फोगट ने यह साबित कर दिया कि स्त्री के प्रति आदर और समानता घर से ही शुरू होती है। और इसी भावना का सही चित्रण इस फ़िल्म में हुआ है।
आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि ७० करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म में दुनिया भर से २००० करोड़ रुपए कमाए।

फ़िल्म देखकर खुशी मिलती है कि हमारा समाज नारी समानता की तरफ कदम आगे बढ़ा रहा है। वाकई में अब हर मां बाप ने कहना चाहिए,”म्हारी छोरी छोरों से कम है के!”

मार्गरिटा विद ए स्ट्रॉ (२०१४)

मार्गरिटा विथ ए स्ट्रॉ उन ‘हट के’ फिल्मों में से है जिसे समझने के लिए एक संवेदनशील मन और एक खुले दिमाग की जरूरत है। यही वजह है कि ६ करोड़ की लागत से बनी इस फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर ७ करोड़ कमाए।

हमारे समाज को अब भी दिमाग के खुलेपन की आदत होनी बाकी है। जहां फूहड़ हास्य फिल्में लागत से चौगुना कमाती हैं, वहीं सत्य जीवन पर आधरित फिल्में ठीक-ठाक व्यापार ही कर पाती हैं।

शारीरिक विकलांगता, उससे जुड़ी समस्याएं, चुनौतियां, नॉर्मल जीवन जीने की चाह, खुद के शरीर को लेकर अनगिनत सवाल, ‘सो कॉल्ड नॉर्मल’ लोगों का ‘नॉट सो नॉर्मल’ लोगों की तरफ देखने का नज़रिया इस फ़िल्म में बखूबी चित्रित किया है। यह हिम्मत का काम किया है लेखिका दिग्दर्शिका शोनाली बोस और लेखक नीलेश मनियार ने। मुख्य किरदार निभाया है कल्की कोचलीन ने, जो लैला बनी हैं।

लैला एक होनहार टीनएजर है जो दिल्ली में पढ़ती है। लैला को सेरेब्रल पाल्सी है, जिसके कारण रोज़मर्रा के कामों के लिए उन्हें दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। लैला को शारीरिक विकलांगता है, पर मानसिक रूप से वह नॉर्मल हैं। इस से हमें यह पता लगता है कि शारीरिक विकलांगता को समाज में स्वीकार कर के उन्हें मानसिक रूप से कम समझना बेवकूफी है।

लैला एक नॉर्मल सेक्स लाइफ जीना चाहती है। अपने शरीर और उसकी ज़रूरतों को समझने की जद्दोजहद को फ़िल्म में बहुत खूबसूरती से दिखाया गया है। अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए लैला अमेरिका जाती है। वहां पर भी वह अपने सभी काम आत्मनिर्भरता से किस तरह करती है यह भी समझने लायक है। ज्यादातर फिल्मों में विकलांगता को बहुत ही लाचार स्थिति दिखाते हैं। न्यू यॉर्क में लैला जानती है कि वह एक बाईसेक्सुअल है। लेकिन भारत में वो अपने परिवार, उनकी सोच, लैला की इस स्थिति को स्वीकारना, इन सब बातों को लेकर सवालों से जूझती रहती है।

इस फ़िल्म का आइडिया शोनाली को अपनी कज़न मालिनी चिब से मिला जो विकलांगता कानून कार्यकर्ता हैं। सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित लोगों की नॉर्मल सेक्स लाइफ जीने को चाह उन्होंने बहुत करीब से देखी है।
इस फ़िल्म के लिए कल्की को स्क्रीन अवॉर्ड फॉर बेस्ट एक्ट्रेस और नेशनल अवॉर्ड फॉर बेस्ट जुरी चॉइस भी मिल चुका है। फ़िल्म की पहली स्क्रिप्ट ने Sundance award पाया। टिफ में स्क्रीनिंग हुई इस फिल्म ने खूब तालियां बटोरीं।

समय आ गया है कि हम हमारे अंदर हर तरह के लोग और उनकी स्थिति को लेकर संवेदनशीलता बढ़ाएं। फ़िल्म ने नारी सशक्तिकरण की ऐसी मिसाल कायम की है जहां हर स्त्री अपनी सेक्सुअलिटी को लेकर आज़ादी से अपने विचार रख सके। यह फ़िल्म उन सभी के लिए प्रेरणादायक है जो दुनिया को खुले दिमाग से देखते हैं।

तुम्हारी सुलू (२०१७)

मैं कर सकती है! फ़िल्म का यह स्लोगन नारी शक्ति की पहचान है। एक स्त्री अपने घर के साथ-साथ अपने काम और अपने आप को किस तरह संतुलित रख सकती है, यह फ़िल्म इस संतुलन की बेजोड़ मिसाल है।

फ़िल्म का मुख्य किरदार सुलु है जिसे बेहतरीन अदाकारा विद्या बालन ने निभाया है। फ़िल्म का लेखन दिग्दर्शन सुरेश त्रिवेणी ने किया है। फ़िल्म में एक भारतीय गृहणी, उसकी जिम्मेदारियां, घर को कुशलता से चलाने का हुनर, आत्मविश्वास, पति और बेटे के साथ रिश्तों में संतुलन, इन सभी के बीच खुद को खुश रखने की कोशिश फ़िल्म की जान है।

सुलू एक मध्यम वर्गीय गृहणी है जिसे रेडियो स्टेशन से प्राइज़ पाने का कॉल आता है। वहां पर रेडियो जॉकी के ऑडिशन के लिए वह एक स्पर्धा में भाग लेती है और रेडियो जॉकी के लिए चुन ली जाती हैं। चुनौती तब शुरू होती है जब उन्हें रात के शो पर रिलेशनशिप कॉल का जवाब देना होता है। रात में घर से बाहर रहना और काम करना जहां भारतीय समाज में स्त्री के लिए बुरा माना जाता है वहीं सुलू इस चुनौती को स्वीकारती है और देखते ही देखते एक सफल रेडियो जॉकी बन जाती है। रात में कई बार वाहियात कॉल भी आते हैं तो कई बार किसी वृद्ध पुरुष को अपने अकेलेपन से राहत दिलाती है सुलू की आवाज़।

फ़िल्म देखते हुए महसूस होता है कि चाहे कितने ही पुरुषप्रधान समाज के पुलिंदे बांध लो, हर आदमी एक सच्चा साथी, एक स्त्री में ही ढूंढ़ता है। स्त्री ना केवल इस समाज को संतुलित करती है बल्कि हर रिश्ते में जान डाल देती है। फ़िल्म में दुखद मोड़ तब आता है जब सुलू एक घटना के बाद रात की यह नौकरी छोड़ने का फैसला लेती है। और तभी उसे एक और नया कमाई का मौका नज़र आता है और फिर वही स्लोगन ‘मैं कर सकती है।’

फ़िल्म कई जगह आप को सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या हम भारतीय गृहणी की काबिलियत को कम तो नही आंक रहे?

२० करोड़ में बनी इस फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर ८४ करोड़ कमाए। विद्या बालन को फ़िल्म फेयर में बेस्ट एक्ट्रेस अवॉर्ड भी मिला। नारी सशक्तिकरण का यह रूप काफ़ी दिलचस्प है – #मैं कर सकती है।

हिचकी (२०१८)

एक और स्त्री प्रधान फ़िल्म, एक और असंतुलित मानसिक स्थिति – टुरेट सिंड्रोम को लेकर चुनौती, एक और फाइटर की कहानी! जी हां! हिचकी!

२०१८ में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म में हिचकी गर्ल हैं रानी मुखरजी। फ़िल्म का दिग्दर्शन किया है सिद्धार्थ मल्होत्रा ने और यह कहानी सत्य जीवनी पर आधारित है। इस कहानी के लेखक हैं ब्रैड कोहेन। ब्रैड की किताब ‘फ्रंट ऑफ द क्लास ‘ पर आधारित इस फ़िल्म ने दुनिया को से वाकिफ करवाया।

फ़िल्म में रानी ने इस मानसिक स्थिति के चलते, बात करते वक्त आने वाली हिचकियां, अजीबो गरीब आवाज़ें और उनके कारण महसूस होने वाली शर्म को सजीव रूप से दर्शाया है। टुरेट सिंड्रोम के रहते, समाज से मिलने वाला धिक्कार, पिता का उनको अस्वीकार करना, नौकरी मिलने में दिक्कत, रानी यानी मिस माथुर ने दर्शकों तक बखूबी पहुंचाया है।

एक स्कूल में नौकरी मिलने पर रानी को वह क्लास पढ़ाने के लिए दी जाती है जिसमें चाल के बच्चे पढ़ते हैं। इन बच्चों की शरारतें, गुस्सा और नासमझी को रानी एक शिक्षिका के रूप में स्वीकार करते हुए किस तरह परिवर्तन लाती है, किस तरह अपनी ही हिचकियों को अपनी कमज़ोरी ना बनाते हुए ताकत बनाती है, यह इस बात की गवाही देता है कि नारी की कमज़ोरी चाहे उसके दिमाग में हो, मगर इरादों में नहीं होती। एक स्त्री अगर ठान ले तो शून्य से आसमान बना सकती है।

फ़िल्म के आखिर में बताया गया है कि वही चाल के बच्चे जिन्हें मिस माथुर पढ़ाती थीं, किस तरह काबिल बन गए हैं। फ़िल्म देखकर जब आप बाहर आते हो तो एहसास होता है कि नारी शक्ति वो है जो पूरी पीढ़ी को काबिल बना सकती है। अपनी कमज़ोरी को स्वीकार करना और उसे ताकत में बदलना एक सशक्त नारी की  पहचान है।

इस फिल्म के लिए रानी मुखर्जी को फिल्म फेयर बेस्ट एक्ट्रेस के लिए नॉमिनेट किया गया। शंघाई इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में भी यह फिल्म शोकेस की गई। १२ करोड़ की बजट की इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर २३९ करोड़ की बाज़ी मारी।

फ़िल्म के कुछ डायलॉग दिल पर छाप छोड़ देते हैं – “टुरेट मेरे बातों में है, इरादों में नहीं” और
“There are no bad students only bad teachers”

हिचकी जैसी फिल्म और रानी मुखर्जी जैसी अदाकारा नारी सशक्तिकरण को एक नया आयाम देती हैं।

लॉन्ग लिव हिचकी!

मणिकर्णिका (२०१९)

https://www.youtube.com/watch?v=hdPoGZi4HLM&feature=youtu.be

इस नारी शक्ति को दुनिया का बच्चा-बच्चा जानता है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई! बचपन की मनु से लक्ष्मीबाई तक का सफ़र फ़िल्म मणिकर्णिका में बेहतरीन रूप से दिखाया गया है। ब्रिटिश राज के सामने ना झुकने का प्रण, अदम्य साहस और प्रजा के लिए प्रेम की लक्ष्मीबाई की खूबियों को कंगना रनौत ने फ़िल्म में सजीव कर दिया है – “मैं अपनी झांसी नही दूंगी”, “यह सिर ना डर से झुका है, ना अभिमान से उठा है” जैसे डायलॉग नस-नस में साहस का संचार कर देते हैं। रानी लक्ष्मीबाई की युद्ध कुशलता, हिम्मत और सूझबूझ को फ़िल्म में खूबसूरती से दिखाया गया है। ब्रिटिश सरकार के साथ हुई प्रसिद्ध झांसी की लड़ाई फिल्म में बहुत ही रोचकता के साथ फिल्माया गया है।

फ़िल्म का दिग्दर्शन स्वयं कंगना रनौत और राधा कृष्ण जग्रलामुदी ने किया है। डायलॉग प्रसून जोशी ने लिखे हैं। यह फिल्म दुनिया भर में एक साथ ५० देशों में ३५०० स्क्रीन्स पर तमिल, तेलगु और हिंदी में रिलीज की गई। फ़िल्म की स्क्रीनिंग सर्वप्रथम राष्ट्रपति जी श्री रामनाथ कोविंद को दिखाई गई। उन्होंने इस फिल्म को बहुत सराहा। १०० करोड़ की लागत से बनी इस फ़िल्म ने १५५ करोड़ रुपए कमाए।

रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगना बेटी पाने के बाद भी हमें नारी सशक्तिकरण की ज़रूरत महसूस होना हमारे समाज के लिए शर्मनाक बात है। फ़िल्म देखकर सुभद्रा कुमारी चौहान के कविता का चित्रण याद आता है जिसमें उन्होंने कहा है,

‘लक्ष्मी थी या दुर्गा थी
वह स्वयं वीरता की अवतार
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार’

नारी शक्ति का जो रूप हमें हमारे इतिहास से मिला है, आओ उसे अपने अंदर संजोएं, संवारें, निखारें।

ड्रीम गर्ल (२०१९)

नारी सशक्तिकरण और सम्मान के समर्थन में आई यह फ़िल्म इसलिए ख़ास है क्योंकि यहां पूजा के रोल में कोई एक्ट्रेस नहीं बल्कि अभिनेता आयुष्यमान खुराना हैं। आप सही समझे। आयुष्मान जो कि फ़िल्म में करम का किरदार निभा रहे हैं, दरअसल एक स्त्री के रूप में लोगों से बात करते हैं।

करम बचपन से ही औरत की आवाज़ बखूबी निकाल लेता है और उसके इसी हुनर के कारण उन्हें नाटक में कभी सीता का रोल मिलता है तो कभी द्रौपदी का। नौकरी ढूंढने निकला करम एक फ्रेंड शिप कॉल सेंटर पहुंच जाता है और वहां पूजा की आवाज़ में लोगों के कॉल अटेंड करता है। यह नौकरी अब करम को अच्छी कमाई देने लगी है और करम की आर्थिक स्थिति सुधारने लगी है। यह नौकरी करते हुए करम को अचानक महसूस होता है कि नकली पूजा बनकर वह लोगों को धोखा दे रहा है। उसको ये भी एहसास होता है कि लोग कितने अकेले हैं, और अपना दर्द बांटने वाला कोई नज़दीक नहीं है, तभी तो ऐसे कॉल सेंटर धड़ल्ले से चले जा रहे हैं। और सभी के दर्द बांटने कि क्षमता सिर्फ एक स्त्री में हो सकती है चाहे वह विधुर हो, कोई ब्रम्हचारी या कोई अकेली स्त्री। स्त्री बिन हमारा समाज कितना अधूरा है।

नारी सशक्तिकरण के इस विषय को पुरुष किरदार के साथ चित्रित करने के लिए मैं लेखक दिग्दर्शन राज शांडिल्य को बहुत बधाई देती हूं। नारी सशक्तिकरण और सम्मान का बेहतरीन उदाहरण तब सामने आता है जब करम की मंगेतर माही उसके इस काम को सराहती है जबकि पूरी दुनिया करम पर धोखा देने का लांछन लगती है।

इस फ़िल्म को देखकर यह पता चलता है कि युग चाहे जो हो सतयुग में सीता, त्रेता युग में राधा और कलयुग में हम सब, जीवन के अधूरेपन को पूरा करने के लिए एक सशक्त स्त्री हर रूप में सामने आती है।

तो ये थीं इस दशक की मेरी पसंदीदा बॉलीवुड की 10 फेमिनिस्ट फ़िल्में। आशा है आपने भी ये सारी फिल्में देखी होंगी और इन्हें इतने ही सराहा होगा जितना कि मैंने!

मूल चित्र : YouTube 

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

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Pragati Bachhawat

I am Pragati Jitendra Bachhawat from Mumbai. Homemaker and an Indian classical vocalist. Would love to explore a new Pragati inside through words and women's web. read more...

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